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हिमालयी संस्कृति से सम्मोहित विदेशी योगनियां

मनुष्य के सुख का चरम तब मोहभंग करता है जब वो दर्द देने लगता है। भोग-विलास की संस्कृति एक सीमा तक तो सुख देती है लेकिन कालांतर जीवन की विसंगतियां व्यक्ति में शून्य भरने लगती हैं। यही वजह है कि...

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मनुष्य के सुख का चरम तब मोहभंग करता है जब वो दर्द देने लगता है। भोग-विलास की संस्कृति एक सीमा तक तो सुख देती है लेकिन कालांतर जीवन की विसंगतियां व्यक्ति में शून्य भरने लगती हैं। यही वजह है कि धनी व विकसित देशों की सैकड़ों योग साधिकाएं योग व आध्यात्मिक साधना से सुकून की तलाश में भारत चली आती हैं।

आज की उपभोक्ता संस्कृति के चरम पर शायद ही कोई भारतीय सैर-सपाटे और भौतिक सुख के लिये विदेश जाने की हसरत न रखता हो। वह बात अलग है कि उसकी जेब इजाजत दे या नहीं। ऐसे दौर में विडंबना देखिए कि जब लाखों भारतीयों के लिये पश्चिमी भोग संस्कृति के सम्मोहन और मौज-मस्ती के लिये विदेश जाना जुनून बना हुआ है, सैकड़ों विदेशी शांति-सुकून व आध्यात्मिक ज्ञान के लिये भारत का रुख कर रहे हैं। जिन पश्चिमी जीवन मूल्यों को आज भारतीय सुख के मानक मानकर अपनाने की होड़ में शामिल हैं, उससे उपजे मनोकायिक रोगों से मुक्ति के लिये विदेशी योगी-योगनियां हिमालय की शरण में आ रहे हैं। वे विदेशी अपने जीवन में कामयाब हैं। उनके पास संसाधनों व पैसे की कमी नहीं है। दरअसल, ये अमीर व विकसित देशों के लोग मशीनी होती जिंदगी की ऊब से मुक्त होने के लिये भारत आते हैं। उत्तराखंड की योग नगरी ऋषिकेश तथा अन्य हिमालयी राज्यों के रमणीक स्थल इन विदेशियों की प्राथमिकता बने हुए हैं।

आध्यात्मिकता की तलाश : साधकों की यात्रा

उत्तराखंड की विश्व स्तर पर चर्चित योग नगरी ऋषिकेश में पूरे साल विदेशी योगियों व आध्यात्मिक शांति के चाहने वालों का तांता लगा रहता है। यहां योग का बाजार भी खूब फल-फूल रहा है। साल भर योग से जुड़े तमाम आयोजन होते रहते हैं। लेकिन पिछले दिनों ऋषिकेष से कोई चालीस किलोमीटर की दूरी पर टिहरी गढ़वाल के अंतर्गत आने वाले सिंगथाली गांव के निकट बड़ी संख्यों में विदेशी योगनियों का हुजूम लगा नजर आया। जो स्थानीय लोगों के कौतूहल का विषय बना रहा। भारतीय परिधान और हिमालय की शक्तियों को जानने की उनकी तीव्र उत्कंठा मुखरित हो रही थी। कभी देवप्रयाग के संगम में श्रद्धानत होकर डुबकी लगाते, कभी ऋषिकेश तो कभी हरिद्वार के गंगा तटों पर सूर्य साधना करते नजर आते। दरअसल, ‘अवेकन – द जर्नी ऑफ सेल्फ-डिस्कवरी ’ मुहिम में भाग लेने दुनिया के तीस देशों के करीब डेढ़ सौ साधक उत्तराखंड आए हुए थे। इन योग साधकों में ब्रिटेन, इटली, साइप्रस,अमेरिका, सिंगापुर, ताइवान, हांगकांग, चीन , मलेशिया, यूएई, वियतनाम, मॉरीशस, त्रिनिदाद और एशिया व यूरोप के कई देशों की योगनियां शामिल थीं। पेशेवर हिसाब से देखें तो इन साधकों की विविधता समृद्ध थी। इनमे, डॉक्टर, वैज्ञानिक, शिक्षाविद , हीलर्स, आध्यात्मिक अभ्यासकर्ता, उद्यमी और विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट पहचान रखने वाले साधक शामिल थे। वे सभी एक ही उद्देश्य से जुटे थे, हिमालयीय आध्यात्मिक ज्ञान को साक्षात अनुभव करना।

