इंद्रजीत सिंह
लगता है लंपी त्वचा बीमारी फिलहाल चली तो गई परन्तु इससे पशुपालकों को जो तगड़ा आर्थिक झटका लगा है उसकी पीड़ा जाने में बहुत समय लगेगा। उत्तर पश्चिम के प्रदेशों की लाखों गाय व बैल इसकी चपेट में आ गए। गुजरात के अलावा राजस्थान, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश आदि में कुल मिलाकर लाखों दुधारू गाय मर चुकी और जो बीमारी के बाद बच गईं वह भी दूध से सूख गई हैं। यद्यपि सबसे ज्यादा मृत्यु दर राजस्थान में थी परन्तु हरियाणा व पंजाब में भी बहुत बड़ी संख्या में गाय मरी हैं। हरियाणा में यमुनानगर, अंबाला, सिरसा, फतेहाबाद, भिवानी आदि में लंपी का सर्वाधिक कहर देखा गया। लंपी स्किन डिजीज (एलएसडी) गत वर्षों के दौरान पहले भी कहीं-कहीं आती रही परंतु इसका गंभीर संज्ञान पशुपालन विभाग ने भी नहीं लिया।
यह देखा गया है कि जिन जिलों में बीमारी का प्रकोप ज्यादा था वहां पशु चिकित्सालयों में स्टाफ तैनात नहीं है। ग्रामीण पशु धन विकास सहायक एक महत्वपूर्ण पद होता है। हरियाणा के लंपी प्रभावित क्षेत्रों में 25-30 प्रतिशत पदों पर ही उनकी तैनाती है। लंपी से बनने वाले घावों में बैक्टीरिया संक्रमण को रोकने हेतु, फिनाइल, पट्टी और तो और लाल दवाई तक भी पशु चिकित्सालयों में उपलब्ध नहीं रही। इस संबंध में लंपी से हुई आर्थिक बदहाली के लिए क्या सरकार की जवाबदेही तय नहीं होनी चाहिए?
विडंबना है कि समय रहते इस बीमारी का संज्ञान लेकर नियंत्रित करने के कदम उठाने में केंद्र व राज्य सरकारों ने अपनी विफलता को अभी तक स्वीकार नहीं किया। यही नहीं बल्कि पीड़ित पशुपालकों को हुए नुकसान की पूर्ति की दिशा में सरकारी आर्थिक मदद दिए जाने का आज तक उल्लेख तक नहीं किया है। यह घोर संवेदनहीनता उसी ‘गौमाता’ के लिए है जिसका भरपूर दोहन करने वाली राजनीति आज सत्ता पर काबिज भी है।
यमुनानगर में एक डेयरी में 17 गायें मर गईं। इस जिले के हर गांव में गायों के मरने की औसत दर लगभग 8-10 आंकी गई है। करीब 8 लीटर दूध देने वाली एक गाय के मरने से लगभग 50 हजार रुपये की सीधी हानि होती है। दस हजार रुपये तक असफल इलाज में भी लग चुके होते हैं। अकेले गुजरात में एक लाख लीटर दूध प्रतिदिन का अभाव हुआ। राजस्थान में तीन से छह लाख लीटर प्रतिदिन की अभी बताई गई।
गांवों के छोटे-छोटे किसान और भूमिहीन परिवार भी एक या दो गाय पाल लेते हैं और दूध बेचकर अपनी आजीविका चलाते हैं। एकल महिला परिवार, भूमिहीन अनुसूचित जातियों या खेत मजदूर परिवारों में भी आम तौर पर गाय रखने की क्षमता है।
कोविड-19 की तरह लंपी त्वचा बीमारी का कारण भी वायरस ही है। बकरी व भेड़ को होने वाले चेचक से मिलता-जुलता वायरस ही है जिसे कैप्रिपाॅक्स वायरस कहते हैं। इसके संक्रमण से गाय ज्यादा शिकार होती हैं परंतु कहीं-कहीं भैंसों पर मामूली प्रभाव देखा गया है। आम पशुपालकों में इसके बारे में न केवल अनभिज्ञता है बल्कि तमाम तरह के अंधविश्वास और भ्रांतियां भी हैं। बहुत सारे लोगों ने पशुपालकों से डर के चलते दूध लेना बंद कर दिया। वे समझते हैं कि मनुष्यों को भी यह बीमारी लग सकती है जो कि सत्य नहीं है। वायरस संक्रमण के उपचार की अभी कोई दवा नहीं है। बकरी व भेड़ पाॅक्स वैक्सीन का ही प्रयोग इस बार भी किया गया।
यह बीमारी बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में अफ्रीका में पाई गई थी और बाद में एशिया व मध्य एशिया तथा अन्य देशों में पहुंच गई। इसे लंपी इसलिए कहा जाता है कि इससे पूरे शरीर की त्वचा पर लंप यानी गांठ हो जाती हैं। बीमार पशु को बुखार, अत्यधिक लार, मुंह के भीतर भी लंप, भूख का अभाव, दूध घटना, गर्भपात होना इत्यादि इसके मुख्य लक्षण हैं। समय पर बचाव के जतन न होने से गंभीर दशा में पशु की मृत्यु हो जाती है।
लंपी का संक्रमण मच्छर, कीचड़, ततैया, सार्वजनिक तालाब, चारे पर गिरने वाली लार से फैलता है। एक समय पर गांव के लोग 24 घंटे या अधिक अवधि तक तमाम तरह के आवागमन पर कड़ी पाबंदी लगाते थे। वह पशुओं की संक्रमित बीमारियों के लिए ही क्वारंटाइन की व्यवस्था थी। इस बार गौशाला और डेयरियों में ज्यादा गायों की मृत्यु हुई, क्योंकि यहां झुंड में पशु हैं और गौशालाओं की गाय कुपोषित और कमजोर होने के कारण बीमारियों को नहीं झेल पाती।
किसान संगठनों के दबाव में महाराष्ट्र सरकार ने ही आर्थिक सहायता प्रदान करने की घोषणा है। जिनकी गाय मरी हैं उन्हें 30000 रुपये राज्य सरकार और 1000 रुपये स्थानीय निकाय देगा। सरकार को हाल में हुई तबाही से सबक सीखना चाहिए। एक विशेष पैकेज की अभी जरूरत है। पशु धन के आर्थिक नुकसान के सही आकलन पर श्वेत पत्र जारी हो और प्रभावित पशुपालकों को आर्थिक सहायता दी जाए। साथ ही शत-प्रतिशत पशु धन का वैक्सीनेशन सुनिश्चित हो। सभी पशुओं का मामूली प्रीमियम पर बीमा हो, बैंक के कर्ज़ माफ हों, पशु चिकित्सालयों में पूरे डाक्टर व अन्य स्टाफ हो, बढ़े हुए लागत मूल्य के अनुसार दूध के रेट बढ़ाए जाएं। किसानों को को-ऑपरेटिव ताने बाने का निर्माण करना होगा।