उम्मीद की जा रही थी कि पिछले सत्र में जिन कृषि कानूनों को लेकर भारी हंगामा हुआ था, उन्हें वापस लिये जाने के बाद शीतकालीन सत्र में सदन सुचारु रूप से चलेगा; लेकिन इसके उलट टकराव के नये मुद्दे सामने आ गये हैं। यूं तो संसद के सत्रों में व्यवधान, वाकआउट व हंगामा आम हो चला है और शीतकालीन सत्र भी उसका अपवाद नहीं है। लेकिन पिछले मानसून सत्र में हंगामे के लिये जिम्मेदार बताये जा रहे बारह विपक्षी राज्यसभा सदस्यों के निलंबन ने विवाद को और बढ़ा दिया है। सत्र से पहले सर्वदलीय बैठक के बाद उम्मीद की जा रही थी कि सदन सुचारु रूप से चलेगा, लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आता। कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल निलंबन रद्द करने की मांग कर रहे हैं, लेकिन राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू निलंबन वापस लेने से मना कर रहे हैं। उनका कथन है कि अगस्त में मानसून सत्र के दौरान अमर्यादित आचरण करने वाले सांसद अपने व्यवहार के लिये कोई पछतावा नहीं दिखा रहे हैं। वहीं विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे का कहना है कि घटना के कई महीनों के बाद सदस्यों का निलंबन नियमों का उल्लंघन है। निस्संदेह सत्तापक्ष और विपक्ष जब अपनी-अपनी बातों पर अड़ जाते हैं तो सदन का कामकाज प्रभावित होता है। संवाद व वाद-विवाद संसदीय लोकतंत्र की आधारशिला है। लेकिन सत्तापक्ष और विपक्ष को सदन चलाने के लिये रचनात्मक सहयोग देना चाहिए। एक बात तो तय है कि राजनीतिक दल व संसद सदस्य यदि जनादेश का सम्मान नहीं करते तो वे सही मायनों में संसद की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाते हैं। सर्वविदित है कि संसद का एक सत्र चलाने में करदाताओं का भारी-भरकम पैसा खर्च होता है। एक पुराने अनुमान के अनुसार प्रति मिनट ढाई लाख से अधिक रुपया खर्च होता है। ऐसे में हर बैठक मायने रखती है और विचारों के सहज आदान-प्रदान को सुगम बनाना प्रत्येक सदस्य की जवाबदेही है।
निस्संदेह संसद के प्रशासनिक फैसलों में लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति की बड़ी भूमिका होती है, लेकिन केंद्र सरकार की रीति-नीति का भी असर होता है। ऐसे में वरिष्ठ पदाधिकारियों को उदारता दिखानी चाहिए ताकि सबको साथ लेकर चला जा सके। फिर पिछले सत्र के हंगामे पर हुई कार्रवाई को नये सत्र के बाधित होने का कारक नहीं बनने देना चाहिए था, अन्यथा एक और सत्र सिर्फ हंगामे की भेंट चढ़कर रह जायेगा। बेहतर तालमेल से पक्ष-विपक्ष देश के सामने अपनी बात स्पष्टता से कह सकते हैं और नये कानून बनाने का मार्ग भी प्रशस्त हो सकता है। जब विधेयकों पर स्वस्थ बहस का वातावरण बनेगा तो फिर तुरत-फुरत विधेयकों को कानून बनाने की जरूरत न होगी। वहीं सत्तापक्ष की दलील है कि यदि असंसदीय व्यवहार के लिये दंडित नहीं किया जायेगा तो यह सिलसिला लगातार चलता ही रहेगा। पिछले सत्र में जो अप्रिय घटनाक्रम देश ने देखा, वह अनुचित ही था। वहीं विपक्षी सांसदों द्वारा माफी से इनकार करने से विवाद का शीघ्र पटाक्षेप नजर नहीं आता। संसद का बहुमूल्य समय विवाद की भेंट चढ़ रहा है। पक्ष-विपक्ष को इस बात का अहसास नहीं है कि संसद को सुचारु रूप से चलाना दोनों की साझी जिम्मेदारी है, आरोप-प्रत्यारोप से वे इससे बच नहीं सकते। किसी भी सदस्य के अमर्यादित व्यवहार पर सदन की मर्यादा के लिये दोनों पक्षों को जिम्मेदार व्यवहार दिखाना चाहिए। साथ ही कोई कार्रवाई करते वक्त विपक्षी नेतृत्व को भी भरोसे में लेना चाहिए। दोनों पक्षों को मिल-जुलकर विवाद का यथाशीघ्र पटाक्षेप करना चाहिए। जनता में सवाल पैदा हो रहा है कि जो संसद देश के सुचारु संचालन के लिये कानून बनाने की जगह है, वह हंगामे का केंद्र क्यों बन रहा है? सदस्यों के कामकाज व व्यवहार में लोकतांत्रिक मूल्यों का अक्स साफ नजर आना चाहिए। विरोध-प्रतिरोध के बीच असहमति की स्पष्ट गुंजाइश नजर आनी चाहिए। ध्यान रहे कि स्वस्थ बहस व संवाद ही लोकतंत्र की असली ताकत है, जो सदन की गरिमा के भी अनुकूल हो। सवाल यह भी है कि जनप्रतिनिधियों के ऐसे व्यवहार से नयी पीढ़ी क्या सबक लेगी?