गुरबचन जगत
एक दलित महिला व उसकी 19 वर्षीय बेटी खेतों में चारा काटने जाती है। दोनों एक-दूसरे से अलहदा हो जाती हैं। कुछ समय बाद मां बेटी को न पाकर उसकी तलाश शुरू करती है। वह नग्न अवस्था में, खून से लथपथ और हिलने-डुलने में असमर्थ स्थिति में मिलती है, उसकी रीढ़ और कुछ अन्य हड्डियां टूट चुकी थीं और मरणासन्न अवस्था में थी। किसी तरह महिला और उसका बेटा उसे मोटरसाइकिल पर पुलिस थाने ले जाते हैं। वे उसको कैसे मोटरसाइकिल पर ले जा पाए, यह मेरी सोच से परे है। पुलिस उन्हें हाथरस के जिला अस्पताल ले जाने को कहती है। न तो कोई कागज़ी कार्रवाई हुई, न ही कोई प्राथमिकी दर्ज की। घटना रोजनामचे में भी दर्ज नहीं की गई। जिला अस्पताल पहुंचने पर उन्हें पीड़िता को अलीगढ़ ले जाने को कहा गया। लेकिन वहां जाएं कैसे? क्या अस्पताल ने एम्बुलेंस मुहैया करवाई?
किसी तरह वे अलीगढ़ अस्पताल पहुंचते हैं और कुछ दिनों के बाद पीड़िता को आगे सफदरजंग अस्पताल, दिल्ली ले जाने को कहा जाता है। वहां पहुंचने के बाद मृत्यु होने से उसे नारकीय यंत्रणा से मुक्ति मिली, इस दौरान समूचा राज्य प्रशासन सोता रहा… पुलिस, पंचायत, जिलाधीश, मीडिया… सब सोए रहे। एक लड़की के साथ बलात्कार होता है, अकथनीय जुल्म हुआ और हड्डियां टूटीं, क्या यह सब राज्य सरकार को जगाने को काफी नहीं था? सत्ता की शपथ लेते समय पहला फर्ज ‘नागरिकों’ की सुरक्षा यकीनी बनाना होता है। घटनाक्रम में सबसे अहम यह है कि क्या स्थानीय प्रशासन जघन्य अपराध को नजरअंदाज करके खुद भागीदार नहीं कहलवाएगा? जबकि आरंभ से ही जरूरी था ः सर्वप्रथम गांव के सरपंच को खुद साथ जाकर पीड़िता को थाने पहुंचाकर प्राथमिकी दर्ज करवानी चाहिए थी। लड़की को अलीगढ़ ले जाने के लिए एम्बुलेंस मुहैया करवाना अस्पताल का फर्ज था। इस बीच पुलिस को साथ जाकर पीड़िता और मां का बयान दर्ज करना चाहिए था। पुलिस, अस्पताल और सरपंच का जिम्मा बनता था कि अलीगढ़ में लड़की की तबीयत की बराबर जानकारी रखते, जरूरत पड़ने पर समय रहते दिल्ली पहुंचवाते। इसी समय पुलिस को गांव में जुर्म की जांच शुरू कर देनी चाहिए थी और उन चारों आरोपियों की धरपकड़ की जाती, जिन्हें लड़की ने अपने बयान में नामजद किया था। वारदात के तुरंत बाद उप-जिला पुलिस कप्तान और जिला मजिस्ट्रेट का गांव एवं अस्पताल का दौरा करना बनता था। जिला अधिकारी को इसकी भनक तक नहीं थी, जबकि जिले की कानून-व्यवस्था बनी रहे, इसका दारोमदार उस पर होता है। कानून एवं विभागीय नियमानुसार जरूरी उपरोक्त निर्देशों में एक पर भी अमल नहीं हुआ। अपराध स्थल को फॉरेंसिक टीम के अन्वेषण हेतु सुरक्षित बनाया जाना चाहिए था। घटनास्थल की खून से सनी मिट्टी, बाल, कपड़ों और नाखूनों के निचले अंदरूनी भागों से सैंपल उठाए जाने चाहिए थे ताकि डीएनए टेस्ट किया जा सकता। लड़की के कपड़े कहां गए? वीर्य वगैरह के नमूने इकट्ठा करने को उनकी बरामदगी बहुत अहम थी, क्या यह सब किया गया?
