योगेश कुमार गोयल
पंच पर्व महोत्सव दिवाली के बाद प्रति वर्ष प्रकृति की पूजा का महापर्व ‘छठ’ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। सूर्य को एकमात्र ऐसा भगवान माना जाता है जो वास्तव में हर किसी को दिखाई देते हैं और छठ पर्व पर सूर्य भगवान की ही पूजा होती है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाए जाने वाले इस चार दिवसीय उत्सव की शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल पक्ष सप्तमी को होती है और इस दौरान श्रद्धालु 36 घंटे का कठिन व्रत रखते हैं।
छठ पूजा की शुरुआत चतुर्थी के दिन ‘नहाय खाय’ से होती है। अगले दिन ‘खरना’ होता है, तीसरे दिन छठ पर्व का प्रसाद तैयार किया जाता है और स्नान कर अस्त होते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। सप्तमी को चौथे और अंतिम दिन उगते सूर्य की पूजा-आराधना के साथ इस महापर्व का समापन होता है। चूंकि सूर्योपासना का यह महापर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है, इसीलिए इसे छठ कहा जाता है।
उत्तर भारत और विशेषकर बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाने वाला सूर्योपासना का यह महापर्व सूर्य, उनकी पत्नी उषा और प्रत्यूषा, प्रकृति, जल, वायु और सूर्य की बहन छठी मैया को समर्पित है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार छठी माता को सूर्य देवता की बहन माना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार छठी मैया संतानों की रक्षा करती है और उनको लंबी आयु प्रदान करती है। कहा जाता है कि छठ पर्व में सूर्य की उपासना करने से वह प्रसन्न होकर घर-परिवार में सुख-समृद्धि, रोगमुक्ति, सम्पन्नता और मनोवांछित फल प्रदान करती है। उषा तथा प्रत्यूषा को सूर्य की शक्तियों का मुख्य स्रोत माना गया है, इसीलिए छठ पर्व में सूर्य तथा छठी मैया के साथ इन दोनों शक्तियों की भी आराधना की जाती है। प्रातःकाल में सूर्य की पहली किरण (उषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अर्घ्य देकर दोनों को नमन किया जाता है। पुराणों में पष्ठी देवी का एक नाम कात्यायनी भी है, जिनकी पूजा नवरात्र में षष्ठी को होती है। षष्ठी देवी को ही छठ मैया कहा गया है, जो नि:संतानों को संतान देती हैं और संतानों की रक्षा कर उनको दीर्घायु बनाती हैं।
छठ पर्व के प्रसाद में प्रायः चावल के लड्डू बनाए जाते हैं और बांस की टोकरी में प्रसाद तथा फल सजाकर इस टोकरी की पूजा की जाती है। व्रत रखने वाली महिलाएं सूर्य को अर्घ्य देने तथा पूजा के लिए तालाब, नदी अथवा घाट पर जाकर स्नान कर डूबते हुए सूर्य की पूजा करती हैं और अगले दिन सूर्योदय के समय सूर्य को अर्घ्य देकर पूजा करने के पश्चात प्रसाद बांटकर छठ पूजा का समापन होता है।
पर्यावरणविदों के अनुसार यह पर्व पर्यावरण अनुकूल हिन्दू त्योहार है, जो नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाने की प्रेरणा देता है। छठ पूजा के अवसर पर नदियों, तालाबों तथा अन्य जलाशयों के किनारे पूजा की जाती है, जिससे लोगों को ऐसे जलस्रोतों के आसपास साफ-सफाई रखने की प्रेरणा मिलती है। दरअसल धार्मिक मान्यताओं के अनुसार छठ पूजा साफ-सुथरी नदी, तालाबों या अन्य जलस्रोतों के किनारे ही की जाती है, इसीलिए पूजा से पहले इन जलस्रोतों के आसपास पूरी साफ-सफाई करने का विधान है।
छठ व्रत के संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। ऐसी ही एक कथानुसार प्राचीन काल में प्रियव्रत नामक एक राजा थे, जिनकी कोई संतान नहीं थी। एक दिन राजा की महर्षि कश्यप से भेंट होने पर महर्षि कश्यप ने पुत्र प्राप्ति के लिए उन्हें यज्ञ करने को कहा। यज्ञ के बाद महारानी मालिनी ने एक पुत्र को तो जन्म दिया लेकिन शिशु मृत ही पैदा हुआ। दुखी राजा ने मृत शिशु को श्मशान ले जाकर पुत्र वियोग में अपने प्राण त्यागने का भी निश्चय किया। तभी ब्रह्माजी की मानस कन्या देवसेना ने प्रकट होकर राजा से कहा कि हे राजन! मैं सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण षष्ठी कहलाती हूं, आप मेरी पूजा करें तथा लोगों को भी मेरी पूजा के लिए प्रेरित करें। राजा ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी को पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया, जिसके फलस्वरूप उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। मान्यता है कि उसी के बाद छठ पूजा की परम्परा शुरू हुई।
सूर्य को ज्योतिष विद्या में सभी ग्रहों का अधिपति माना गया है। इसीलिए मान्यता है कि यदि समस्त ग्रहों को प्रसन्न करने के बजाय केवल सूर्यदेव की ही आराधना की जाए तो कई लाभ मिल सकते हैं।