जल साधना से ध्यान की एकाग्रता

गंगा के विस्तृत तटों पर विदेशी साधकों का सूर्य को अर्घ्य देने अनवरत अभ्यास हर किसी को चौंकाता है। वे विभिन्न धर्मों, देशों व संस्कृति के लोग सूर्य आराधना के मंत्र उच्चारित करते नजर आते तो स्थानीय लोग हैरत में होते। उस दिन सिंगथाली गांव के ठीक नीचे पुण्य सलिला गंगा की लहरों का अंतर्मन को भिगोने वाला संगीत साधकों को सम्मोहित कर रहा था। जैसे ही सूर्य की रश्मियां टिहरी गढ़वाल की इस तलहटी में नवजीवन का संचार करने लगीं, ये तमाम विदेशी योगी-योगनियां अपने तांबे, चांदी व मिश्रित धातुओं के पात्रों से सूर्य को अर्घ्य देने लगते हैं। ये क्रम निरंतर कई घटों तक चलता रहा। दरअसल, ये विभिन्न देशों, संस्कृतियों व धर्मों के साधक जल साधना के जरिये ध्यान की एकाग्रता का लक्ष्य हासिल कर रहे थे। पूंजीवादी के चरम वाले अमेरिका, साम्यवादी चीन, लोकतांत्रिक ताइवान, कठमुल्ला संस्कृति के वाहक ईरान व साइप्रस के विभिन्न धर्मी लोगों को सूर्य को अर्घ्य देते और सूर्य आराधना मंत्र का उच्चारण करते देखना रोमांचित करता है। ये वैश्विक पटल पर योग की जोड़ने की भारतीय संस्कृति का जीवंत उदाहरण ही है।

सांध्यकालीन गंगा आरती

दरअसल, सिंगथाली के सुरम्य प्राकृतिक अधिवास में गंगा का सान्निध्य इन विदेशी योग साधकों को भावविभोर कर गया। उत्तराखंड की प्राकृतिक सुषमा उन्हें मंत्रमुग्ध करती है। इस योग पर्व में उन्होंने योग के विभिन्न आयामों से रूबरू होने का शुभ अवसर पाया और इसका भरपूर लाभ भी उठाया। प्रातःकालीन सत्र में आसन, प्राणायाम व ध्यान, दिन में योग जिज्ञासाओं पर मंथन और रात्रि के सत्रों में योग के बौद्धिक विमर्श में इन विदेशी मेहमानों ने सक्रिय भागीदारी निभायी। इन विदेशी साधकों की योग जिज्ञासाओं के निराकरण के लिये कई विशेष सत्र भी इस दौरान आयोजित किए गए। वहीं गंगा के तट पर रोज होने वाला सांध्यकालीन गंगा आरती का आयोजन इन साधकों के लिये एक पर्व जैसा होता था। घाटी की गहराई में पहाड़ी इलाका होने के कारण सूर्य जल्दी ही ओझल हो जाता है। ऐसे में आरती में प्रयुक्त होने वाली कई ज्योति वाली दीप माला इन विदेशी मेहमानों के अंतर्मन को भिगो जाती थी। इसके बाद वे फिर अपनी योग साधनाओं में गहरे उतर जाते।