हालांकि इसके बावजूद राज्य सरकार ने अपनी और आरोपित सवर्णों की खाल बचाने को फुर्ती दिखाई है। उसके बंदे दिल्ली पहुंचे और शव को अपने कब्जे में लिया, परिवार को अपने हाल पर छोड़कर, शव लेकर गांव की ओर निकल पड़े। अब तक केंद्र सरकार को दलित लड़की की मौत का खतरनाक होने का अहसास हो चुका था। उधर परिवार भी जैसे-तैसे गांव पहुंचा, लेकिन शव पुलिस के कब्जे में ही रहा और परिजनों से अगली सुबह दाह-संस्कार करने का वादा भी किया, किंतु जैसा कि ‘महान राज्य’ उ.प्र. की एनकाउंटर में जुटी रहने वाली पुलिस ने अंधेरे की आड़ में रात के ढाई बजे अंतिम संस्कार कर दिया और परिवार को अंतिम दर्शन तो क्या, पास तक नहीं फटकने दिया।
अब तक नाटकीय घटनाक्रम का किरदार बनने को अधीर मीडिया भी पहुंचना शुरू हुआ, विपक्षी नेता आने लगे। पुलिस ने आनन-फानन में बहुस्तरीय सुरक्षा घेरा बना डाला। उसको स्पष्ट निर्देश था कि कोई मीडिया कर्मी-विपक्षी नेता-बाहरी व्यक्ति गांव में परिवार से न मिलने पाए। इसे उ.प्र. पुलिस ने दक्षता से निभाया, आखिरकार कुंभ जैसे विशालकाय आयोजन में त्रुटिरहित भीड़-नियंत्रण का अनुभव जो उसके पास था! अब मौके पर जिलाधिकारी, पुलिस कप्तान समेत राजधानी लखनऊ से आए बड़े साहब लोग पूरे दल-बल के साथ थे। संक्षेप में कहें चंद नेताओं के अलावा परिवार से किसी को मिलने नहीं दिया गया। उपस्थित डीएम के डर के मारे परिवार ने ज्यादा कुछ नहीं कहा, क्योंकि उक्त महोदय ने पहले ही उनको ‘ठीकठाक’ ढंग से यह ‘पाठ’ पढ़वा दिया था कि जल्द मीडिया और वहां पहुंचे बाकी लोग चले जाएंगे, किंतु स्थानीय ‘हाकिम’ होने के नाते मैं यहीं रहूंगा और आखिर में जरूरत मेरी ही पड़ेगी। रस्मी तौर पर कुछ पुलिस अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया (ऐसे मामलों में कुछ समय बाद फिर से बहाली हो जाती है) और जनता से वही पुराना जुमला दोहराया गया ‘दोषी कोई भी हो, उसे बख्शा नहीं जाएगा और मिसालयोग्य सजा दी जाएगी।’ तो फिर यहां जिलाधिकारी को कैसे बर्खास्तगी से बचा लिया?
गांव के सवर्णों ने भी राग अलापा उनके लड़के बेकसूर हैं। अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक स्तर के अधिकारी ने कहा कि लड़की का तो बलात्कार हुआ ही नहीं… यानी दक्षतापूर्ण लीपापोती शुरू हुई। एक भारतीय ‘नागरिक’ का बलात्कार हो जाता है, अकथनीय जुल्म ढाया गया और जगह-जगह से शरीर की हड्डियां टूट गईं, उसे राज्य सरकार अपने हाल पर छोड़ देती है और अंत में उसी ‘नागरिक’ के शव को परिवार की अनुपस्थिति में रात के अंधेरे में फूंक दिया गया। हम अपने दुश्मन तक से कहीं बेहतर बर्ताव करते थे। क्या वह बेचारी लड़की ‘नागरिक’ होने के लायक भी नहीं थी?
