कृष्ण प्रताप सिंह
अमेरिका के छब्बीसवें राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट ने 1903 में मजदूर दिवस के अपने बहुचर्चित सम्बोधन में मजदूरों के लिहाज से एक बड़ी ही महत्वपूर्ण बात कही थी। यह कि मनुष्य के जीवन में अगर कोई सबसे बड़ा पुरस्कार है, तो वह है काम करने का मौका। या कि ऐसा काम जिससे उसकी जीविका चले और महत्ता बढ़े।
उनकी यह बात आज, उनके उक्त सम्बोधन के एक सौ अठारह साल बाद भी, इस अर्थ में बहुत महत्वपूर्ण है कि आज की दुनिया में भी बड़ी संख्या में मजदूर जीवन के इस सबसे बड़े पुरस्कार से वंचित हैं और उसकी अंतहीन तलाश में सिर खपाने को मजबूर हैं।
अलबत्ता, इस बीच विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों में मजदूरों की एक छोटी-सी संख्या खुद को इस अहसास के नजदीक पहुंचाने में सफल रही है कि उसने अच्छे पद, प्रतिष्ठा, वेतन, घर और लग्जरी गाड़ियां समेत विलासिता के प्रायः सारे साधन जुटाकर अपने सारे सपने पूरे कर लिये हैं। इन देशों की मजदूरविरोधी व्यवस्थाएं इस संख्या को मजदूरों की एकता खंडित करने और ‘मजदूरों की ही मार्फत मजदूरों के शोषण’ के उपकरण के तौर पर इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकतीं।
दरअसल, वक्त के बदलाव के साथ मजदूरों के काम के पुराने प्रायः सारे कौशल बेकार करार दिये गये हैं और उनके जिस छोटे से हिस्से ने जरूरी बताये जा रहे कुछ नये कौशल अर्जित कर लिये हैं, उसकी मार्फत कुशलता और अकुशलता की कथित लड़ाई को तेज कर दिया गया है। इस लड़ाई के माध्यम से कुशल और अकुशल मजदूरों के बीच बड़ी खाई पैदा कर इस हकीकत को झुठलाने की कोशिशें की जा रही हैं कि आम मजदूर अभी भी बेरोजगार रहने, बेहद कम मजदूरी पर काम करने और अपने काम से संतुष्टि या महत्ता न पाने को अभिशप्त हैं। स्वाभाविक ही इससे पूरी दुनिया में न सिर्फ आय की असमानता बल्कि उसके चलते बढ़ रहे सामाजिक तनाव और असंतोष का भी बोलबाला है।
यकीनन, इस दौरान रोजगार और मजदूरी की संरचना में काफी बदलाव आये हैं और मशीनों व उपकरणों के कारण कई कठिन समझे जाने वाले परम्परागत काम आसान हो गये हैं, लेकिन अविकसित या विकासशील देशों को छोड़ भी दें तो धनी देशों में भी बेरोजगारी की ऊंची दरें हालात के दूसरे पहलू को बेपर्दा करके रख देती हैं, जिससे साफ होता है कि नई विश्वव्यवस्था और उसके नीति-निर्माता दुनिया में कहीं भी उस गरीब और कमजोर तबके के हितों का ध्यान नहीं रख रहे हैं।
नोबेल पुरस्कार विजेता माइकल स्पेंस का कहना है कि इसमें कोई दो राय नहीं कि रोजगार नई तकनीकों की वजह से भी कम हो रहे हैं, लेकिन भूमंडलीकरण का वर्चस्व और कल्याणकारी नीतियों का अभाव ही इसका सबसे बड़ा कारण है। यकीनन, वह भूमंडलीकरण ही है, जो उन ढांचागत सुधारों के आड़े आता है, जिनकी मदद से रोजगार के अवसर बढ़ाये जा सकते हैं और शक्तियों व संसाधनों का मजदूर विरोधी संकेन्द्रण रोका जा सकता है। निस्संदेह, इन सुधारों की अनुपस्थिति में ही शिक्षा में उपयुक्त बदलाव के जरिये ऐसे प्रशिक्षण नहीं उपलब्ध कराये जा पा रहे, जिनकी बिना पर मजदूरों की नई पीढ़ियां पुराने कौशलों के बेकार हो जाने से उत्पन्न हुई चुनौतियों का सामना कर सकें। अकुशल और कुशल मजदूरों के बीच की खाई पाटनी है तो उसका पहला उपाय अकुशल मजदूरों की दक्षता विकास ही होगा।
खास अपने देश के संदर्भ में बात करें तो पहला यह कि मजदूर आपस में मजदूरों की विभिन्न श्रेणियों के आधार पर विभाजित हो गये हैं और हर श्रेणी ‘आप आप ही चरे’ की तर्ज पर सिर्फ अपनी उपलब्धियों के लिए चिंतित रहने लगी है। इस कारण सामाजिक या आर्थिक परिवर्तन के हिरावल दस्ते के रूप में उनकी कोई भूमिका ही नहीं रह गई है। दूसरा यह कि उनकी मजदूर वाली पहचान पर कई दूसरी संकीर्ण पहचानें हावी हो गई हैं, जिन्होंने उनको, यहां तक कि उनके संगठनों को भी, धार्मिक व साम्प्रदायिक सोच के शिकंजे में जकड़ कर रख दिया है।
इसी कारण कोरोना संकट में श्रमिक भीषण त्रासदी का सामना करके भी सत्ता प्रतिष्ठान पर कोई बड़ा दबाव नहीं बना पाये। इतना ही नहीं, मोदी सरकार ने कोरोना की आपदा को अपने लिए खास अवसर में बदलकर देश में लागू चालीस श्रम कानूनों को चार मजदूर विरोधी व कारपोरेट हितकारी श्रम संहिताओं में बदल डाला तो भी मजदूर संगठन औपचारिक हड़तालों और भारत बन्द आदि से आगे बढ़कर संघर्ष की कोई निर्णायक पहल नहीं कर पाये। हालांकि, इन संहिताओं के लागू हो जाने के बाद उनके काम के घंटे आठ के बजाय बारह हो जायेंगे और वे पूरी तरह रोजगार प्रदाता के रहमोकरम पर हो जायेंगे।
देश के किसान और मजदूर दोनों परस्पर एक-दूजे का विश्वास अर्जित करके लम्बे एकजुट संघर्ष के लिए तैयार हो जायें तो कोई कारण नहीं कि वे अपनी दुर्दशा का अंत न कर सकें।