योग की वैश्विक स्वीकार्यता

निश्चित रूप से, यह योग की ताकत ही है दुनिया की अलग-अलग शासन व्यवस्थाओं, विभिन्न महाद्वीपों, संस्कृतियों व धर्मों से जुड़े लोग यहां श्रद्धा भाव से योगिक क्रियाओं को संपन्न करते हैं। उनके लिये योग व ध्यान की समृद्ध परंपराएं धार्मिक विश्वासों में बाधक नहीं हैं। इसे तो योग की वैश्विक सर्वस्वीकार्यता ही कहा जाएगा कि इन युवा योग साधकों को योग की जननी भारत की धरती सम्मोहित करती है। वहीं दूसरी ओर विदेशी साधकों की उपस्थिति से ये योग उत्सव एक अद्भुत सांस्कृतिक मेला नजर आता है। इस विशिष्ट योग उत्सव में भाग लेने वालों में विदेशी कॉरपोरेट जगत के बड़े अधिकारी शामिल रहे, जो समृद्धि हासिल करने के बाद अपने भीतर की समृद्धि की तलाश में हिमालय के आंचल में आए हैं। उनमें नवविवाहित युगल, भरे-पूरे परिवार, प्रेमी युगल, विवाह को तिलांजलि देकर आई आत्मनिर्भर युवतियां और कुछ उम्रदराज महिलाएं भी शामिल रहीं।

निस्संदेह, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा योग को मान्यता देने से इसकी स्वीकार्यता वैश्विक स्तर पर बढ़ी है। लोग लगातार अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हो रहे हैं। निश्चित रूप से वे भारतीय योगदर्शन व योग परंपराओं को प्रमाणिक मानते हैं।

प्राकृतिक चिकित्सा का पहलू

ये विदेशी साधक मौजूदा दौर में आधुनिक चिकित्सा के साइड इफेक्ट को देखते हुए योग व प्राकृतिक चिकित्सा में रुचि ले रहे हैं। वे हिमालय की जड़ी-बूटियों को आजमा रहे हैं। निस्संदेह, इससे भारत को योग की जन्मस्थली के रूप में स्वीकार्यता मिल रही है। साधक आसन, प्राणायाम व ध्यान के साथ योगदर्शन के आध्यात्मिक पक्ष से भी अवगत हो रहे हैं। सही मायनों में योग के अभ्यास हमारे मनोकायिक रोगों के उपचार में अचूक दवा का काम करते है।

सांस्कृतिक दूत की भूमिका

दरअसल,रोग हमारे मन की उलझनों से उपजे दोषों से भी पनपते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो दिल व दिमाग को प्रदूषण से मुक्त करने के लिये योग साधना से सुकून हासिल करना उनकी प्राथमिकता है। वे हिमालय की शक्तियों व गंगा के महात्म्य को स्वीकार करते हुए वे आसपास के गंगा से जुड़े तीर्थों तक पहुंचते हैं। उन्हें देवप्रयाग का तीर्थाटन मंत्रमुग्ध कर गया। एक पूरे दिन वे अलकनंदा, भागीरथी व सरस्वती के संगम पर जल साधना के जरिये आध्यात्मिक साधना के अविस्मरणीय अनुभव हासिल करते हैं। विश्वास किया जाना चाहिए कि भविष्य में भारत से सात्विक अहसास लिये ये साधक कालांतर अपने-अपने देशों में भारत के सांस्कृतिक दूत की भूमिका निर्वहन करेंगे। भारत की समृद्ध संस्कृति का अन्य देशों में प्रसार होगा।

हिमालयीय ज्ञान-विज्ञान का अनुभव

सही मायनों में कई प्रतिभागियों के लिए यह रिट्रीट हिमालयीय ज्ञान-विज्ञानों से रूबरू होने का पहला अनुभव था। हिमालय में एक ऐसा पवित्र स्थान जहां प्राचीन योगिक ज्ञान, ऊर्जा प्रक्रियाएं और चेतनाधारित साधनाएं अपने शुद्धतम रूप में मानव कल्याण के लिये प्रवाहित होती रही हैं। निस्संदेह, दुनियाभर से आए योग साधकों की भागीदारी हिमालयीय परंपरा में बढ़ते वैश्विक विश्वास और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की भागीदारी का प्रमाण है।

