
ज्ञाानेन्द्र रावत
ज्ञानेन्द्र रावत
विश्व स्वास्थ्य संगठन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के देशों के बीच स्वास्थ्य सम्बन्धी असमानताएं सुधार के लाख दावों के बावजूद लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। उस स्थिति में जबकि गैर-संचारी रोग कोरोना महामारी से भी ज्यादा बड़ा खतरा बन रहे हैं। यही नहीं, विश्व सांख्यिकी रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के खतरों के प्रति भी सचेत किया गया है। संगठन के मुताबिक भावी पीढ़ियों के लिए गैर-संचारी रोगों का खतरा दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। हर साल दुनिया में बड़ी संख्या में लोगों की जान इसके चलते चली जाती है। यदि यह प्रवृत्ति जारी रही तो सदी के मध्य तक यह आंकड़ा हर साल नौ करोड़ को पार कर जायेगा।
वर्ष 2019 के बाद से गैर-संचारी रोगों के मामलों में 90 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इसमें हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर आदि रोग शामिल हैं। इसके पीछे के कारणों में तम्बाकू और शराब के सेवन में बढ़ोतरी, गंदा पानी पीने की मजबूरी, सफाई की कमी, वायु प्रदूषण और तेजी से बढ़ रहा मोटापा अहम है। जहां तक संक्रामक रोगों का सवाल है, ये एक हद तक हमारे हाथ में नहीं हैं। जबकि यह सच है कि एक समय संक्रामक रोगों पर नियंत्रण था। लेकिन ये रोगाणुरोधी प्रतिरोध के चलते बढ़ सकते हैं। इसलिए संक्रामक रोगों से लड़ने के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता को बनाये रखना बेहद जरूरी है। यदि इस दिशा में कारगर प्रयास नहीं किए गये तो दुनिया में सहस्राब्दी के बाद से अब तक स्वास्थ्य क्षेत्र में जो उल्लेखनीय प्रगति हुई, वह बेमानी हो जायेगी।
अब वायु प्रदूषण को ही लें, जो मानव स्वास्थ्य के लिए भीषण खतरा बन चुका है। लैंसेट प्लेनेटरी हैल्थ जर्नल में प्रकाशित आस्ट्रेलिया के मोनाश यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के मुताबिक दुनिया के लगभग सभी हिस्सों में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अनुशंसित वायु गुणवत्ता दिशा निर्देशों की तुलना में वार्षिक औसत पीएम 2.5 सांद्रता अधिक है। हाल के अनुमानों के अनुसार 2019 में वायु प्रदूषण से दुनिया में कम से कम 70 लाख लोगों की मौत हुई। अध्ययन के अनुसार छोटे वायु कण जो 2.5 माइक्रोन या उससे कम चौड़ाई में होते हैं, मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे जहरीले वायु प्रदूषकों में से एक होते हैं। इनको पीएम 2.5 के रूप में जाना जाता है। छोटे वायु प्रदूषक तत्व सिर के बाल की चौथाई के एक-तिहाई हिस्सा होते हैं। यह हमारे फेफड़ों में पहुंच सांस लेने में समस्या पैदा करते हैं। ये हृदय रोग, फेफड़े सहित कैंसर आदि बीमारियों के कारण बन रहे हैं। दुनियाभर में एक साल के करीब 70 फीसदी दिनों में लोगों को खतरनाक स्तर पर प्रदूषण झेलना पड़ रहा है।
दरअसल वायु प्रदूषण हृदय रोग, कैंसर और फेफड़ों पर ही असर नहीं कर रहा, यह रजोनिवृत्ति वाली महिलाओं में हड्डियों का क्षरण करता है। इससे अल्जाइमर का जोखिम बढ़ता है और अजन्मे बच्चों पर भी बुरा असर डालता है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार हवा में नाइट्रिक आक्साइड जैसे प्रदूषकों का स्तर बढ़ने से रजोनिवृत्ति वाली महिलाओं में हड्डियों के क्षरण की गति तेज हो जाती है। इस प्रदूषक का सबसे ज्यादा असर यह कि मेरुदंड के निचले हिस्से में हड्डियों के क्षरण की गति सामान्य एजिंग से होने वाले क्षरण की तुलना में दोगुनी हो जाती है। इसके साथ याददाश्त खोना व संज्ञानात्मक गिरावट का संबंध अल्जाइमर की शुरुआत का संकेत है। अध्ययन बताते हैं कि हमारे आसपास की हवा में विषाक्त पदार्थों का प्रसार न केवल दुनिया के स्तर पर बढ़ रहा है बल्कि यह हमारे घर तक पहुंच गया है। गौरतलब है कि अल्जाइमर रोग बुजुर्गों में डिमेंशिया का सबसे आम कारण है। इसमें दो राय नहीं कि जलवायु परिवर्तन से संबंधित प्राकृतिक आपदाएं लाखों लोगों का विस्थापन तो कर ही रही हैं, वहीं इसके कारण बिगड़ता पर्यावरण स्वास्थ्य पर व्यापक प्रभाव डाल रहा है। दुनिया में आने से पहले ही बच्चों की सेहत पर इसका बुरा असर पड़ रहा है। डब्ल्यूएचओ, यूनीसेफ और नवजात शिशु तथा बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम की ओर से जारी रिपोर्ट के अनुसार मीथेन और ब्लैक कार्बन से न सिर्फ हवा खराब हो रही है बल्कि इससे नवजातों की मौत के मामले भी तेजी से बढ़ रहे हैं। साल 2020 में दुनियाभर में तकरीब 20 फीसदी नवजात शिशु की मौत का कारण वायु प्रदूषण ही था। प्रसव काल के दौरान जलवायु परिवर्तन का हानिकारक प्रभाव पड़ता है। यह जन्म से पहले के खतरे को बढ़ाता है। ठीक उसी तरह जैसे जीवाश्म ईंधन जलाने से होने वाला वायु प्रदूषण दमा रोग वाली माताओं में खतरे को 52 फीसदी तक बढ़ा देता है। बता दें कि अब तो कस्बे और गांव भी वायु प्रदूषण की चपेट में हैं।
नेशनल एनवायरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च के वैज्ञानिकों का कहना है कि तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में वायु प्रदूषण पूरी तरह नियंत्रित नहीं किया जा सकता। लेकिन हरित विकास जैसे कार्य से इसको कुछ कम जरूर किया जा सकता है।
इसी बीच दुनिया में बाल मृत्यु दर आधी रह जाना, मातृ मृत्यु दर एक-तिहाई घट जाना, गैर संचारी रोगों से होने वाली मौतों में कमी और मलेरिया, टीबी जैसे रोगों में कमी के साथ वैश्विक जीवन प्रत्याशा का बढ़ना आशा के बिंदु हैं। लेकिन 2015 के बाद से स्वास्थ्य सेवाओं में विकास की गति का थमना चिंता का विषय है। दुनिया में 99 फीसदी आबादी अस्वास्थ्यकर हालात में जीने को विवश है। जाहिर है स्वास्थ्य मद में जितनी बढ़ोतरी होनी चाहिए थी, उसमें कमी आयी है। कोरोना महामारी ने इसमें प्रमुख भूमिका निभाई। इसलिए स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार की आशा तभी की जा सकती है जबकि स्वास्थ्य मद में कटौती न करते हुए विकास लक्ष्य संबंधी चुनौतियों का युद्धस्तर पर सामना किया जाये।
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