अन्य मामलों की तरह हमारी संपूर्ण अपराध न्यायिक प्रणाली भी असफल हो चुकी है। अब पूरा तंत्र सत्ता पर काबिज लोगों द्वारा संचालित है, जिसका प्रतीक सूबे का मुख्यमंत्री है। संपूर्ण शक्ति उसके हाथों में केंद्रित है और एसपी-डीएम-जज केवल मोहरे मात्र हैं, जो एक इशारे पर आगे या पीछे चलने को तत्पर रहते हैं। पुलिस की यह बताने की कोशिश रही कि बलात्कार हुआ ही नहीं और इसे वह चिकित्सा-विधिक (मेडिको-लीगल) रिपोर्ट का हवाला देकर सिद्ध करने में लगी हुई है। बलात्कार की पुष्टि के लिए लड़की की मेडिकल जांच घटना के 11 दिन बाद की गई। इतने दिनों बाद वहां जांच के लिए क्या सबूत बचता? पुलिस की जांच क्या कहती है? कोई जांच हुई भी है या नहीं? प्राथमिकी कब दर्ज हुई? केस डायरी कब लिखी गई? क्या किसी अधिकारी ने घटनास्थल का दौरा किया था? क्या फॉरेंसिक टीम ने अपना काम सही ढंग से किया? क्या न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास प्राथमिकी और केस-डायरी की प्रतिलिपि तयशुदा समय में पहुंच पाई? क्या जिलाधिकारी ने यह सुनिश्चित किया कि अभियोजन पक्ष जांच की निगरानी करे और क्या खुद उसने पुलिस की जांच की निगरानी की? मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि ऐसा कुछ भी नहीं किया गया होगा, जैसा कि हमारी कानून एवं निर्देश संहिता कहती है, बल्कि अब पिछली तारीख में एंट्रियां डाल दी जाएंगी। पूरे तंत्र को राजनेताओं ने बिगाड़ दिया है।
इन तमाम बातों को दरकिनार कर भी दें तो स्वयं पीड़िता ने मृत्यु से पूर्व बयान में खुद से बलात्कार किया गया बताया और चार आरोपियों के नाम उजागर किए हैं-क्यों सरकारें और पुलिस इस सच्चाई को मानने से पीछे हट रही हैं? बहरहाल, राज्य सरकार ने यह मामला सीबीआई को देकर अपनी खाल बचाने का उपाय किया है। हालांकि मैं जांच पर पूर्वाग्रही नहीं बनना चाहता लेकिन सीबीआई की पिछली कारगुजारियों को देखते हुए मुझे बहुत ज्यादा भरोसा भी नहीं है। सुशांत राजपूत के मामले में मोर्चा संभालने वाले हमारे मीडिया-योद्धाओं ने (जहां वे खुदकुशी को कत्ल बताकर इसके पीछे बॉलीवुड में व्याप्त नशा-माफिया होना सिद्ध कर रहे हैं) हाथरस कांड को भी हाथों-हाथ लेकर जोर-शोर से मुख्य खबर बनाया है। अब वे इसको उ.प्र. सरकार को बदनाम करने की अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर की साजिश बता रहे हैं, नवीनतम उलटफेर में वे पीड़ित पक्ष को आरोपी… तो आरोपियों को पीड़ित बनाने में जुट गए हैं। क्या वास्तव में यह दावा सही है? क्या यह बात वे बाकायदा जांच के बाद कह रहे हैं अथवा इसका स्रोत क्या है? सीबीआई को जो फाइल सौंपी जाएगी, उसके प्रमाण कहां हैं?
हे हाथरस की मेरी अज़ीज़ दिवंगत पुत्री, ऐसे राज्य-प्रशासन से आप किस न्याय की अपेक्षा करेंगी? जिलाधिकारी सही था, जब उसने कहा था कि विपक्षी दल और मीडिया चले जाएंगे लेकिन स्थानीय दारोगा और मैं डीएम यहीं रहेंगे और हमें संविधान और इसके नियम-कायदों पर नहीं बल्कि लखनऊ से आने वाले ‘फरमानों’ पर अमल करना है। आज समय की मांग है कि एक और गांधी आए, एक और भगत सिंह उठे, लेकिन इस परिवार के आर्तनाद का उत्तर किसी के पास है? तथापि मेरी उम्मीद उस पुरानी कहावत पर अभी भी टिकी है : ‘जिस घड़ी होना होगा… एक महामानव आएगा।’
लेखक संघ लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष, मणिपुर के राज्यपाल और जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।