सिद्ध परंपरा की ध्यान तकनीकें

दरअसल, इस बहु-स्तरीय हिमालयीय साधना में साधक प्रत्येक दिन शरीर, मन, ऊर्जा और चेतना के नए आयाम खोलने के प्रयास करते हैं। हिमालय सिद्ध अक्षर के मार्गदर्शन में प्रतिभागी प्राचीन तकनीकों और गहन रूपांतरकारी अनुभवों से गुजरते हैं। वे दिन की शुरूआत शास्त्रीय हिमालयी योग परंपरागत आसन अभ्यास से करते हैं। फिर वे अपनी मुख्य नाड़ियों इड़ा,पिंगला और सुषुम्ना को सक्रिय करने हेतु श्वास तकनीकों का सहारा लेते हैं। वहीं मन-शरीर सक्रिय करने के लिये सूर्य साधना व पंचतत्व संयोजन का आश्रय लेते हैं। हिमालय की शांत वादियों में कुदरत के मौन के साथ गंगा तट पर ये साधनाएं पूरी की जाती हैं। दरअसल, ये साधक आंतरिक, बाह्य व अवचेतन की जागरूकता के लिये दुर्लभ हिमालयी अभ्यासों का सहारा लेते हैं। जिसमें श्वास नियमन से शरीर के ऊर्जा चैनलों को मजबूती दी जा सके। निस्संदेह, श्वास साधनाएं मनुष्य में जागरूकता, स्थिरता और अंतर्ज्ञान को परिष्कृत करती हैं। ध्यान साधना की ये तकनीकें आम से हटकर खास सिद्ध परंपरा की तकनीकें रही हैं। जिन्हें अब जन-जन तक पहुंचाने का ऋषिकर्म हिमालय सिद्ध द्वारा किया जा रहा है। देश-विदेश में इन प्रयासों का सकारात्मक प्रतिसाद भी मिल रहा है। दरअसल, ऐसे अभियानों के जरिये मानव ऊर्जा संरचना संवर्धन, योगिक चेतना में विस्तार, प्रकृति की कॉस्मिक ऊर्जा और उसके जीवन पर प्रभाव का मूल्यांकन किया जाता है। जिसके जरिये प्रतिभागी सीखते हैं कि ध्यान व श्वास क्रियाओं का अपने जीवन के निर्णयों और जीवन शुद्धि में कैसे उपयोग किया जाए। इसके साथ ही ध्यान एवं स्थिरता प्रशिक्षण के लिये त्राटक, पूर्णिमा व जल तत्वध्यान, मेरुदंड जागरण, उच्च आवृत्ति के साथ श्वास सामंजस्य, हिमालयी मौन साधन का सहारा लिया जाता है। लंबी साधना और सात्विक जीवन के अंगीकार के बाद ये अभ्यास साधक के लिये प्रखर बुद्धि व गहरी अंतर्दृष्टि के द्वार खोलते हैं।

देवप्रयाग की यात्रा का सम्मोहन

यही वजह है कि योग के गूढ़ लक्ष्यों को हासिल करने के लिये दुनिया के कोने-कोने से आये साधक सनातन परंपरा के स्रोत और गंगा,यमुना और सरस्वती के संगम देवप्रयाग की यात्रा से सम्मोहित होते हैं। जहां वे जल-तत्व साधना, कर्म-शुद्धि अनुष्ठान, पंचतत्व आह्वान, पारंपरिक सिद्धा अर्पण करते हैं। दरअसल, हिमालय के ये स्थल ऊर्जा के गहन संयोग से युक्त हैं,जो कि साधक की साधना के फलकों को कई गुना बढ़ा देते हैं।

