विश्वनाथ सचदेव
नेता और प्रतिनिधि में क्या अंतर होता है? नेता वह है जो नेतृत्व करे, अपनी कथनी और करनी से उदाहरण बने आम जनता के लिए। जनता जिस पर भरोसा कर सके, जिसकी ओर उम्मीदों से देख सके। और प्रतिनिधि? प्रतिनिधि वह है जिसे किसी काम-विशेष के लिए जनता नियुक्त करे। इस दृष्टि से देखें तो नेता भले ही जनता का सेवक न माना जाये, पर विधानसभा और संसद आदि में जनता का प्रतिनिधि सेवक ही होता है। जनतंत्र में यह सेवक जनता स्वयं चुनती है। और इस चुनाव का आधार सेवक बनने के उम्मीदवार की वैयक्तिक योग्यता और चरित्र होता है। होना तो यही चाहिए। पर क्या मतदाता चयन के अपने अवसर और अधिकार का सही दृष्टि से उपयोग करता है? यह सवाल आज अचानक अखबार में एक समाचार पढ़कर मन में उठा। खबर गुजरात में हो रहे चुनाव के उम्मीदवारों से जुड़ी थी।
एसोसिएशन फॉर डेपेटिक रिफार्म (एडीआर) द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार गुजरात में विधानसभा के लिए हो रहे चुनावों में खड़े कुल 1621 उम्मीदवारों में से बीस प्रतिशत यानी हर पांच में से एक उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि वाला है। यह अध्ययन उम्मीदवारों द्वारा स्वयं भरे गये नामांकन पत्रों में दी गयी जानकारी के आधार पर किया गया है। पता यह चला है कि 1621 उम्मीदवारों में से 268 उम्मीदवार ऐसे हैं जिन पर गंभीर से अति गंभीर अपराधों के आरोप हैं। निस्संदेह, इनमें ऐसे लोग भी होंगे जिन पर राजनीतिक स्वार्थों के चलते आरोप लगे हों, पर यह तो नहीं ही कहा जा सकता कि सारे आरोप राजनीतिक कारणों अथवा वैयक्तिक रंजिशों से उपजे हैं। जो आरोप गुजरात में चुनाव लड़ रहे लोगों पर लगे हैं, उनमें हत्या, बलात्कार आदि के आरोप भी शामिल हैं। यह एक गंभीर स्थिति है, क्योंकि इन्हीं आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों में कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो चुनाव जीत कर विधानसभा में हमारे प्रतिनिधि बनकर बैठेंगे और दावा यह भी करेंगे कि वे हमारे नेता हैं!
यह पहली बार नहीं है जब उम्मीदवारों अथवा प्रतिनिधियों की आपराधिक पृष्ठभूमि से संबंधित बातें सामने आयी हैं। लगभग हर चुनाव में, चाहे वह म्यूनिसिपैलिटी का चुनाव हो या लोकसभा का, इस तरह के अध्ययन होते रहे हैं, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेताओं की सूचियां प्रकाशित होती रही हैं और कुछ ऐसे उम्मीदवार चुनाव जीतते भी रहे हैं। पिछले आम चुनाव की ही बात करें। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में विजेताओं के विश्लेषण के अनुसार आपराधिक और गंभीर आपराधिक मामलों वाले सांसदों की उम्मीदवारी पिछले एक दशक में कम होने के बजाय बढ़ी ही है। वर्ष 2009 में 534 विजेताओं में से 162 यानी तीस प्रतिशत ने उनके खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किये थे, जबकि 76 के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में 539 विजेताओं के विश्लेषण के अनुसार आपराधिक और गंभीर आपराधिक मामलों वाले सांसदों की हिस्सेदारी बढ़कर 43 प्रतिशत और 29 प्रतिशत हो गयी थी। सच तो यह है कि चुनावों में आरोपियों की भागीदारी सनzwj;् 2004 से लेकर अब तक लगातार बढ़ती रही है। संसद का यह सच देश की सारी विधानसभाओं पर भी लागू होता है!
