अलगाव की बुनियाद बने अनुच्छेद-370 और 35ए की समाप्ति के एक साल बाद जम्मू-कश्मीर कुछ कदम तो आगे जरूर बढ़ा है, मगर अभी लंबा सफर तय करना बाकी है। देश के कायदे-कानून लागू होने के उपरांत जम्मू-कश्मीर के लोगों को भी देश के शेष नागरिकों की तरह हासिल सुविधाएं मिलने लगी हैं, मगर अभी दिलों को जोड़ने के लिये बहुत कुछ करना शेष है ताकि कश्मीर के लोग राष्ट्रीय मुख्यधारा से जुड़ सकें। कहना मुश्किल है कि कश्मीर में आतंकवाद पूरी तरह समाप्त हो गया है, लेकिन उसकी निरंकुशता पर लगाम लगी है और बड़ी संख्या में आतंकवादी मारे भी गये हैं। सुरक्षाबलों की सतर्कता के चलते घाटी में घुसपैठ की तमाम कोशिशें विफल हुई हैं। वैश्विक स्तर पर बार-बार मुंह की खाने के बाद भी पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। यहां तक कि मुस्लिम देशों के संगठन के जरिये वह भारत पर दबाव बनाने की कोशिश करता रहा। कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाये जाने को एक साल पूरा होने पर पाक ने विरोध की व्यापक रणनीति बनायी है, जिसमें उसने बांग्लादेश को भी शामिल करने की असफल कोशिश की है। पिछले दिनों अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी को पाक का सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-पाकिस्तान से नवाजने को उसकी हताशा ही कहा जा सकता है। यहां तक कि जब पाक समेत पूरी दुनिया कोविड-19 की महामारी से जूझ रही है, पाक भारत में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने से बाज नहीं आ रहा है। आज जरूरत इस बात की है कि उन कारणों की तलाश की जाये जो अलगाववाद की संस्कृति को प्रश्रय देते हैं। साथ ही युवाओं को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के लिये रोजगार के नये अवसर सृजित करने की जरूरत है। उन्हें बताने की जरूरत है कि वे कैसे देश की मुख्यधारा से जुड़कर तमाम अवसरों का लाभ उठा सकते हैं। खासकर कोविड-19 के बाद उत्पन्न हालात के चलते कश्मीर में विशेष रोजगार मुहिम चलाने की जरूरत है। पर्यटन उद्योग को विशेष संरक्षण देने की आवश्यकता है।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल जम्मू-कश्मीर के लोगों की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी का है। हालांकि, महबूबा मुफ्ती को छोड़कर लगभग सभी नजरबंद राजनेताओं की रिहाई हो चुकी है, लेकिन अभी भी लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं परवान नहीं चढ़ी हैं। यद्यपि पिछले दिनों उपराज्यपाल जीसी मुर्मू ने कहा था कि विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन के बाद वहां चुनाव कराये जा सकते हैं। समय की मांग है कि राज्य में नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली की जाये। हालांकि, रिहाई के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला कह चुके हैं कि जम्मू-कश्मीर का दर्जा बहाल न होने तक वे चुनाव नहीं लड़ेंगे, मगर राजनीतिक प्रक्रिया से उनकी पार्टी के अलग रहने की बात उन्होंने नहीं की। दरअसल, राज्य में दिसंबर, 2018 में राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद नेताओं की सक्रिय राजनीति पार्श्व में चली गई। हालांकि, पंचायत स्तर की राजनीति गतिविधियों को गति मिली है। यह जरूरी है ताकि कश्मीर में राजनीतिक नेताओं की नई पीढ़ी तैयार हो सके। कश्मीर में कुछ नये राजनीतिक दल भी सक्रिय हुए हैं, जिसमें पीडीपी से जुड़े रहे कुछ नेता भी शामिल हैं। वक्त की मांग है कि राज्य से जुड़े फैसलों में नागरिकों की भागीदारी हो। कोशिश हो कि लोग भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा बनें और अलगाववादियों के बहकावे में न आएं। अभिव्यक्ति की आजादी को विस्तार मिले। निस्संदेह जम्मू-कश्मीर अनुच्छेद-370 हटने के बाद सही दिशा की ओर अग्रसर है, मगर अभी भी इसके लिये बहुत कुछ करना बाकी है। घाटी में यदि राजनीतिक रूप से निर्वात नजर आयेगा तो अलगाववादियों को दखल बढ़ाने का मौका मिलेगा। राज्य में लोकतांत्रिक प्रक्रिया और विकास को बेहद संवेदनशील ढंग से आगे बढ़ाने की जरूरत है। सेना और नौकरशाहों के बूते ये लक्ष्य हासिल नहीं किये जा सकते। लोगों को यह अहसास कराना जरूरी है कि वे मुख्यधारा का हिस्सा बनकर तमाम तरह से विकास के लाभ उठा सकते हैं।