राजकुमार सिंह
भारतीय राजनीति में चुनाव का मौसम बड़ा विचित्र होता है—भले ही उस समय असल में कोई भी मौसम क्यों न चल रहा हो। ऐन चुनाव से पहले राजनेताओं में अपनी निष्ठा बदलने का खेल शुरू होता है तो राजनीतिक दलों में चुनावी वायदों के जरिये स्वर्ग को ही धरती पर उतार लाने की होड़ मचती है। यह खेल हर चुनाव से पहले खेला जाता है, फिर भी मतदाता खुद को भरमाने से नहीं बचा पाते। नहीं पूछ पाते के फलां दल में अचानक ही घुटन क्यों महसूस होने लगी? या फलां दल अचानक ही क्यों भाने लगा? जाहिर है, चार राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश पुड्डुचेरी में वर्तमान चुनाव भी इसके अपवाद नहीं हैं। आज जो शुभेंदु अधिकारी पश्चिम बंगाल में जंगल राज का आरोप लगाते हुए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को नंदीग्राम में चुनौती दे रहे हैं, वह कल तक उन्हीं के विश्वासपात्र हुआ करते थे। पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव इस बार जिस युद्धस्तर पर लड़ा जा रहा है, उसमें युद्ध से ऐन पहले पाला बदलने वाले शुभेंदु पहले राजनेता नहीं हैं। ऐसे पालाबदलुओं की फेहरिस्त बहुत लंबी बन सकती है, जो कल तक किसी और दल व नेता के प्रति निष्ठा की कसमें खाते थे, पर अब किसी दूसरे दल-नेता के सगे बनने का दम भर रहे हैं। ऐसे में यह स्वाभाविक सवाल अनुत्तरित ही है कि जो उनके सगे नहीं हुए, वे इनके सगे कैसे होंगे? यह भी कि वफा जिनकी फितरत में ही नहीं है, उनके वायदे वफा होने की उम्मीद क्या महज मृगतृष्णा ही नहीं है?
दरअसल सत्ता राजनीति के बाजार में निष्ठाएं अक्सर डांवांडोल नजर आती हैं। अपवाद हो सकते हैं, लेकिन अतीत में जैसे-जैसे निष्ठावानों ने राजनीतिक निष्ठाएं बदली हैं, उसके मद्देनजर यह टिप्पणी कठोर तो हो सकती है, पर अतिरंजित नहीं कि हर कोई बिकाऊ है, बस खरीदार चाहिए। आपको महाराष्ट्र की राजनीति का वह महानाटक याद है, जब सूर्योदय से पहले ही आनन-फानन में वहां एक सरकार को राज्यपाल ने शपथ दिलवा दी थी। वह सरकार भी ऐसे ही अप्रत्याशित पाला बदल से बनी थी। पॉवर के बड़े प्लेयर कहे जाने वाले शरद पवार के अपने भतीजे अजित पवार ने रात के अंधेरे में भाजपा से सत्ता की सौदेबाजी कर राकांपा तोड़ने की साजिश रची थी। यह अलग बात है कि उस सरकार की वैसी ही बेआबरू विदाई हुई, जैसी होनी चाहिए थी। आश्चर्यजनक यह भी रहा कि अजित पवार फिर अपनी निष्ठा बदल कर राकांपा में लौट आये और शिवसेना-कांग्रेस के साथ मिल कर बनी नयी सरकार में भी बिना शर्मिंदगी के उपमुख्यमंत्री बन गये। वैसे भारतीय राजनीति का अब शर्म से कोई रिश्ता रह नहीं गया है।
पिछले साल की ही बात है। जब कोरोना की दहशत अपना शिकंजा फैला रही थी। आम आदमी अपने जानोमाल की जद्दोजहद में फंसा था, पर मध्य प्रदेश में सत्ता का नाटक चल रहा था। ध्यान रहे कि माधव राव सिंधिया ने जनसंघ से शुरुआत की, पर कांग्रेस के साथ लंबी राजनीतिक पारी खेली। नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्वकाल में जब मुश्किलें पेश आयीं तो वह अपनी अलग मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस बना कर भी चुनाव लड़े, पर नेहरू-गांधी परिवार से उनका संबंध बना रहा और अंतत: कांग्रेस में लौट भी आये। उनके आकस्मिक निधन के बाद उनके पुत्र ज्योतिरादित्य भी राहुल गांधी की टीम के खास सदस्य बने रहे, लेकिन 2018 के अंत में विधानसभा चुनाव में बहुमत मिलने पर भी जब दिग्विजय सिंह से सांठगांठ कर कमलनाथ मुख्यमंत्री पद पर बाजी मार ले गये तो लगभग डेढ़ साल इंतजार करने के बाद सिंधिया ने कमल थाम लिया, जिसकी परिणति मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार के पतन और शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा सरकार के गठन के रूप में हुई। पुराने भाजपाइयों की कीमत पर सिंधिया समर्थकों को शिवराज सरकार में हिस्सेदारी मिल चुकी है। खुद ज्योतिरादित्य के नरेंद्र मोदी सरकार में प्रवेश का इंतजार है। पिछले साल ही राजस्थान में भी मध्य प्रदेश प्रकरण की पुनरावृत्ति के आसार नजर आये थे, पर अंतिम क्षणों में कांग्रेस आलाकमान सचिन पायलट को मनाने में सफल हो गया और अशोक गहलोत सरकार बच गयी।
