दिनेश सी. शर्मा
कोविड महामारी ने आधुनिक चिकित्सा पद्धति और परंपरागत इलाज के तौर-तरीकों के बीच विवाद को गहरा दिया है। हाल ही में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन और पतंजलि आयुर्वेद के संस्थापक रामदेव के बीच हुए वाक्युद्ध ने जनता के बीच भी बहस को काफी हवा दे डाली। रामदेव की दलील थी कि आधुनिक मेडिकल पद्धति के पास न तो कोविड-19 का इलाज करने को कोई दवा है, न ही वह मौजूदा वैक्सीन संक्रमण को पूरी तरह रोकने में समर्थ है। उन्होंने आधुनिक पद्धति को लोगों को लूटने में दवा कंपनियों और अस्पतालों के बीच गठजोड़ बताया। अपने पलटवार में आईएमए ने रामदेव पर ‘छद्म-विज्ञान’ को बढ़ावा देने और वैक्सीन के प्रति लोगों में जान-बूझकर हिचक बनाने का दोष मढ़ा। ऐसा लगा मानो यह लड़ाई एलोपैथी बनाम आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के नफा-नुकसान गिनाने की हो। किसी एक इलाज पद्धति को अन्यों से सिरमौर बताने पर जोर देना बनावटी और भ्रामक है। इसकी बजाय सारा ध्यान किसी दवा को प्रामाणिक सबूतों के आधार पर स्वीकार्य सोपानों पर खरा बनाने पर केंद्रित होना चाहिए।
दुनियाभर के तमाम समाजों में बहुत पहले से मानव जाति को दरपेश बीमारियों का इलाज प्राकृतिक उत्पादों से होता आया है। आधुनिक दवाओं की आमद तो हाल ही में हुई है। वे दवाएं जिन्होंने इलाज का पूरा चेहरा-मोहरा बदल डाला था, उनका आरंभ पिछली सदी में प्राकृतिक स्रोतों से ही हुआ था। सनद रहे कि किसी दवा को मेडिकल पद्धति में शामिल किए जाने से पहले कई चरणों से गुजरना होता है। इस प्रक्रिया में सक्रिय अवयवों की शिनाख्त, प्री-क्लीनिकल टेस्ट, दवा के असर की कार्य विधि को समझना, दुष्प्रभावों का अध्ययन और बड़े पैमाने पर क्लीनिकल टेस्ट करना अनिवार्य होते हैं। बीसवीं सदी के मध्याह्न तक, उच्च रक्तचाप का इलाज केवल नमक का सेवन घटाना ही था। वर्ष 1931 में कोलकाता के कविराज गणनाथ और कार्तिक चंद्र बोस ने खोजा कि सर्पगंधा के क्षार से उच्च रक्तचाप का इलाज संभव है। आगे, दिल्ली स्थित तिब्बिया कॉलेज के डॉ. सलीमुज्जमां सिद्दिकी ने इस बीमारी के उपचार के लिए पांच जड़ी बूटियों के क्षारों को अलग कर, इसका प्रयोग मेढकों और बिल्लियों पर किया था। इन खोजों को आधार बनाकर बम्बई (मुंबई) के हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. रुस्तम जाल वकील ने कुछ मरीज़ों पर प्रयोगात्मक अध्ययन किया और परिणाम ब्रिटिश मेडिकल जर्नल, 1949 में प्रकाशित किया। इस खोजपत्र ने तहलका मचा दिया और पूरी दुनिया में उच्च रक्तचाप प्रबंधन का चेहरा बदल गया।
इसी तरह, 1990 के दशक में केंद्रीय दवा अनुसंधान संस्थान (सीडीआरआई) और भारतीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान (सीएसआईआर) के संयुक्त तत्वावधान में ब्राह्मी के अर्क और आयुर्वेद में जादुई बूटी मानी जाने वाली ब्राह्मी के मिश्रण से स्मरण शक्ति बढ़ाने वाली दवा विकसित की गई थी। यह तकनीक चेन्नई की एक फर्म को हस्तांतरित की गई, जिसने ‘मैमोरी प्लस’ के नाम से इसे बाजार में उतारा था। इस दवा का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हाराव ने किया था और अगले प्रधानमंत्री आई. के. गुजराल ने अनुमोदन करते हुए इसे निजी इस्तेमाल में प्रभावशाली बताया था। लेकिन कुछ वर्षों बाद, सीडीआरआई ने अगली खोज में पाया कि मैमोरी प्लस में स्मरण शक्ति बढ़ाने वाला सक्रिय अवयव बेहद कम है लिहाजा उक्त कंपनी का लाइसेंस निरस्त कर दिया गया।