एक हकीकत यह भी है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रतिनिधि हर राजनीतिक दल में मिलते हैं। गुजरात के वर्तमान चुनावों में भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी, तीनों प्रमुख दलों ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। सबसे अधिक ऐसे उम्मीदवार ‘आप’ ने खड़े किये हैं- इकसठ। कांग्रेस के ऐसे 60 उम्मीदवार मैदान में हैं और भाजपा के 32 उम्मीदवार दाग़ी हैं।
सवाल उठता है कि राजनीतिक दलों के समक्ष ऐसी क्या मजबूरी होती है कि उन्हें दाग़ी उम्मीदवारों का सहारा लेना पड़ता है? यह सही है कि कुछ उम्मीदवारों पर राजनीतिक स्वार्थों के चलते आरोप लगाये जाते हैं, पर सब मामलों में तो ऐसा नहीं होता। यह भी सही है कि अपराध प्रमाणित होने तक व्यक्ति आरोपी ही होता है, पर कोई तरीका तो ऐसा खोजा ही जाना चाहिए कि गंभीर से अति गंभीर अपराधों के दोषियों पर कुछ प्रतिबंध लग सके। एक तरीका तो यह हो सकता है कि यदि राजनीतिक दल दाग़ी उम्मीदवारों के सहारे के बिना चुनाव नहीं लड़ सकते तो मतदाता अपने अधिकार का उपयोग करते हुए उन्हें जीतने न दे। मुश्किल है यह काम, पर स्थितियों को देखते हुए मतदाता में ऐसी जागरूकता ज़रूरी भी है। आखिर क्या मजबूरी होती है राजनीतिक दलों के सामने कि उन्हें अपने उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि के बावजूद उन्हें स्वीकारना ज़रूरी लगता है?
यह सवाल न्यायालय ने भी उठाया था। ऐसे एक मामले की सुनवाई के दौरान देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह आदेश दिया था कि राजनीतिक दलों को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को टिकट देने का कारण मीडिया और सोशल मीडिया में प्रचारित करना होगा। न्यायालय की एक दो सदस्यीय बेंच ने एक फैसले में यह आदेश सुनाया था और यह भी कहा था कि यदि कोई पार्टी ऐसा नहीं करती तो उस पर अवमानना का मामला चलेगा। यह निश्चित रूप से गंभीर चिंता की बात है कि सनzwj;् 2004 के मुकाबले 2019 में 82 प्रतिशत अधिक सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि वाले थे। यह आंकड़े इतना तो बतलाते ही हैं कि हमारी राजनीति अपराधों के सहारे चल रही है। यह दुखद और गंभीर चिंता का विषय है।
हाल ही में हमने संविधान दिवस मनाया है। निश्चित रूप से हमारा संविधान दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संविधानों में गिना जाता है, पर जैसा कि हमारे संविधान के प्रमुख शिल्पी डॉ. बीआर अम्बेडकर ने कहा था, संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह तभी अच्छे परिणाम देगा जब उसे लागू करने वाले अच्छे हों। अच्छे यानी योग्य हों, कुशल हों, साफ-सुथरी छवि वाले हों। संसद या विधानसभाओं में आपराधिक छवि वाले सदस्यों की संख्या का निरंतर बढ़ना, राजनीतिक दलों का ऐसे व्यक्तियों पर आश्रित होना और मतदाता का इस स्थिति को स्वीकार करना चिंता पैदा करने वाली बात होनी चाहिए। यह सचमुच दुर्भाग्य की बात है कि अपराध और राजनीति के रिश्ते देश के मतदाता को परेशान नहीं करते। यह स्थिति बदलनी ही चाहिए। राजनीतिक दल अपने स्वार्थों के चलते नहीं चाहेंगे कि स्थिति बदले, पर जागरूक मतदाता ऐसे उम्मीदवारों का बहिष्कार करके अवश्य स्थिति बदल सकते हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।