आर्थिक असमानता के संकट की ओर इशारा
कुछ समय पहले सड़क व परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के उस बयान पर सरकार असहज नजर आयी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत एक संपन्न देश है, लेकिन यहां के लोग गरीब हैं। यह बात कोई नयी नहीं है, दशकों से दोहरायी जाती रही है, मगर जब यह बात सरकार का मंत्री कहे तो सरकार की किरकिरी होती है। लेकिन अब इसी बात को भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने दोहराया तो कई सवाल पैदा हुए। देश में व्याप्त आर्थिक विषमता की ओर इंगित करते हुए दत्तात्रेय ने चिंता जताते हुए कहा, ‘देश में बीस करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। यही नहीं, करीब तेईस करोड़ लोग रोज तीन सौ पिचहत्तर रुपये ही कमा पाते हैं।’ अशिक्षा व सामाजिक असंतोष के चलते गरीबी विकराल रूप धारण कर रही है। साथ ही चिंता जतायी कि चार करोड़ बेरोजगार हमारी नीतियों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। संघ नेता ने विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था न होने के कारण ग्रामीण परिवेश से तेज होते पलायन व शहर की चरमराती व्यवस्था पर इससे दबाव बढ़ने की ओर भी इशारा किया। देखने वाली बात यह है कि संघ के वरिष्ठ नेता के बयान को सरकार कितनी गंभीरता से लेती है। इसके चलते अपनी नीतियों में किस हद तक बदलाव लाती है। निस्संदेह, सौ साल बाद आई वैश्विक महामारी और अब रूस-यूक्रेन युद्ध ने देश की आर्थिक प्रगति को पलीता लगाया है, जिसने देश में महंगाई व बेरोजगारी के संकट को बढ़ावा दिया है। लेकिन यहां सवाल यह है कि सरकार ने किस तरह की नीतियां बनाकर आर्थिक असमानता को दूर करने का प्रयास किया है। डॉलर के लगातार मजबूत होने से कमजोर होते रुपये तथा अस्सी फीसदी पेट्रोलियम पदार्थों के आयात की हमारी मजबूरी ने निस्संदेह हमारी आर्थिक चुनौतियों को बढ़ाया है। जिसके चलते व्यापार घाटे का बढ़ना और विदेशी मुद्रा भंडार का क्षरण तेजी से जारी है।
हालांकि, एक सच यह भी है कि देश की अर्थव्यवस्था कोरोना संकट से पहले भी सुस्ती के दौर से गुजर रही थी। नोटबंदी के कदम से छोटे व मझोले उद्योगों को झटका लगा था। हमारा अनौपचारिक उद्योग क्षेत्र श्रम प्रधान तकनीक पर आधारित होने के कारण रोजगार का बड़ा स्रोत रहा है। वहीं देश के औद्योगिक उत्पादन में भी गिरावट आयी जिससे बेरोजगारी की दर में इजाफा ही हुआ। वहीं दूसरी ओर कोरोना संकट के दौरान लगे सख्त लॉकडाउन का एमएसएमई पर घातक प्रभाव हुआ। जहां उत्पादन संकट बढ़ा, वहीं बेरोजगारी की दर में तेजी आई। करोड़ों लोग पलायन करके अपने गांवों की तरफ लौटे। अपने घरों के पास उन्हें रोजगार नहीं मिल पाया। आपूर्ति शृंखला में बाधा व पूंजी के संकट के कारण सर्वाधिक रोजगार देने वाले कुटीर उद्योग धंधों पर प्रतिकूल असर पड़ा। इससे समाज में आर्थिक असमानता को गति मिली। केंद्र सरकार की नीति में खामी यह रही कि उसने उन बड़े उद्योगों को तरजीह दी, जहां श्रम शक्ति का कम उपयोग किया जाता है। कहने को जीएसटी बढ़ी लेकिन इस व्यवस्था की जटिलता के चलते छोटे रोजगारों का दायरा सिमटा है। बड़ी कंपनियों को जीएसटी का लाभ मिला, लेकिन छोटे परंपरागत रोजगार के क्षेत्र सिमटने लगे। जब संघ के बड़े नेता और केंद्र सरकार के मंत्री ही वामपंंथियों की तर्ज पर आर्थिक विषमता के सवालों के जरिये केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करें तो निश्चित तौर पर सरकार के लिये असहजता की स्थिति है। ये सवाल सरकार को नीतियों में विकेंद्रीकरण के लिये प्रेरित करने वाले हैं। जाहिरा तौर पर एक फीसदी लोगों के पास देश की बीस फीसदी आय और चालीस फीसदी लोगों के पास महज तेरह प्रतिशत आय का होना आर्थिक असमानता की ओर ही इशारा करता है। ऐसे में कहा जा सकता है कि भारत के दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था होने का लाभ आम आदमी को नहीं मिल रहा है। मानव विकास सूचकांक यानी 2021-22 की एचडीआर रिपोर्ट में भारत का 132वें स्थान पर पहुंचना इसी संकट को दर्शाता है।