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जब शब्द करें दंग तब जमे व्यंग्य का रंग

तिरछी नज़र

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धीरा खंडेलवाल

इधर कुछ दिनों से लगातार व्यंग्य पढ़ते-पढ़ते मेरे मन में भी व्यंग्य लिखने की लालसा हिलोरे मारने लगी। एक दिन इन हिलोरों से त्रस्त होकर मैंने निश्चय कर, स्वयं से यह घोषणा कर दी कि मैं भी एक दिन व्यंग्य अवश्य लिखूंगी। फिर भले ही वह पहला और आखिरी ही क्यों न हो।

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इसी चक्कर में सुबह उठते ही मैंने अपने आस-पास अपनी दिनचर्या में व्यंग्य-खोजन-अभियान शुरू किया।

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काश! कहीं व्यंग्य दिख जाए तो मैं उसे अपने लेखन में शामिल कर लूं। अतएव अपनी आंखें चौड़ी कर घूमने लगी। फिर कान के पर्दे भी साफ कर लिए ताकि बारीक से बारीक़ व्यंग्य भरी बात सुन सकूं। हाथों की उंगलियां चटका-चटका कर वर्ज़िश करने लगी ताकि क़लम पर पकड़ मज़बूत रहे। जिससे व्यंग्य-अवतरण की तेज़ रफ़्तार से लेखनी कमज़ोर न पड़ जाये। हर तरफ़ व्यंग्य को ढूंढ़ना ऐसे लगा जैसे मैं वो रैगपिकर बच्चा हूं जो कचरे में से उपयोग का सामान ढूंढ़ता है, या वो महिला हूं जो सूप में पछोर कर छिलके उछाल नीचे गिराती है।

थोड़ा-बहुत लिखने के बाद मेरी हैसियत उस भिखारी-सी हो जाती है जो अपने कटोरे में पड़े सिक्कों को देखकर सोचता है कि क्या काफ़ी हो गए। भिखारी के सिक्कों की मानिंद मेरे व्यंग्य के मोती पर्याप्त हुए कि नहीं। व्यंग्य का मेरा सिक्का चलेगा कि नहीं, यही सोचते मेरे विचार दिन-रात की चक्की के दो पाटों के बीच पिसे जा रहे हैं। इसी चूरन से मैंने व्यंग्य रूपी चोकर छानकर उड़ानी है। नहीं-नहीं, आंखों में झोंकने के लिये नहीं भाई। आंखों में तो धूल झोंकी जाती है। चोकर तो उबटन की माफिक अवसाद को छुड़ा मन चम-चम कर देती है।

अपनी लिखी कुछ लाइनों को शबरी के बेर की तरह परखती और परोस देती हूं।

किसी का दिल जले तो जले, किसी को मिर्ची लगे तो लगे। लच्छेदार बातों की चाशनी से व्यंग्य का चटपटा स्वाद थोड़े ही आयेगा। दिनचर्या की हर गतिविधि में व्यंग्य का पुट खोजते-खोजते मैं खुद को मसख़री का मसौदा बना बैठी।

घर का हर बच्चा, बूढ़ा, जवान सदस्य मुझे आड़ी-तिरछी नज़रों से देखने लगा है। घर में मेरे प्रति व्यंग्य के तीर छोड़े जाने लगे हैं। मानो हर सदस्य निशानेबाज़ी में ओलंपिक पदक जीतने की लालसा जगा मुझे शूटिंग बोर्ड की तरह इस्तेमाल कर रहा हो।

मेरी यह हालत अब असहनीय होती जा रही है, लगता है व्यंग्य मुझे ही व्यंग्य बना डालेगा।

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