नि:संदेह जो दवा फार्मूले पुरातन आयुर्वेदिक किताबों में बताए गए हैं, आधुनिक समय में जब तक वे प्रभावशीलता और सर्वसम्मत सुरक्षा सोपानों पर खरे नहीं उतरते, तब तक बतौर कारगर दवा बाजार में उतारने लायक माने जाएं, यह जरूरी नहीं। इस तार्किकता से रिवायती इलाज के कुछ पक्षधरों और उनके समर्थकों को समस्या हो जाती है। हालिया उदाहरण आंध्र प्रदेश के कृष्णापटनम क्षेत्र के बी आनंदैया का है, जो स्थानीय जड़ी-बूटियों से बनाई कोविड-19 की ‘जादुई दवा’ हजारों लोगों को बांट रहे हैं। राज्य सरकार ने इस सप्ताह उक्त औषधि की जांच करवाई है और पाया है कि इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं है, तथापि कोविड-19 पर कितनी असरदार है, यह अभी नहीं प्रामाणिक नहीं है। फिर भी आनंदैया को अपनी दवा बांटने की इजाजत मिली हुई है। इसी तरह का मामला पतंजलि द्वारा लाई गई ‘कोरोनिल’ दवा का है, जिसको स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन के हाथों जारी करवाया गया था और अन्य कई मंत्रियों ने अनुमोदन किया है। पहले पहल इसको कोविड-19 का उपचार बताकर बेचा गया लेकिन बाद में इस दावे को कमतर करते हुए इसको ‘रोग प्रतिरोध क्षमता’ बढ़ाने वाला बताया। ऐसे तमाम मामलों में अव्वल तो प्रभावशीलता का कोई सबूत नहीं होता या फिर संदिग्ध होता है।
रामदेव और आनंदैया जैसे लोग चाहते हैं कि विज्ञान के कड़े सोपानों से गुजरे बगैर उनकी दवा और खुराक पर ‘वैज्ञानिक प्रामाणिकता’ की मुहर लग जाए। अब पतंजलि का अपना दवा अनुसंधान और शोध विभाग है, जो वैज्ञानिक पत्रिकाओं में अनुसंधान पत्र प्रकाशित करता रहता है। यह उपाय रामदेव के बढ़ा-चढ़ाकर किए गए दावों को किसी तरह वैज्ञानिक रूप से प्रामाणिक सिद्ध करने के मंतव्य हैं। अभी तक जो भी शोध-पत्र जारी-प्रकाशित हुए हैं, उनमें केवल विश्लेषण संबंधी और जानवरों पर किए गए शोध के बारे में जिक्र है, इनमें आयुर्वेदिक दवा की प्रभावशीलता का पुख्ता सबूत नदारद है। अधिकांश शोधपत्र उन पत्रिकाओं में छपे हैं, जिन्हें मेडिकल जगत में दोयम दर्जे का माना जाता है और मुख्यधारा के प्रकाशन भी नहीं हैं। यही वे शोधपत्र हैं, जिनका जिक्र कर रामदेव अपनी दवाएं ‘विज्ञान सम्मत’ होने का दावा करते हैं, लेकिन सफाई से यह बात छुपा लेते हैं कि इनमें एक भी क्लीनिकल अध्ययन और जगह-जगह किए गए क्लीनिक्ल परीक्षणों पर आधारित नहीं है। जब वे दावा करते हैं कि पतंजलि की दवाएं कमर दर्द से लेकर कैंसर तक ठीक करने में समर्थ हैं, यदि सच में सबूत जुटाने को गंभीर हैं, तो उन्हें चाहिए अग्रणी चिकित्सा संस्थानों और अस्पतालों को साथ जोड़ते हुए अपनी दवा का विस्तृत प्रयोगात्मक परीक्षण करवाकर परिणाम नामी पत्रिकाओं में छपवाएं।
विज्ञान पुख्ता सबूतों के आधार पर क्रमिक विकास करते हुए आगे बढ़ता है। यह पुरातन अभिलेखों की तरह लकीर का फकीर नहीं है। यही वजह है कि कोविड-19 के बारे में जैसे-जैसे नयी जानकारी मिलती गई, वैसे-वैसे इलाज के दिशा-निर्देशों में लगातार बदलाव आता गया, चाहे यह प्लाज़मा थेरेपी हो या हाइड्रोक्लोरोक्वीन अथवा इवेरमेक्टीन दवाओं का प्रयोग हो। यह मेडिकल विज्ञान की कमजोरी नहीं बल्कि नया सीखकर तुरंत सुधार करने की समर्था का संकेत है। आज अस्पतालों में कोविड-19 के इलाज हेतु अतार्किक दवा मिश्रण और एंटी बायोटिक्स का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। जबकि नियामक व्यवस्था ऐसे तत्वों पर नकेल डालने और अन्य चुनौतियों से जूझते हुए सही राह की गुंजाइश बनाने में जुटी है। भारत जैसे देश में जहां स्वास्थ्य व्यवस्था बहुस्तरीय है और विभिन्न सांस्कृतिक आस्थाएं हैं, वहां आधुनिक दवाओं की एवज में रिवायती इलाज पद्धति को एकदम नकारना समझदारी नहीं होगी। सभी उपचार पद्धतियों को एक साथ वजूद बनाए रखने की इजाजत हो बशर्ते वे प्रभावशीलता और सुरक्षा मानकों पर खरी उतरें।
लेखक वैज्ञानिक मामलों पर टिप्पणीकार हैं।