प्रदीप उपाध्याय
‘देखो पण्डित, आखिर उनकी जीत हो ही गई। वे सभी कितने खुश हो गए हैं और खुशी-खुशी घर को लौट रहे हैं। आखिर उन्होंने जो चाहा, वह सब पा ही लिया।’
‘लेकिन दद्दा, उन्होंने तो कुछ चाहा ही नहीं था, जो चाहा, वह कभी मिला नहीं बल्कि उन्हें जो दिया जा रहा था, वह उन्हें अपने अनुकूल लगा नहीं। इसीलिए वे उसे वापस करने की जिद पर अड़े हुए थे। और जब वापस हो गया तो इसी को जीत बता रहे हैं, लेकिन यह जीत कैसी, जिसमें कुछ पाया ही नहीं गया है बल्कि मुझे लगता है कि बहुतों ने बहुत कुछ खोया है और पाने वाले तीसरे ही लोग हैं।’
‘कैसी बात कर रहे हो पण्डित। अरे, जो दाता की मुद्रा में बने बैठे थे, उनको झुका दिया, यही क्या कम है। जीत तो जीत है और इसीलिए अब वे लौट आए हैं। हंसी-खुशी लौट आए हैं। ढोल-ढमाकों के साथ जश्न मनाते हुए लौट आए हैं।’
‘लेकिन दद्दा, क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि जब वे लोग घर पहुंचेंगे तो घर के लोग ही कहेंगे कि ‘लौट के बुद्धू घर को आए’। उन्होंने अपने लिए कुछ हासिल तो किया नहीं बल्कि जो दिया जा रहा था,उसे ठुकरा दिया! तब आखिर उन्होंने पाया क्या है?’
‘देखो भाई, अपने से ताकतवर को नाको चने चबा देना, कोई छोटा-मोटा काम तो है नहीं। क्या यह खुशी या गुरूर करने वाली बात नहीं है!’
‘यह तो ठीक है लेकिन कोई भी यह कैसे कह सकता है कि जो मिल रहा था, वह पूरी तरह से नुकसानदेह ही था। और चलिए मान भी लें कि देने वाले की नीयत साफ़ नहीं थी, उसमें खोट था, उसके एवज में कुछ हितकारी मांग भी तो रखी जाना थी।’
‘पण्डित, बात तो तुम्हारी ठीक है और कायदे की भी। वैसे चाहत तो कभी खत्म होती ही नहीं है और मांग सदैव जीवित रहती है। इसीलिए दाता और याचक हर युग में बने रहे हैं। इस मामले में भी शायद बाद में कुछ मांगें जुड़ भी गई थीं, जिनको पूरा करने का आश्वासन मिल ही गया है।’
‘दद्दाजी, जो मांगें जुड़ी हैं वे भी ख़िलाफत के कारण उपजी हैं। कोई नई बात तो है नहीं और जो मांगें वास्तव में थीं, अब उनका कहीं अता-पता ही नहीं है। बहरहाल, वे लौट कर तो आ ही गए हैं, और यह वापसी ठीक उसी तरह है जैसे दुल्हन के सपने संजोए बारात के साथ दूल्हा बिना ब्याहे और बिना दुल्हन के जश्नपूर्वक घर वापस आ जाए और आकर कहे कि दुल्हन घराती द्वारा भरपूर दहेज के साथ बाद में भेज दी जाएगी!’