यह खबर विचलित करती है कि गुरुग्राम द्वारका एक्सप्रेस-वे के किनारे बने गड्ढे में भरे बरसाती पानी में डूबकर छह बच्चों की मौत हो गई। ये बच्चे पास ही की एक श्रमिक बस्ती के थे। हम अक्सर खबर में मरने वालों को आंकड़ा देखते हैं लेकिन उस परिवार के दर्द को महसूस नहीं करते, जिसने एक या अधिक बच्चों को खोया। ये कई संभावनाओं और उम्मीदों का अंत है। उन परिवारों पर भी वज्रपात है जो बच्चे के लिये तमाम धार्मिक स्थलों में मन्नतें मांगते तथा अस्पतालों के चक्कर लगाते रहे। निश्चित तौर पर एक्सप्रेस-वे के निकट मिट्टी खोदने से बने गड्ढे के पास चेतावनी संकेत नहीं लगाये गये होंगे, जो बताते कि ये गड्ढे मौत का सबब बन सकते हैं। आखिर निर्माण कार्य से जुड़े अधिकारियों, इंजीनियरों व ठेकेदारों की जवाबदेही क्यों नहीं तय की जाती? क्यों निर्माण से जुड़ा तंत्र किसी जान की कीमत का अहसास नहीं करता? निस्संदेह, यह पहली घटना नहीं है जिसमें बेकसूर बच्चों या लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी हो। देश में आये दिन ऐसे हादसे होते रहते हैं कि फलां जगह खोदे गड्ढे में गिरकर किसी की मौत हो गई, कभी ओवर ब्रिज का निर्माणाधीन हिस्सा गिरने से लोग मर गये। दरअसल, हमारे सिस्टम में सार्वजनिक निर्माण से जुड़े मानकों में कामचलाऊ रवैया अख्तियार किया जाता है। लेकिन इसकी कीमत उस व्यक्ति व परिवार को चुकानी पड़ती है, जिसका कोई कसूर नहीं होता। वो फिर भी बेमौत मारा जाता है। मृतकों के परिजनों की क्षति को संवेदनशील ढंग से महसूस करना चाहिए। साथ ही आपराधिक लापरवाही बरतने वालों को नजीर की सजा दी जानी चाहिए। तमाम विकसित देशों में सार्वजनिक निर्माण में न केवल गुणवत्ता के उच्च मानकों का निर्धारण होता है बल्कि हादसे होने पर न्यायालय के जरिये मोटा जुर्माना देने को भी बाध्य किया जाता है। जिसके चलते सुरक्षा मानकों का सख्ती से पालन होता है।
कमोबेश, यह स्थिति देश के राष्ट्रीय राजमार्गों की भी है, जहां हर साल लाखों निर्दोष लोग मौत का शिकार बन जाते हैं। इसमें जहां तेज रफ्तार, नशे में ड्राइविंग व लापरवाही की भूमिका होती है, वहीं राजमार्गों के निर्माण संबंधी खामियां भी जिम्मेदार होती हैं। इन जोखिमभरी राहों के निर्माण में डिजाइन में खोट पाया जाता रहा है। यही वजह है कि भारत में विकसित देशों के मुकाबले प्रति व्यक्ति कम वाहन होने के बावजूद सड़क दुर्घटनाओं में मरने वाले लोगों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। कितने दुख की बात है कि लाखों बेकसूर किसी दूसरे की गलती से मारे जाते हैं। लाखों की संख्या ऐसे लोगों की भी है जो इन दुर्घटनाओं में जीवनभर के लिये विकलांग हो जाते हैं। दुखद यह है कि मरने वालों में सबसे ज्यादा संख्या युवाओं की है जो कामकाज के लिये घर से निकलते हैं। उनके निधन से पूरा परिवार गरीबी के दलदल में चला जाता है। ये अभागे उन डेढ़ लाख लोगों में शामिल हैं जो हर साल सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, जिस मुंबई-अहमदाबाद राजमार्ग पर हमने पिछले दिनों उद्योग जगत के बेशकीमती हीरे सायरस मिस्त्री को खोया, उसके सौ किलोमीटर के दायरे में इस साल साठ लोगों की मौत हो चुकी है। जिसमें राजमार्ग में निर्माण की तकनीक में चूक को भी जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। लेकिन इस तकनीकी खामी पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय देश का ध्यान पिछली सीट पर बेल्ट लगाने के मुद्दे पर केंद्रित कर दिया गया। जबकि राष्ट्रीय विमर्श राजमार्गों में निर्माण संबंधी खामियों को दूर करने पर केंद्रित होना चाहिए था। निस्संदेह, बेकसूर लोगों का असमय जाना रोकने के लिये राष्ट्रीय राजमार्गों में सुरक्षा मानकों में सुधार प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए। साथ ही दोषपूर्ण निर्माण के लिए दोषी एजेंसियों तथा अधिकारियों के खिलाफ भी सख्त दंडात्मक कार्रवाई होनी चाहिए। राजमार्गों में गति जरूरी है, लेकिन उससे पहले मार्गों का रखरखाव व नागरिकों की जीवन रक्षा की प्राथमिकता तय की जानी चाहिए। दुर्घटना उन्मुख क्षेत्रों की पहचान करके उनके डिजायनों में अविलंब सुधार हो।