इसमें दो राय नहीं कि एक सदी बाद आई महामारी ने दुनिया में भारी तबाही मचायी है। हाल ही में जारी विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट इन आशंकाओं की तस्वीर ही उकेरती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना महामारी के दो साल के दौरान पूरी दुनिया में करीब डेढ़ करोड़ मौतें हुई हैं, जिसमें से 68 फीसदी मामले अमेरिका, यूरोप व दक्षिण एशिया के दस देशों में हैं। साथ ही डब्ल्यूएचओ ने यह भी स्पष्ट किया है कि इन आंकड़ों में शामिल मौतें या तो संक्रमण से हुई हैं या फिर महामारी के चलते अस्पतालों पर पड़े भारी दबाव से घातक रोगों से पीड़ित लोगों को समय पर इलाज न मिलने से। जाहिर इन आंकड़ों का एक निष्कर्ष यह भी है कि महामारियों से निपटने का हमारा चिकित्सा तंत्र किस हाल में है। साथ ही भविष्य में ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिये हमें कैसे कदम उठाने चाहिए। वहीं विवाद इस रिपोर्ट में उल्लेखित इस बात को लेकर भी सामने आया है कि भारत में महामारी के दौरान होने वाली मौतों का आंकड़ा सरकार द्वारा पेश आंकड़ों से दस गुना अधिक है; जिसे भारत सरकार ने खारिज किया है। सरकार ने निराशा व्यक्त की है कि वैश्विक स्वास्थ्य एजेंसी ने एक ही पैमाने से सभी देशों की स्थिति का मूल्यांकन किया है। साथ ही रिपोर्ट जुटाने के लिये प्रयुक्त प्रणाली से भारत सहमत नहीं है। हालांकि, भारत में कोरोना संक्रमण से होने वाली मौतों को लेकर देश तथा दुनिया में पहले भी सवाल उठाए जाते रहे हैं। विपक्षी दलों द्वारा उठाये जाने वाले सवालों पर तो कहा जा सकता है कि ऐसा राजनीतिक दुराग्रह से किया जा रहा हो। लेकिन कई विदेशी शोध पत्रिकाओं व संगठनों ने भी भारत में कोरोना महामारी से होने वाली मौतों की संख्या सरकार द्वारा पेश आंकड़ों से इतर कई गुना ज्यादा बतायी है। जबकि केंद्र सरकार ऐसे आरोपों को शुरू से ही खारिज करती रही है।
वहीं सरकार की ओर से बीते वर्षों में जन्म व मृत्यु पंजीकरण के आधार पर आंकड़े पेश करके इन दो सालों में अन्य रोगों से होने वाली मौतों में वृद्धि के आधार पर कोरोना महामारी से होने वाली मौतों के सरकारी आंकड़ों को तार्किक बताने का प्रयास किया है। सरकार इसे भारत को बदनाम करने की कोशिश बताती है। वहीं कुछ जानकार मानते हैं कि रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत के कूटनीतिक निर्णय के चलते पश्चिमी देशों से ऐसे आंकड़ों के हमले होने के कयास पहले से ही लगाये जा रहे थे। सर्वविदित है कि देश ने कोरोना की दूसरी लहर में भयावह मंजर देखा था। चिकित्सा तंत्र की बदहाली उजागर हुई थी, जब लोग अस्पतालों में बिस्तरों के लिये मारे-मारे फिर रहे थे। समुचित इलाज न मिलने, जीवन रक्षक दवाओं का अभाव तथा एंबुलेंस तक न मिलने के तमाम मामले सामने आये थे। देश ने विकट आक्सीजन संकट देखा और विदेशों से भी आक्सीजन की आपूर्ति हुई। दूसरी लहर के दौरान श्मशान घाटों व कब्रिस्तानों में जगह न मिलने, खुले स्थानों पर शव जलाने, शवों को नदियों में बहाने तथा गंगा के किनारे रेत में दफनाये जाने के विचलित करने वाले दृश्य सामने आये थे। हो सकता है इन हालात में भारत में कोरोना संक्रमण से होने वाली मौतों को लेकर अतिरंजित अनुमान लगाये गये हों। संभव है लोगों में भी यह आम धारणा बनी हो कि तंत्र अपनी विफलता छिपाने के लिये वास्तविक आंकड़े सामने नहीं ला रहा है। सवाल तब भी उठे थे जब सत्ताधीशों ने कहा था कि आक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई, जबकि पूरे देश ने ऑक्सीजन संकट का त्रास झेला था। तमाम विसंगतियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट की भी तल्ख टिप्पणियां सामने आती रही हैं। खासकर मुआवजे को लेकर कोर्ट ने समय-समय पर निर्देश भी दिये हैं। दरअसल, मौत के आंकड़ों में विसंगतियों की एक वजह यह भी रही है कि कई अस्पतालों ने मरीज की मौत की वजह कोरोना नहीं लिखा। कई राज्यों ने अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने के लिये मौतों को लेकर स्पष्ट जानकारी नहीं दी। ऐसे में मौतों के वास्तविक आंकड़ों को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक ही हैं।