ऐसा नहीं है कि राजनीति में नैतिक पतन का यह रुझान नया है। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक का एक घटनाक्रम तो अपनी तरह का अनूठा है। केंद्र में तब कांग्रेस समर्थित संयुक्त मोर्चा सरकार थी। इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री थे। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार थी। रोमेश भंडारी राज्यपाल थे, जिन्होंने 1998 में कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर जगदंबिका पाल के नेतृत्व में वैकल्पिक सरकार को शपथ दिलवा दी थी। लोकतंत्र के ऐसे सार्वजनिक शर्मनाक चीरहरण की अंतिम परिणति वही होनी थी, जो हुई, पर उसके लिए सर्वाच्च अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा। सर्वोच्च अदालत के निर्देश पर हुए बहुमत परीक्षण में कल्याण सिंह स्वाभाविक ही भारी पड़े और जगदंबिका पाल 24 घंटे के मुख्यमंत्री के रूप में इतिहास में दर्ज हो गये। जाहिर है, रोमेश भंडारी खलनायक माने गये, लेकिन पुराने कांग्रेसी जगदंबिका पाल बदलती राजनीतिक हवा का रुख भांप कर न सिर्फ भाजपाई हो गये, बल्कि संसद में उसके गुणगान में अच्छों-अच्छों को पीछे छोड़ने लगे। अगर अपनी चाल, चेहरे, चरित्र से अलग तरह की साफ-सुथरी राजनीतिक संस्कृति विकसित करने का दम भरने वाली भाजपा का यह हाल है तो सिर्फ, और सिर्फ सत्ता के लिए बनने वाले दलों के दलदल से तो उम्मीद ही क्या की जा सकती है?
ऐसी मिसालें कम नहीं हैं, जब हमारे राजनेताओं के रातोंरात हुए हृदय परिवर्तन ने सरकार गिरायी और बनायी हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि यह हृदय परिवर्तन अक्सर सत्ता परिवर्तन के लिए ही होता है। यह भी कि इस सत्ता परिवर्तन का सर्वाधिक लाभ भी हृदय परिवर्तन वाले राजनेताओं को ही होता है। शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह हृदय परिवर्तन होता ही सत्ता परिवर्तन और उसके जरिये अधिकाधिक लाभ अर्जित करने के लिए है। जाहिर है, यह लाभ कई तरह का हो सकता है। प्रत्यक्ष लाभ दिखायी देता है, अप्रत्यक्ष लाभ के किस्से-कहानियां सुनायी पड़ती हैं। इसलिए हर तरह के लाभ को इंगित करने के लिए राजनीतिक पाला बदल के लिए अब हॉर्स ट्रेडिंग यानी घोड़ा-व्यापार का मुहावरा चल पड़ा है। मुहावरे के रूप में ही बात करें तो हमारे राजनीतिक दल क्या हुए और उनकी राजनीति को क्या कहा जाये? आयाराम-गयाराम का मुहावरा हरियाणा के एक विधायक के कई बार पाला बदल से शुरू हुआ था, पर अब तो ऐसा राज्य ढूंढ़ पाना भी मुश्किल होगा, जहां एक आयाराम-गयाराम ढूंढ़ने पर अनेक न मिल जायें। राजनीति और चुनाव सुधारों के लिए काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016 से 2020 के बीच हुए चुनावों में लड़ने वाले 405 में से 182 विधायक दल बदल कर भाजपा में शामिल हुए जबकि 38 विधायक कांग्रेस में और 25 विधायक टीआरएस में शामिल हुए। जिन नेताओं और दलों की निष्ठा और वफादारी का यह आलम है, उनके चुनावी वायदों के वफा होने की उम्मीद करने वालों के लिए मुझे वर्ष 1959 की हिंदी फिल्म ‘धूल का फूल’ का लोकप्रिय गीत याद आ रहा है—हसीनों से अहद-ए-वफा चाहते हो, बड़े नासमझ हो यह क्या चाहते हो…। शब्दों के बजाय भाव को समझने की कोशिश करेंगे तो चुनावी राजनीति को भी समझने में मदद मिल पायेगी।
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