भारत और इंडोनेशिया द्वारा अंतर-धार्मिक शांति एवं सामाजिक सौहार्द की संस्कृति को आगे बढ़ाने की पहल एक स्वागत योग्य कदम है। जरूरत इस बात की है कि सभी धर्मों के पथ-प्रदर्शक प्रगतिशील सोच के साथ लोकतंत्र और राष्ट्रीय सरोकारों को तरजीह दें। निस्संदेह, समाज को अतिवाद से मुक्त करने में इस्लामिक विद्वानों और उलेमाओं की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और इंडोनेशिया के राजनीतिक, कानूनी एवं सुरक्षा मामलों के समन्वय मंत्री मोहम्मद महफूद की उपस्थिति में इस्लामिक विद्वानों और उलेमाओं के सम्मेलन में इस बात को स्वीकारा गया कि लोकतंत्र में नफरत के लिये कोई जगह नहीं है। दोनों ही देशों ने स्वीकार किया कि अभी दुनिया में आईएस समेत कई दिग्भ्रमित संगठनों से प्रेरित आतंकवाद का खतरा टला नहीं है। इस सम्मेलन में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि प्रगतिशील विचारों से कट्टरपंथ और चरमपंथ का मुकाबला करने में उलेमा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उलेमा समाज से गहरे तक जुड़े होते हैं, जो लोकतंत्र में पूर्वाग्रह व नफरत की सोच के खिलाफ प्रगतिशील दृष्टिकोण विकसित कर सकते हैं। दरअसल, ‘भारत और इंडोनेशिया में अंतर-धार्मिक शांति एवं सामाजिक सौहार्द की संस्कृति को आगे बढ़ाने में उलेमाओं की भूमिका’ विषय पर आयोजित इस सम्मेलन का निष्कर्ष यह भी था कि भ्रांतियों व अलगाव की सोच को दूर करने के लिए मिलकर काम करने की जरूरत है। जिससे कट्टरता की सोच पर प्रहार किया जा सके। यह जानते हुए कि भारत तथा इंडोनेशिया विगत में आतंकवाद से गहरे तक पीड़ित रहे हैं, यदि इस दिशा में दोनों देश गंभीर व सार्थक पहल करते हैं तो वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ एक मजबूत लड़ाई लड़ी जा सकती है। विगत के अनुभव बताते हैं कि धार्मिक कट्टरता के जरिये युवाओं को बरगलाकर आतंकवाद को सींचा जाता रहा है। इससे न केवल उन युवाओं का भविष्य खराब होता है बल्कि उनका इस्तेमाल निर्दोष लोगों को निशाना बनाने के लिये किया जाता है।
निस्संदेह, दुनिया के हर धर्म का लक्ष्य किसी भी समाज में शांति, सौहार्द और सहिष्णुता को संबल देना ही होता है। ऐसे में यदि उसका उपयोग निहित स्वार्थों के लिये होता है, तो किसी भी धर्म के प्रगतिशील व प्रभावी लोगों को इस दिशा में पहल करके समाज में सौहार्द को अक्षुण्ण रखना चाहिए। निस्संदेह लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा व देश में शांति स्थापना में धार्मिक गुरुओं की निर्णायक भूमिका हो सकती है। वे दिग्भ्रमित व कट्टर सोच वाले तत्वों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का काम कर सकते हैं। दुनिया के सबसे बड़े इस्लामिक देश इंडोनेशिया और दूसरी बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देश भारत की तरफ से होने वाली इस रचनात्मक पहल के दूरगामी व सार्थक परिणाम सामने आ सकते हैं। बशर्ते सत्ताधीश इस दिशा में ईमानदार पहल करें। साथ ही यह विचार केवल सेमिनारों व संगोष्ठियों तक ही सीमित न रह जाये। इसे व्यावहारिक अमलीजामा पहनाने के लिये बड़े पैमाने पर कार्य किया जाये। सामाजिक संस्थाएं और समाज के बुद्धिजीवी इस दिशा में रचनात्मक भूमिका निभा सकते हैं। भारत जैसा देश जो सीमा पार से लगातार आतंकवाद की चुनौती का सामना करता रहा है, उसका प्रतिकार करने में देश के नागरिक प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं। उन्हें राष्ट्र को अपनी प्राथमिकता बनाना होगा और सीमापार से रची जा रही साजिशों को नाकाम करना होगा। देश में अमन-चैन हमारी रोजी-रोटी और देश की अर्थव्यवस्था की स्वाभाविक प्रगति के लिये अनिवार्य शर्त है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आतंक की पाठशाला बने देशों से आने वाले चरमपंथियों का खतरा अभी टला नहीं है। इनको सामाजिक संस्थाओं के सहयोग से अलग-थलग किया जाना चाहिए। निस्संदेह इसमें इस्लामिक विद्वान और उलेमा महत्वपूर्ण रोल अदा कर सकते हैं। उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि दिग्भ्रमित युवाओं को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़कर उनकी ऊर्जा का उपयोग रचनात्मक कार्यों में किया जा सकता है। विडंबना यही है कि युवा ही अक्सर चरमपंथियों के बिछाये जाल में फंस जाते हैं।