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दरअसल, विदेशी साधक इस तरह के योग आयोजनों के जरिये चेतना विकास, हिमालयीय दर्शन, कर्म सिद्धांत दृष्टि, समृद्धि दृष्टि, सूर्य-चंद्र ऊर्जा संतुलन, जीवन को कॉस्मिक चक्रों के अनुरूप जीने की कला सीखते हैं। जो साधकों के जीवन में परिवर्तनकारी बताए जाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दुनिया के तीस देशों से आए ये डेढ़ सौ साधक साधना के दिनों में हिमालयी संस्कृति के अनुरूप परंपरा, पवित्रता और शुचिता का अनुपालन करते हैं। इस दौरान तामसिक भोजन व पेय से ही नहीं बल्कि प्याज, लहसुन व कैफीन का भी परहेज करते रहे हैं। दरअसल, हिमालयी साधना की परंपरा में गहन ऊर्जा साधना और ध्यानावस्था की सार्थकता के लिये वैचारिक व खानपान की पवित्रता को प्राथमिकता दी जाती है।

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आध्यात्मिक उन्नति में तन-मन का सुकून

आयोजन के बीच गंगा की धारा के मध्य एक ओजवान योगी अक्षर का सूर्य को अर्ध्य देते हुए जल साधना करना योग साधकों को रोमांचित कर जाता है। उनके पीछे एक ब्रिटिश व एक साइप्रस के साधक परछायी की तरह सदैव मौजूद रहते हैं। बेंगलुरू स्थिति योग अनुसंधान संस्थान अक्षर योग केंद्र के सूत्रधार हिमालय सिद्ध अक्षर की उपस्थिति योग साधकों को ऊर्जा दे जाती है। पिछले वर्षों में संस्थान विभिन्न आसनों के प्रदर्शनों के जरिये विश्व विख्यात गिनीज बुक वर्ल्ड रिकॉर्ड में 21 रिकॉर्ड दर्ज करा चुका है। जिसके बाद संस्थान के अनुयायियों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। बहरहाल, गंगा के तट पर श्रद्धा व विश्वास से निरंतर सूर्य को अर्घ्य देने एक सुखद अनुभव दे जाता है। हिमालय सिद्ध अक्षर बताते हैं कि योग को वैश्विक मान्यता मिलने के बाद दुनिया के लाखों साधक भारत आकर योग की जन्मभूमि के अहसास महसूस करना चाहते हैं। दरअसल, भौतिक सुखों की विसंगतियां इनको उपभोक्तावादी संस्कृति से विमुख कर रही हैं। वे सुकून की तलाश में योग की जन्मभूमि भारत के सात्विक सम्मोहन में बंधे चले आते हैं। फिर यह क्रम सालों साल चलता रहता है। उन्हें दुनिया की कोई भौगोलिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक व धार्मिक सीमाएं बांध नहीं पातीं। विडंबना यह है कि विदेशों में लोग जिस भौतिक संस्कृति का परित्याग करने को प्रयासरत हैं, भारत में उसका अनुकरण शान समझा जाता है। ऐसे में योग का सान्निध्य निस्संदेह,हमें सुखमय जीवन की राह दिखाता है।

विदेशियों में उत्तराखंडी संस्कृति-खानपान का मोह

पश्चिमी जीवन की चमक-दमक से हजारों किलोमीटर दूर उत्तराखंड की शांत व सुरम्य वादियों में इन योग साधकों की सादगी भी खूब नजर आई। इस दौरान ये योगनियां न केवल गंगा के महात्मय के साथ योग साधनाएं करती रहीं बल्कि इस दौरान उत्तराखंड की लोकसंस्कृति, खानपान व रीति रिवाजों से भी परिचित होती रहीं। दरअसल, सामान्य विदेशी मेहमान उत्तराखंड के सादगी वाले प्राचीन रीति-रिवाजों व संस्कृति में खासी रुचि दिखाते हैं। उन्हें तमाम विदेशी व्यंजनों के बजाय उत्तराखंड के परंपरागत खाद्य पदार्थ व मिठाइयां खूब रास आई। पांच सितारा खाद्य संस्कृति से दूर खानपान में मिलेट के व्यंजन मसलन मंडवे का डोसा, देसी मिठाई अरसा,परंपरागत व्यंजन स्वाली और आलू-मूली की थिचौंडी उन्हें अपने विशिष्ट स्वाद के लिये आकर्षित करती रही।

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