ग्रामीण विकास की शर्त : The Dainik Tribune

ग्रामीण विकास की शर्त

कार्य की गुणवत्ता का नियमित ऑडिट आवश्यक

ग्रामीण विकास की शर्त

पिछले दिनों हरियाणा में विकास कार्यों में ई-टेंडरिंग के दायरे तथा अन्य मुद्दों को लेकर सरपंच सरकार से टकराव के मूड में नजर आये। यहां तक कि यह विरोध सड़कों तक में नजर आया। ऐसे वक्त में जब अगले साल आम चुनाव हैं और फिर राज्य विधानसभा के चुनाव होंगे, सरकार छोटी संसदों के नुमाइंदों से टकराव लेने का जोखिम नहीं उठाना चाहेगी। फिर आंदोलनकारी सरपंचों के मान-मनौव्वल की कोशिश भी हुई। मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने कालांतर घोषणा की कि पांच लाख रुपये तक के विकास कार्य ई-टेंडरिंग से मुक्त होंगे। साथ ही सरपंचों व पंचों का मानदेय भी बढ़ाया गया है। दरअसल, ग्रामीण विकास से जुड़ी छोटी इकाइयों के जरिये होने वाले विकास में पारदर्शिता के सरकार के प्रयासों को सरपंचों ने अपने अधिकारों का अतिक्रमण माना। इसमें दो राय नहीं कि विकास कार्यों में पारदर्शिता के लिये इलेक्ट्राॅनिक वित्तीय प्रणाली के उपयोग से सार्थक परिणाम सामने आये हैं। ऐसे में ग्राम पंचायतों में वित्तीय अनुशासन के लिये यदि ई-टेंडरिंग का क्रियान्वयन होता है तो उसे किसी के अधिकारों व ईमानदारी पर सवाल नहीं माना जाना चाहिए। यह वित्तीय पारदर्शिता की आवश्यक शर्त भी है। सरकार कह भी चुकी है कि करीब ग्यारह सौ पूर्व सरपंचों ने अभी तक अपने गांव के विकास रिकॉर्ड नहीं सौंपे हैं। बताते हैं कि इस बाबत हुई जांच में दलील दी गई कि रिकॉर्ड जल गये, गंदे हो गये या बह गये। निस्संदेह, ऐसे तर्क कई सवालों को जन्म देते हैं और इलेक्ट्राॅनिक प्रक्रिया से वित्तीय अनुशासन की जरूरत बताते हैं। निस्संदेह, ग्रामीण विकास से जुड़े वित्तीय व्यवहार का रिकॉर्ड सावधानी पूर्वक रखा जाना चाहिए। इस प्रक्रिया में जहां सरपंचों की जवाबदेही बनती है, वहीं ग्रामीणों के स्तर पर जागरूक व्यवहार किये जाने की उम्मीद की जानी चाहिए। कई बार नागरिकों की तटस्थता और उदासीन व्यवहार से अनियमितताओं को बढ़ावा मिलता है। विकास कार्यों के रिकॉर्ड के बाबत दी गई दलीलें इस बात को और जरूरी बनाने पर बल देती हैं।

निस्संदेह, इस तरह के गैरजिम्मेदार वित्तीय व्यवहार के आलोक में सरपंचों की मांगें कई सवालों को जन्म देती हैं। खासकर विकास निधि के उपयोग के उन तरीकों को लेकर जिनमें सुधार की मांग की जा रही थी। दरअसल, सरपंच दो सुधारात्मक कदमों को वापस लेने की मांग करते रहे हैं। पहली यह कि विकास कार्यों के लिये ई-निविदा प्रक्रिया सीमित स्तर तक ही हो। निस्संदेह, ई-निविदा प्रक्रिया विकास कार्यों में पारदर्शिता व जवाबदेही लाने के मकसद से ही शुरू की गई थी। दूसरा, वे वापस बुलाने के उस अधिकार को खत्म करना चाहते थे, जिसमें सरपंच के कार्य प्रदर्शन से खुश न होने पर उसे वापस बुलाने का प्रावधान है। दरअसल, दिसंबर 2022 में विधानसभा में हरियाणा लोकायुक्त न्यायमूर्ति हरिपाल वर्मा की रिपोर्ट के आलोक में इन सुधारों को लागू करने पर बल दिया गया था। कई मामलों में पंचायतों के वित्तीय व्यवहार से जुड़े अभिलेख गायब पाये गये थे। ये वे अभिलेख थे जो सरंपचों के संरक्षण में होते हैं। दरअसल, पंचायती राज संस्थाओं की वर्ष 2017-18 की ऑडिट रिपोर्ट ग्रामीण स्तर पर चल रही अनियमितताओं का खुलासा करती है। जिसमें अनियमित व्यय तथा बही खातों में त्रुटियों का उल्लेख है। इसमें कई गांवों में विकास कार्यों में हुई धांधलियों का जिक्र है। कुछ मामलों में ग्राम सचिव की भूमिका भी संदिग्ध पायी गई। इन घटनाओं के आलोक में इस बात की जरूरत महसूस की जाती है कि ग्रामीण विकास के मानकों के निर्धारण और उनके क्रियान्वयन में पारदर्शिता की समय-समय पर जांच की जाती रहे। इन कार्यों का समय-समय पर मूल्यांकन होना चाहिए। यदि किसी स्तर पर नियमों का उल्लंघन होता है या आर्थिक मामलों में कदाचार की पुष्टि होती है तो सख्त कार्रवाई अपरिहार्य ही है। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि ग्रामीणों के स्तर पर भी विकास कार्यों के अवलोकन व सजगता की जरूरत महसूस की जा रही है। राजनीतिक कारणों के चलते कई बार ऐसे मामलों पर आंख मूंद ली जाती है। ऐसे में नियमित जनता ऑडिट विकास कार्यों की शुचिता बनाये रखने में सहायक होगा।

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