पंजाब समेत कुछ राज्यों के मतदान में आई गिरावट को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिहाज से अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता। चिंता की बात यह भी है कि शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले कम मतदान हुआ। पंजाब व उत्तर प्रदेश के शुरुआती चरणों वाले शहरी मतदान क्षेत्रों में यह प्रवृत्ति नजर आई। खासकर जिन शहरों के बारे में कहा जाता है कि वहां शिक्षित मतदाता अधिक हैं, मतदान के प्रति उदासीनता निराश करने वाली है। आम धारणा रही है कि पढ़े-लिखे मतदाता लोकतंत्र को संवारने-निखारने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। वे विवेकशील ढंग से राजनीतिक विद्रूपताओं के खिलाफ बदलाव के वाहक बन सकते हैं। निश्चित रूप से राजनीति की गुणवत्ता में आई गिरावट और राज्य सरकारों के खराब प्रदर्शन के चलते मतदाता भी उदासीन हुआ है। राजनीतिक दल घोषणा पत्रों में बढ़-चढ़कर दावे करते हैं, लेकिन ये वादे हकीकत नहीं बनते। यही वजह है कि बीते रविवार पंजाब में हुए विधानसभा चुनाव में कुल 71.95 फीसदी ही मतदान हुआ, जो कि वर्ष 2017, 2012 और 2007 में हुए पिछले तीन विधानसभा चुनावों के मुकाबले निराशाजनक ढंग से कम है। यह आस थी कि इस चुनाव में बहुकोणीय मुकाबला मतदाताओं को बड़ी संख्या में मतदान के लिये निकलने हेतु प्रेरित करेगा। लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आया। ऐसे वक्त में जब मतदाताओं के पास जनप्रतिनिधि चुनने के अधिक विकल्प थे, ऊंचे मतदान की उम्मीद थी। इस बार तेरह सौ से अधिक उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे, जिनकी संख्या पिछले विधानसभा चुनाव में कुल ग्यारह सौ के करीब थी। कह सकते हैं कि ये प्रतिनिधि गुणात्मक रूप से मतदाताओं की आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं थे। वजह यह भी हो सकती है कि इन प्रत्याशियों में से एक-चौथाई आपराधिक प्रवृत्ति के थे। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के साल 2020 के आदेश को सख्ती से लागू करने के आदेश के चलते चुनाव आयोग ने आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों के आपराधिक इतिहास का प्रकाशन-प्रसारण अनिवार्य बनाया, जिसके चलते इन उम्मीदवारों पर बीते वर्ष में दर्ज प्राथमिकियों का विवरण सार्वजनिक हुआ।
कहा जा रहा है कि दागी उम्मीदवारों की चुनाव में बड़ी संख्या में सक्रियता ने कुछ मतदाताओं का मोहभंग किया, जिसके चलते कई लोगों ने मताधिकार का प्रयोग करने में उदासीनता दर्शायी। वहीं चुनाव से पहले राजनीतिक दलों व प्रत्याशियों की अवसरवादिता ने भी मतदाताओं को निराश ही किया। राजनीतिक कोलाहल व आरोप-प्रत्यारोपों की राजनीति को अमृतसर पूर्व निर्वाचन क्षेत्र में औसत से कम मतदान होने की वजह माना जा रहा है। यहां चुनाव मैदान में चर्चित राजनेता थे। राज्य कांग्रेस प्रमुख नवजोत सिंह सिद्धू के मुकाबले अकाली दिग्गज बिक्रम सिंह मजीठिया मैदान में थे। आक्रामक चुनाव प्रचार का लाभ भी इन नेताओं को मतदान के रूप में नहीं मिल पाया। कहीं न कहीं मतदाताओं की राज्यव्यापी उदासीनता, अरुचि व मोहभंग जैसी स्थिति के मूल में विभिन्न सरकारों का निराशाजनक प्रदर्शन भी रहा। खासकर राज्य के युवाओं में यह भावना तेजी से बढ़ी है कि बदलाव के थोथे दावों के बावजूद रोजगार संकट व उनके अन्य मुद्दे जस के तस हैं, जिसके चलते पंजाब के तमाम युवाओं को देश व विदेश के विभिन्न भागों में बेहतर रोजगार के लिये पलायन करना पड़ रहा है। कमोबेश सभी राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में किये गये बड़े-बड़े वादों को हकीकत में बदलने में नाकाम रहे हैं। निस्संदेह, यह स्थिति राजनीतिक दलों व जनप्रतिनिधियों को आत्मनिरीक्षण का अवसर देती है कि क्यों मतदान से मोहभंग होने की प्रक्रिया तेज हुई है। यह भी कि उनके प्रति उपजा अविश्वास कैसे दूर किया जा सकता है। वहीं दूसरी ओर, राज्य चुनाव आयोग के चुनाव अधिकारियों को भी आत्ममंथन करना चाहिए कि मतदाताओं को मतदान के लिये प्रेरित करने के लिये उनकी मुहिम सिरे क्यों नहीं चढ़ी है। उन्हें अपने मल्टीमीडिया जागरूकता अभियान की प्रभावशीलता का भी मूल्यांकन करना चाहिए कि क्यों वह भी मतदाताओं को प्रभावित नहीं कर पाया है। निस्संदेह, मतदान के प्रति उदासीनता का यह भाव भारतीय लोकतंत्र के प्रति शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता।