सत्ताधीशों के मूकदर्शक बने रहने से विचलित देश की शीर्ष अदालत ने टीवी न्यूज चैनलों की नफरत फैलाने वाली बहसों पर अंकुश लगाने को शीघ्र कदम उठाने को कहा है। इन डिबेटों को हेट स्पीच फैलाने का जरिया मानते हुए जस्टिस केएम जोसफ और जस्टिस ऋषिकेश राय की बेंच ने टीवी चैनलों की बहसों के नियमन के लिये दिशा-निर्देश तैयार करने की जरूरत बतायी। साथ ही नाराजगी जतायी कि केंद्र सरकार मूकदर्शक बनकर सब कुछ देख रही है। वह इस मामले की गंभीरता को कमतर आंक रही है। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस बाबत नियामक दिशा-निर्देश तैयार करने की मंशा जताते हुए केंद्र सरकार से पूछा कि क्या वह इस बाबत कोई कानून लाने की इच्छाशक्ति दिखाएगी? खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि टीवी न्यूज चैनलों की सोच है कि भड़काने वाली बहसों से टीआरपी बढ़ती है। जो कालांतर मुनाफे का जरिया बनती हैं। इसके मद्देनजर कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब तक सरकार कानून बनाती है तब तक कोर्ट इस बाबत गाइड लाइन जारी करना चाहता है। उल्लेखनीय है कि शीर्ष अदालत देश में वैमनस्य फैलाने वाली टीवी बहसों को लेकर गाहे-बगाहे सख्त टिप्पणी करती रही है। उसने वर्ष 2020 में भी एक चैनल द्वारा सांप्रदायिक नजरिये से प्रसारित किये जा रहे कार्यक्रम के मामले में हस्तक्षेप किया था। तब भी अदालत ने रोष जताया था कि इस चैनल के खिलाफ सरकार द्वारा कोई कार्रवाई न किये जाने के कारण ही कोर्ट को इसमें दखल देना पड़ा था। तब न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा था कि अब वह वक्त आ गया है जब हमें स्व-नियमन की तरफ बढ़ना चाहिए। लेकिन विडंबना यह है कि हाईकोर्ट द्वारा उक्त चैनल के विवादित कार्यक्रम पर रोक लगाने के बाद केंद्रीय प्रसारण मंत्रालय ने चैनल को कार्यक्रम प्रसारण की अनुमति दे दी थी। मंत्रालय की दलील थी कि कार्यक्रम में दखल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में अनधिकृत हस्तक्षेप होगा। मंत्रालय का यह बयान इस मुद्दे से जुड़े कई सवालों को जन्म देता है।
विगत में शीर्ष अदालत में सरकार के प्रतिनिधि ने कहा था कि केंद्र सरकार इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के नियमन के लिये विस्तृत रूप से कार्य कर रही है। दरअसल, नियमन के निर्णायक कानून के अभाव में सरकार न्यूज चैनलों की प्रसारण सामग्री को केबल टेलीविजन नेटवर्क के नियमों के तहत नियंत्रण करती है। इसमें इस बात का प्रावधान है कि केबल सेवा किसी भी ऐसे कार्यक्रम का प्रसारण नहीं कर सकती जो संप्रदाय व धर्म विशेष के विरुद्ध हो। साथ ही समाज में अलगाव फैलाने वाले कार्यक्रमों का प्रसारण न हो। आधे-अधूरे तथ्यों के आधार पर बने कार्यक्रमों के प्रसारण की अनुमति नहीं होगी। साथ ही सरकार निर्धारित करती है किस चैनल को प्रसारण की अनुमति है तथा प्रसारण सामग्री किस तरह की होगी। लेकिन यहां सवाल है कि क्यों इस गंभीर चुनौती के बीच इन चैनलों के नियामक संगठन खामोश हैं? न्यूज ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन यानी एनबीए चैनलों की विश्वसनीयता व नैतिकता के मुद्दों पर कुछ क्यों नहीं करती है? क्या संगठन के सदस्य चैनल संस्था द्वारा आत्मनियमन के लिये बने नियमों का पालन करते हैं? सवाल न्यूज ब्राॅडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी की भूमिका को लेकर भी उठे रहते हैं। क्या चैनल इसके सुझावों को गंभीरता से लेते हैं? वहीं दूसरी ओर सरकार की निष्क्रियता को लेकर भी शीर्ष अदालत चिंता जता रही है। आखिर सरकार इस मुद्दे पर ठोस व निर्णायक कदम क्यों नहीं उठाती? कोर्ट ने उससे बदलावकारी भूमिका की उम्मीद की है। साथ ही कोर्ट ने टीवी एंकरों से अपेक्षा की है कि वे बहसों में शामिल लोगों के बयानों को संयमित-मर्यादित बनायें। शीर्ष अदालत ने यहां तक कह दिया कि जब तक सरकार इस बाबत कानून नहीं बनाती है तब तक कोर्ट टीवी न्यूज चैनलों पर होने वाली डिबेटों के लिये दिशानिर्देश तैयार करने के बाबत विचार कर सकती है। निस्संदेह, शीर्ष अदालत की सख्त टिप्पणियों के मद्देनजर खुद को चौथा स्तंभ बताने वाले मीडिया संस्थानों को जिम्मेदार व्यवहार करना होगा। साथ ही अपनी विश्वसनीयता को कायम रखने के लिये आत्मनियंत्रण की राह चुननी होगी।