
बदलते ऋतु चक्र में ढलने का मार्ग
यह भारतीय मनीषियों की दूरदृष्टि व जीवन के प्रति संवेदनशील नजरिये का ही प्रमाण है कि हमारे तीज-त्योहार ऋतु चक्र से जुड़े रहे हैं। ऐसे वक्त में जब प्रकृति अपने उदात्त रूप में जीवन में नये उत्साह का संचार करती है। इसी कड़ी में साल में दो बार आने वाले नवरात्र पर्व भी मौसम के संधिकाल में आते हैं। पहले, मार्च में जब मौसम ठंड से गर्मी की ओर प्रस्थान कर रहा होता है और दूसरे अक्तूबर के आसपास जब गर्मी के बाद सर्दी की दस्तक हो रही होती है। मौसम के इस संधिकाल में तमाम तरह के परिवर्तन न केवल मानव शरीर में बल्कि अन्य जीव-जंतुओं व सूक्ष्मजीवियों में भी होते हैं। ऐसे में खान-पान के संयम से शरीर में इतनी अतिरिक्त ऊर्जा का संचार किया जाता है ताकि शरीर ऋतु परिवर्तन चक्र के अनुरूप ढल सके। दरअसल, नवरात्र में आठ दिनों का उपवास इसी प्रक्रिया का हिस्सा है। जिसके जरिये हम संयम का पालन करते हुए आत्मबल में वृद्धि कर सकें। दरअसल, ऋषि-मुनियों की स्पष्ट धारणा थी कि हमारा शरीर ब्रह्मांड की तरह से पांच तत्वों से बना है। जिस तरह पृथ्वी, आकाश, वायु, जल और अग्नि प्रकृति में विद्यमान हैं, उसी तरह हमारे शरीर में भी। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इन पांच तत्वों का शरीर में संतुलन होना ही हमारे स्वास्थ्य की गारंटी भी है। इसी क्रम में आयुर्वेद व योग में ऋषि परंपरा के इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि मनुष्य के शरीर में भी आकाश तत्व का स्थान होना चाहिए। जिसका अभिप्राय है कि हम खाना ठूंस-ठूंस कर न खाएं, व्रत करें। योग में मान्यता रही है कि हम आधा पेट ही भोजन करने से स्वस्थ रहते हैं। पेट में एक चौथाई भाग पानी और एक चौथाई भाग वायु यानी आकाश तत्व के लिये होना चाहिए। जिससे शरीर में जठराग्नि खाने को सहजता से पचा सके। यह निर्विवाद सत्य है कि हम बीमार अधिक खाने तथा कम श्रम करने से होते हैं। एक उम्र के बाद शरीर में अधिक भोजन की आवश्यकता नहीं होती।
कह सकते हैं कि हमारे पूर्वजों ने शरीर को स्वस्थ्य रखने तथा आध्यात्मिक उत्थान हेतु नवरात्र जैसे व्रत का विधान किया। इस दौरान देवी पूजा नारी सशक्तीकरण का पर्याय है तो कन्या पूजन बेटियों को सामाजिक सुरक्षा देने का संकल्प है। पूरे जाड़ों में लोग ठंड से बचने के लिये गरिष्ठ व ज्यादा पौष्टिक खाना खाते हैं। यह महाव्रत हमारे पाचन तंत्र को विश्राम देने के लिये होता है ताकि गर्मियों में हम हल्का व सुपाच्य भोजन का सेवन आसानी से कर सकें। सात-आठ दिन के व्रत हमें मौसम के चक्र में बदलाव से शरीर की जरूरतों के अनुरूप तैयार करते हैं। विडंबना यह है कि हमने व्रत के दौरान सामान्य भोजन के ऐसे विकल्प तलाश लिये हैं जो न केवल गरिष्ठ हैं बल्कि उपवास के दौरान शिथिल पड़े आंतरिक कोमल अंगों के भी अनुकूल नहीं होते। दरअसल, व्रत का पूरा एक सुव्यवस्थित विज्ञान है। आज देश में फैशन है कि भारतीय परंपराओं को रूढ़िवादिता का जामा पहना दिया जाता है। लेकिन वही बात यदि पश्चिमी देशों से शोध के जरिये सामने आ जाती है तो उसका अंगीकार करने में हम गुरेज नहीं करते हैं। पिछले एक दशक में अमेरिका व यूरोपीय देशों के कई ऐसे विज्ञानियों को नोबेल पुरस्कार मिले हैं जिनका शोध हजारों वर्ष पूर्व भारत के योगियों के योग सिद्धांतों पर आधारित है। दरअसल, आज देश में मधुमेह, हृदय रोग तथा उच्च रक्तचाप जैसे मनोकायिक रोग हमारे खानपान की शैली में आई विकृति की देन हैं। हमारे खाने की गुणवत्ता और उसकी मात्रा का हमारी सेहत से सीधा संबंध है। विडंबना यह है कि हम पांच फीट के शरीर की जरूरतों के बजाय पांच इंच की जीभ के स्वाद को प्राथमिकता देते हैं। जो हमारे खराब स्वास्थ्य का कारण भी है। ऐसा नहीं है कि केवल हिंदू धर्म में व्रत के महात्म्य को स्वीकारा गया है, बल्कि जैन, बौद्ध व इस्लाम धर्म में भी व्रत को महत्व दिया गया। जिसका सीधा संबंध हमारे स्वास्थ्य से है। लेकिन व्रत एक संयम व शुचिता की मांग भी करता है।
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