न्यायिक प्रणाली पर मंथन जरूरी
दशकों बाद फैसला आना व न्याय का मिल पाना भारतीय न्यायिक व्यवस्था में संस्थागत रूप लेता नजर आता है। बीते सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1955 में तमिलनाडु के कोयम्बटूर में दर्ज एक केस में फैसला सुनाया। विभिन्न अदालतों में यह मुकदमा करीब 65 साल चला। इसी कड़ी में मथुरा की एक अदालत में भरतपुर के राजा मानसिंह की फर्जी मुठभेड़ मामले में साढ़े तीन दशक बाद फैसला आया, जिसमें 11 पूर्व पुलिसकर्मियों को दोषी माना गया। राजनीतिक वर्चस्व की जंग के क्रम में तत्कालीन मुख्यमंत्री से हुए सीधे टकराव के बाद डीग में राजा मानसिंह और उनके दो सहयोगियों को 1985 में पुलिस ने सरेआम गोली मार दी थी। इस मामले में इन पुलिसकर्मियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इस बहुचर्चित मामले में पहले सुनवाई राजस्थान में हुई थी, मगर राजनीतिक दखल की आशंका के चलते बाद में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर मामला उत्तर प्रदेश में मथुरा की एक अदालत को स्थानांतरित कर दिया गया था। इस मामले में करीब 1,700 से अधिक सुनवाई हुई और फैसला आने में पैंतीस साल लगे। कुल आरोपी 18 थे, जिसमें कुछ मर गये और कुछ बरी कर दिये गये। इस घटनाक्रम में सड़कों पर हिंसक प्रदर्शनों के बाद हाईकमान के आदेश के बाद राजस्थान के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर को इस्तीफा देना पड़ा था। यह चिंता की ही बात है कि देश की शीर्ष अदालतों में ही साठ हजार से अधिक मामले लंबित हैं जबकि उच्च न्यायालयों में लंबित वादों की संख्या 44 लाख है। निस्संदेह जब ऐसे हाइप्रोफाइल मामलों में फैसला आने में ही दशकों लग जाते हैं तो आम आदमी से जुड़े मामलों के हश्र का अनुमान लगाया जा सकता है। इससे न्यायिक प्रणाली की प्रभावकारिता को लेकर जनता का विश्वास डिगना स्वाभाविक ही है। यह विडंबना ही कही जायेगी कि न्यायिक प्रक्रिया की जटिलता व अन्य बाधाओं के चलते मिलने वाले न्याय की प्रभावकारिता का क्षरण होने लगता है।
मौजूदा स्थिति न्यायिक व्यवस्था में व्यापक सुधारों की ओर इशारा करती है, जिसमें नई अदालतों का निर्माण, सृजित पदों में जजों की नियुक्ति और नये पद सृजित किये जाने की सख्त जरूरत है। जनता का भरोसा न्यायिक व्यवस्था में बना रहे, इसके लिये जरूरी है कि फास्ट-ट्रैक अदालतों का विस्तार किया जाये। उन मुकदमों को तरजीह नहीं दी जानी चाहिए जो अदालतों का बहुमूल्य समय खराब करते हैं। सरकारी मुकदमेबाजी को भी हतोत्साहित करने की जरूरत है। चुनाव संबंधी शिकायतों को निपटाने की भी अलग व्यवस्था की जानी चाहिए। अपील व स्थगन संबंधी वादों को भी नियंत्रित करने की जरूरत है। उत्तर प्रदेश के बहुचर्चित अपराधी विकास दुबे पर दर्जनों मामले होने के बावजूद उसे जमानत मिलती रही, जिसके संबंध में सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि यह संस्थागत विफलता है। निस्संदेह लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून का शासन एकमात्र विकल्प है लेकिन कानून को भी शीघ्र न्याय की व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। डीग में राजा मानसिंह मामले को पुलिस मुठभेड़ बताती रही जबकि यह सार्वजनिक स्थल पर हुआ घटनाक्रम था। दोषी पुलिसकर्मियों को इस बात का अहसास होना चाहिए था कि जब कोई मामला कानून की अदालत में आता है तो देर से ही सही उसमें न्याय जरूर होता है। हालांकि, दोषियों के वकील अभी भी मामले को उच्च अदालतों में ले जाने की बात कर रहे हैं। ऐसे में सहज कल्पना की जा सकती है कि न्याय की राह कितनी मुश्किल हो सकती है। वह भी एक ऐसे मामले में, जिसमें सात बार निर्दलीय विधायक रहे राजपरिवार के एक व्यक्ति को सरेआम निशाना बनाया गया था, जिसके गवाह भी अपने बयानों से कभी पीछे नहीं हटे। इस पर भी मामले में 26 जज बदले और 27वें जज ने फैसला सुनाया। देर से मिला न्याय भी अन्याय जैसा ही होता है। न्यायिक व्यवस्था से जुड़े लोगों को इस दिशा में गंभीरता से मंथन करना होगा कि न्यायिक व्यवस्था में विश्वास कायम करने के लिए न्याय की सहज उपलब्धता कैसे संभव होगी।