मनु पंवार
पहले लगता था कि झूठ के सफेद होने की बात खालिस रंगभेद का मसला है। आखिर झूठ सफेद या गोरा कैसे हो सकता है? फिर जब दुनिया ने अमेरिका में ट्रंप का दौर देखा, उसके बाद बहुत से लोगों का इस पर यकीन बढ़ गया कि हां झूठ सफेद यानी गोरा भी हो सकता है। लेकिन फिर लगा कि झूठ को सिर्फ सफेद कह देना ज्यादती होगा। वह ईस्टमैन कलर में भी उतना ही हिट दिखता है, जितना सिर्फ सफेद होने में।
जिनको व्हाट्सएप से परे इतिहास पर यकीन है, वो जानते होंगे कि झूठ की एक थ्योरी पहले ही दुनिया और समाज का बड़ा नुकसान कर चुकी है। उस थ्योरी के मूल में है कि एक झूठ को सौ बार बोलने से वह सच लगने लगता है। यही थ्योरी अब नया रूप धर कर मार्केट में आई है। उसका कहना है कि जब तक सच अपने जूते पहन रहा होता है, तब तक झूठ आधी दुनिया का चक्कर लगा लेता है।
यह थ्योरी झूठ की गति पर मुग्ध और उसकी कामयाबी पर लहालोट दिखती है। यह नई थ्योरी बड़ी चालाकी से उनका गुनाह छुपा लेती जो कि सच को जूता बांधने में उलझाए हुए हैं और झूठ को दुनिया का चक्कर लगा आने का मौका दे रहे हैं।
बहरहाल बात झूठ के सफेद होने की हो रही थी। मुझे कई बार लगता है कि यह रंग से ज्यादा वर्ग यानी क्लास का मामला है। कुछ-कुछ यूं समझ लीजिए कि झूठ अगर किसी ट्रेन का जनरल डिब्बा है तो सफेद झूठ एसी कोच। झूठ अगर किसी फ्लाइट की इकॉनमी क्लास है तो सफेद झूठ बिजनेस क्लास। हालांकि रहता वो तब भी झूठ ही है, लेकिन क्लास का अंतर आ जाता है।
मामूली आदमी अगर झूठ बोले तो उसके पकड़े जाने के चांस ज्यादा रहते हैं। उसकी अपनी सीमाएं हैं लेकिन जो जितना बड़ा आदमी होता है वह उतना ही बड़ा झूठ बोल लेता है। उसका कारपेट एरिया बड़ा होता है। उसके पास सलीका होता है। सफेद झूठ के लिए शऊर चाहिए। ऐसा हुनर हर किसी में कहां होता है!