लगातार कोरोना संक्रमण के प्रसार में गिरावट के आंकड़े सामने आ रहे हैं। एक माह बाद एक लाख से कम केस सामने आये। संक्रमण दर में भी गिरावट है। सुखद यह है कि बच्चे स्कूल जाते दिखे। स्कूल-कॉलेजों में रौनक लौटने लगी। अधिकतर राज्यों में कक्षा नौ से ऊपर के स्कूल खुलने लगे हैं। कुछ राज्यों में छोटे बच्चों के भी स्कूल खुले हैं। सही बात है कि जब सब कुछ खुलने लगा है तो स्कूल क्यों बंद रहें। पिछले दो सालों में बच्चों ने महामारी के भय, मानसिक तनाव तथा घुटन का वातावरण जीया है। कहने को बच्चों के लिये ऑनलाइन पढ़ाई का विकल्प मौजूद था, मगर कितने प्रतिशत बच्चों को यह लाभ मिला? अंग्रेजीदां स्कूल में तो यह कोशिश कुछ सीमा तक कामयाब रही, लेकिन सरकारी स्कूलों के छात्र-छात्राओं की मजबूरी किसी से छिपी नहीं है। बहरहाल, यह निष्कर्ष सामने आया कि ऑनलाइन पढ़ाई परंपरागत पढ़ाई का अंतिम विकल्प नहीं है क्योंकि इसकी अपनी सीमाएं हैं। इसमें बच्चों का स्वाभाविक मानसिक विकास संभव नहीं है। संगी-साथियों के मिलने-जुलने के बिना उनका सामाजीकरण अधूरा रह जाता है। स्वाभाविक मानवीय संवेदनाएं विकसित नहीं होतीं। महामारी विशेषज्ञों ने भी कहा कि बच्चों में स्वाभाविक, मजबूत रोग प्रतिरोधक क्षमता उनका बचाव करती है। उन्हें संक्रमण का खतरा कम था लेकिन यदि स्कूल खुलते तो घर के बड़े-बुजुर्गों के लिये वे संक्रमण के वाहक बन सकते थे। सुखद है कि देश के पांच करोड़ किशोरों को पहला टीका लग चुका है। अच्छी बात है कि विद्यार्थी अब बोर्ड की परीक्षाओं की तैयारी कर पायेंगे। बहरहाल, जब देश में धूम-धड़ाके से चुनाव के सारे प्रपंच हो रहे हैं तो स्कूल ही क्यों बंद रहें? बशर्ते सुरक्षित दूरी, थर्मल स्क्रीनिंग से जांच और सैनिटाइजेशन की प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए। इसे कुछ सालों के लिये जीवन के लिये न्यू नॉर्मल मान लें। दरअसल, महामारी विशेषज्ञ भी आश्वस्त नहीं हैं कि फिर कोई नया वेरिएंट नहीं आयेगा।
बहरहाल, देश खुलने लगा है। सामान्य गतिविधियां चलने लगी हैं। बाजार खुल गये हैं। चुनाव आयोग भी राजनीतिक दलों को कुछ छूट देने लगा है। केंद्र सरकार ने सौ फीसदी उपस्थिति के साथ ऑफिस चलाने को कह दिया। इसके बावजूद कोरोना के बचाव के तीनों मंत्रों मास्क, शारीरिक दूरी और सैनिटाइजेशन को हमें नहीं भूलना चाहिए। याद रहे कि देश में कोरोना संक्रमण से मरने वालों का सरकारी आंकड़ा पांच लाख पार कर चुका है। यह बहस का विषय हो सकता है कि यह आंकड़ा वास्तविकता के कितने करीब है। याद रहे कि पहली लहर के बाद लापरवाही की हमने बड़ी कीमत चुकाई थी और अप्रैल से जुलाई के बीच दो महीनों में दो लाख लोगों ने जान गंवायी थी। इस सबक को हम अच्छी तरह याद रखें। आने वाले समय में यदि ये सबक स्कूलों के पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनें तो आने वाली पीढ़ियों को किसी भी संक्रामक रोग से बचाव में मदद मिल सकेगी। निष्कर्ष यही है कि किसी भी तरह की लापरवाही हमें बड़े जोखिम में ला सकती है। प्रत्येक दिन के संक्रमण के आंकड़ों में गिरावट, इलाज कराने वाले मरीजों की संख्या में कमी तथा संक्रमण दर में गिरावट का मतलब यह कदापि नहीं है कि महामारी चली गई है। यह वायरस हमारे जीवन का हिस्सा बना रहेगा और कम रोग प्रतिरोधक क्षमता वाले लोगों को परेशान करता ही रहेगा। वहीं ये संकट बताता है कि हमें अपने खानपान व जीवन शैली में सुधार की जरूरत है। ऐसे में बड़ी लापरवाही नई लहर की पृष्ठभूमि भी तैयार करती है। यद्यपि पूरा देश चाहता है कि हम जल्दी सामान्य स्थिति की ओर लौटें लेकिन इसके लिये हमारे जिम्मेदार व्यवहार की बड़ी भूमिका होगी। साथ ही टीकाकरण अभियान को सार्थक परिणति देना भी उतना ही जरूरी है। यह सर्वविदित है कि सफल टीकाकरण के चलते हम तीसरी लहर काे घातक बनाने से रोक पाये हैं। पूरे भारत में एक अरब सत्तर करोड़ से अधिक डोज लगाने के बाद यह सुखद ही है कि तीसरी लहर देश में उतार पर है। डब्ल्यूएचओ भी महामारी में राहत की उम्मीद जता रहा है।