मंगलवार को भारतीय न्यायिक व्यवस्था में उस समय ऐतिहासिक क्षण देखने को मिला जब बड़ी संख्या में दर्शक तीन संविधान पीठों की महत्वपूर्ण कार्यवाही से रूबरू हुए। इस मौके पर महाराष्ट्र के सेना बनाम सेना मामले की सुनवाई के दौरान पांच न्यायाधीशों की पीठ का नेतृत्व कर रहे न्यायमूर्ति डी.वाई़ चंद्रचूड़ ने रेखांकित भी किया कि हम आप लोगों से वर्चुअली जुड़ रहे हैं। वहीं दूसरी ओर मुख्य न्यायाधीश यू.यू. ललित की अध्यक्षता वाली पीठ ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिये दस फीसदी आरक्षण से संबंधित मामले को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई की। साथ ही न्यायमूर्ति संजय कौल की पीठ ने अखिल भारतीय बार परीक्षा को चुनौती देने वाले मामले में सुनवाई की। इस तरह हजारों लोगों ने संविधान पीठ से जुड़े मामलों की कार्यवाही का सीधा प्रसारण देख न्यायिक प्रक्रिया से जुड़ा ज्ञानवर्धन किया। दरअसल, 26 सितंबर, 2018 में देश की सर्वोच्च अदालत ने संवैधानिक और राष्ट्रीय महत्व के मामलों में कार्यवाही के सीधे प्रसारण को मंजूरी दी थी। अदालत का कहना था कि जैसे सूर्य की रोशनी कीटनाशक का कार्य करती है उसी तरह यह पारदर्शिता दृष्टिकोणों को स्पष्ट करती है। उल्लेखनीय है कि पिछले माह निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की अध्यक्षता वाली बेंच की औपचारिक कार्यवाही का तब सीधा प्रसारण किया गया था, जिस दिन उन्हें पद छोड़ना था। दरअसल, एक सप्ताह पूर्व ही सुप्रीम कोर्ट के तीस न्यायाधीश अदालत के 2018 के फैसले को लागू करने पर सहमत हुए थे। उल्लेखनीय है कि कुछ उच्च न्यायालय पहले से ही अपनी अदालती कार्यवाही की लाइव-स्ट्रीमिंग कर रहे हैं। निश्चित रूप से न्यायिक व्यवस्था में वह दिन भी शीघ्र नजर आयेगा जब विभिन्न अदालतों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये गवाही दर्ज करने की सुविधा हो सकेगी। उल्लेखनीय है कि बीते वर्ष न्यायमूर्ति एनवी रमना ने गुजरात उच्च न्यायालय की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के वक्त कहा था कि एक जज को लोकप्रिय राय से प्रभावित नहीं किया जा सकता। निस्संदेह बढ़ी हुई सार्वजनिक निगाहों के साथ वह बहस का विषय बन सकता है। लेकिन इससे कई लोगों की ताकत के खिलाफ एक के अधिकार की रक्षा करने के अपने कर्तव्य से कभी नहीं रोका जा सकता।
निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही का सीधा प्रसारण न्यायपालिका के इतिहास का महत्वपूर्ण दिन बना है। यह पारदर्शिता के लिहाज से सार्थक पहल कही जायेगी। इसमें दो राय नहीं कि यह पारदर्शिता लोगों के न्यायिक व्यवस्था में विश्वास को बढ़ाने वाली ही होगी। यह ऐसे दौर में भी तार्किक है जब तकनीक हमारी जीवन शैली में आमूल-चूल परिवर्तन ला रही है। इस विश्वास के क्रम में ही जनप्रतिनिधि संस्थाओं में कार्यवाही की रिकॉर्डिंग की आवश्यकता महसूस की गई। सुप्रीम कोर्ट से शुरू हुई यह प्रक्रिया जब निचली अदालतों में दोहरायी जायेगी तो समाज में इसका सकारात्मक संदेश जायेगा। बहुत संभव है कि इस कदम से न्यायिक प्रक्रिया में तेजी आयेगी और अदालतों पर मुकदमों का बोझ कम होगा। वहीं न्यायिक व्यवस्था को सुचारु बनाने के लिए सरकारों को आधुनिक तकनीकी संसाधनों के साथ जजों व न्यायिक कर्मचारियों की संख्या को भी बढ़ाना होगा। वहीं न्यायिक प्रक्रिया के सीधे प्रसारण, रिकॉर्डिंग की प्रक्रिया से अदालतों के कामकाज को गति देने व पारदर्शिता में मदद मिलेगी जिससे भारतीय न्यायपालिका की विश्वसनीयता में इजाफा होगा। इस दौरान न्यायाधीशों की टिप्पणी का आम जनमानस में उदाहरण दिया जायेगा। लेकिन उन संभावनाओं को भी खारिज किया जाना चाहिए जो सोशल मीडिया की अति सक्रियता के चलते पैदा हो सकती हैं। विगत में निहित स्वार्थी तत्वों ने न्यायाधीशों की टिप्पणियों को लेकर सोशल मीडिया पर नकारात्मक मुहिम चलाने का प्रयास किया था जिसको लेकर शीर्ष अदालत ने भी चिंता जतायी थी। ऐसे में न्यायमूर्तियों को अतिरिक्त सावधानी भी बरतनी होगी। वहीं प्रयास जरूरी है कि अभिव्यक्ति की आजादी पर आंच आये बिना नियामक तंत्र द्वारा ऐसी व्यवस्था को अमलीजामा पहनाया जाये, जिससे कोई मर्यादा की सीमाओं का अतिक्रमण न कर सके। यह भी सुनिश्चित हो कि अदालत की कार्यवाही के वीडियो की क्लीपिंग का प्रयोग भ्रामक सूचना फैलाने व सामाजिक विवाद फैलाने के लिये न किया जा सके।