समरकंद में समाप्त शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन का बड़ा हासिल प्रधानमंत्री व रूसी राष्ट्रपति पुतिन से द्विपक्षीय मुलाकात तो है ही, भारत की एक उपलब्धि यह भी है कि अगला शिखर सम्मेलन भारत में होगा। इसके बाद भारत एक साल तक इसका अध्यक्ष बना रहेगा। भले ही समरकंद में मोदी व शी जिनपिंग में द्विपक्षीय बातचीत न हो पायी हो, लेकिन शी ने इसकी अगली मेजबानी के लिये भारत को शुभकामनाएं दी हैं। निस्संदेह, दुनिया की तीस फीसदी वैश्विक अर्थव्यवस्था और चालीस फीसदी आबादी का नेतृत्व करने वाला शंघाई सहयोग संगठन आज एक ताकत है। आज दुनिया के अट्ठारह देश इसके सदस्य हैं। भारत व चीन जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं इसके केंद्र में हैं। भारत की कोशिश रही है कि सदस्य देशों में सहयोग विश्वास पर आधारित हो। यही वजह है कि प्रधानमंत्री ने एससीओ सदस्यों के बीच बेहतर आपूर्ति शृंखला बनाने की वकालत की है। हालांकि, पाकिस्तान के अड़ियल रवैये और चीन की कुटिल कूटनीति के बीच इन देशों से भरोसे के रिश्तों की उम्मीद कम ही है, लेकिन रूस जैसा आजमाया मित्र भारत के साथ सदा खड़ा रहा है। पुतिन और मोदी के बीच समरकंद में द्विपक्षीय बातचीत इसी बात का प्रमाण भी है। यह भी हकीकत है कि ‘आत्मनिर्भर भारत’ की पहल और देश को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने के प्रयास को चीन एक स्पर्धा के रूप में देखता रहा है। बहरहाल इसके बावजदू एससीओ के गहरे क्षेत्रीय सहयोग तथा वैश्विक मायने हैं। यदि ईमानदार प्रयास हों तो सभी देश आतंकवाद के खात्मे की दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं। खासकर मौजूदा विषम हालात वाले विश्व में एससीओ की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। वहीं दूसरी ओर दुनिया में यूक्रेन युद्ध के चलते किनारे किये गये पुतिन को इतना बड़ा मंच मिलने पर नाटो देशों व अमेरिका में बेचैनी जरूर होगी। उनकी निगाहें आगे भी संगठन की गतिविधियों पर होंगी। लेकिन एक गुटनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में भारत से उम्मीदें भी बड़ी होंगी।
बहरहाल, बड़ी अर्थव्यवस्थाओं व विशाल आबादी वाले देशों की उपस्थिति के चलते इस संगठन से भविष्य के लिये बड़ी उम्मीदें भी जगती हैं। यदि आपसी मतभेद भुलाकर विश्वास आधारित गंभीर प्रयास हों तो क्षेत्रीय विवादों को खत्म करके विकास की नई राह जरूर तलाशी जा सकती है। हालांकि, क्षेत्रीय विवाद व हितों का टकराव एक बड़ी बाधा है, जिसके चलते दो महत्वपूर्ण पड़ोसियों चीन व पाक के मुखियाओं से हमारे प्रधानमंत्री की द्विपक्षीय मुलाकात समरकंद में नहीं हो पायी है। सही भी है, घात व बात की कूटनीति साथ-साथ तो नहीं ही चल सकती। भारत को अपने हितों को प्राथमिकता तो देनी ही होगी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तमाम असहमतियों के बावजूद शिखर सम्मेलन से ठीक पहले भारत व चीन की सेनाएं पूर्वी लद्दाख सीमा पर कई विवादित स्थानों से पीछे हटी हैं। इस बाबत बातचीत हुई, समझौता हुआ और उसे अमल में लाया गया। जो विश्वास जगाता है कि भविष्य में विवाद के अन्य मुद्दों को भी बातचीत के जरिये सुलझाने के प्रयास किये जा सकते हैं। कम से कम रिश्तों पर जमी बर्फ को पिघलाने के प्रयास तो शुरू हुए हैं। भारत का संगठन की अध्यक्षता एक वर्ष के लिए हासिल करना व अगले शिखर सम्मेलन का दिल्ली में होना देश के बढ़ते कद को दर्शाता है। उम्मीद है कि भारत के रचनात्मक प्रयास रंग लाएंगे। वहीं दूसरी ओर पश्चिमी देश आज विश्व की आपूर्ति शृंखला में चीन पर निर्भरता कम करने का प्रयास कर रहे हैं जिसे भारत के लिये नये अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए। हमें भी इस अवसर को क्षेत्रीय व वैश्विक विकास की संभावनाओं को हकीकत में बदलने के मौके के रूप में देखना चाहिए। साथ ही अपनी संप्रभुता व आर्थिक हितों को भी प्राथमिकता देनी होगी। खासकर कोविड संकट के बाद उपजी विषम परिस्थितियों व रूस तथा यूक्रेन युद्ध के नकारात्मक प्रभावों के मद्देनजर यह और जरूरी हो जाता है। ऐसे में विश्वास किया जाना चाहिए कि शंघाई सहयोग संगठन की सक्रियता से रिश्तों की नई इबारत लिखने का मौका हासिल किया जा सकता है।