शहादतों से हासिल आज़ादी की कीमत समझें : The Dainik Tribune

शहादतों से हासिल आज़ादी की कीमत समझें

भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव

शहादतों से हासिल आज़ादी की कीमत समझें

कृष्ण प्रताप सिंह

कृष्ण प्रताप सिंह

सदियों पहले हमारी स्वतंत्रता छीन चुके गोरों के  खिलाफ सशस्त्र संघर्ष की मार्फत उसे हासिल करने के लिये प्राणपण से समर्पित तीन क्रांतिकारी नायकों—शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव को 1931 में आज ही के दिन हमसे छीन लिया गया था। अंग्रेजों ने लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी के लिए तय तारीख और वक्त से पहले ही उन्हें फांसी देकर उनके साथ अपने बनाये कई नियम-कायदों को भी शहीद कर दिया था।

इन नायकों द्वारा खुशी-खुशी अपने प्राण देकर अदा की गई स्वतंत्रता की यह कीमत कितनी जरूरी और बड़ी थी, इसे ठीक से समझने के सारे रास्ते उनकी शहादतों से बारह साल पहले 1919 में 13 अप्रैल को ऐन बैसाखी के दिन पंजाब के अमृतसर शहर में स्वर्ण मन्दिर के पास स्थित जलियांवाला बाग में हुए कांड की ओर जाते हैं। गोरे जनरल डायर ने उस दिन कुख्यात रॉलेट एक्ट के विरुद्ध उक्त बाग में एकत्रित पूरी तरह शांत व संयत भीड़ पर बर्बर पुलिस फायरिंग कराकर हज़ारों निर्दोषों को हताहत किया था।

इस नृशंसता ने देश के नवयुवकों को न सिर्फ गुस्से से भर दिया, बल्कि किसी भी कीमत पर स्वतंत्रता हासिल करने के लिए बेसब्र कर दिया था। इसके अगले ही बरस महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन शुरू किया तो वे बड़ी उम्मीदों के साथ उसमें सक्रिय हुए थे। कई जगह तो उन्होंने आगे बढ़कर समूचे आन्दोलन को अपने हाथ में ले लिया था। लेकिन चार फरवरी, 1922 को हुए चौरी-चौरा कांड (जिसमें 23 पुलिसकर्मी गुस्साई भीड़ द्वारा थाने में लगाई गई आग से जलकर मर गये थे) के बाद महात्मा ने अचानक आंदोलन वापस ले लिया तो ज्यादातर युवकों का अहिंसक स्वतंत्रता संघर्षों से मोहभंग हो गया। फिर तो वे चंद्रशेखर आज़ाद की हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़कर सशस्त्र संघर्षों के जरिये स्वतंत्रता के सपने देखने लगे।

इन संघर्षों के लिए धन जुटाने हेतु नौ अगस्त, 1925 को उन्होंने पं. रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में लखनऊ में काकोरी के पास पैसेंजर ट्रेन रोककर उसमें ले जाया जा रहा सरकारी खजाना लूट लिया तो गोरी सरकार उन्हें सबक सिखाने को आतुर हो उठी। जांच व मुकदमे के बेहिसाब नाटक के बाद उसने राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को 17 दिसम्बर, 1927 को, तो रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां व रौशन सिंह को 19 दिसंबर, 1927 को क्रमशः गोंडा, गोरखपुर, फैजाबाद और इलाहाबाद की मलाका जेल में फांसी देकर शहीद कर दिया, कई साथियों को लम्बी-लम्बी सजाएं दीं, तो अधीर युवकों का बचा-खुचा धैर्य भी जाता रहा।

30 अक्तूबर, 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरुद्ध उग्र प्रदर्शन पर हुए भीषण लाठीचार्ज में आई गंभीर चोटों के चलते 17 नवम्बर, 1928 को कांग्रेस के गर्मदल के नेता पंजाब केसरी लाला लाजपतराय का निधन हो गया, तो युवकों के अधैर्य की आग में और घी पड़ गया। वे पंजाब केसरी के इस कथन को प्रमाणित करने के लिए प्राणों की बाजी लगाने पर उतर आये कि ‘मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी।’

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी ने फौरन पंजाब केसरी की मौत का बदला लेने की ठान ली। लेकिन 17 दिसम्बर, 1928 को उन पर प्राणघातक लाठीचार्ज के लिए जिम्मेदार पुलिस सुपरिंटेंडेंट जेम्स ए स्कॉट की हत्या की योजना पर अमल के दौरान भगत सिंह व राजगुरु ने गफलत में उसके सहायक जॉन पी सांडर्स को भून डाला।

दरअसल, हुआ यह कि लाला जी के निधन के ठीक एक महीने बाद वे स्कॉट को मारने के इरादे से लाहौर स्थित पुलिस हेडक्वार्टर के बाहर पहुंचे तो स्कॉट की जगह सांडर्स बाहर निकल आया। गलत पहचान के कारण भगत सिंह व राजगुरु ने उसे ही स्कॉट समझकर मार गिराया। उस पर पहली गोली राजगुरु ने चलाई, दूसरी भगत सिंह ने और उसके घायल होकर गिर जाने के बाद भी वे उस पर गोलियां चलाते रहे। इस बीच सिपाही चानन सिंह भगत सिंह को पकड़ने बढ़ा तो हालात पर नजर रख रहे चन्द्रशेखर आजाद ने उसे भी मौत के घाट उतार दिया।

इसके बाद आज़ाद साधुवेश धारण करके मथुरा चले गये, जबकि भगत सिंह कलकत्ता। पुलिस को चकमा देने के लिए भगत सिंह ने रौबीले अफसर के रूप में ‘पत्नी, बेटे व अर्दली के साथ’ ट्रेन के फर्स्ट क्लास में यात्रा की। क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी श्रीमती दुर्गा वोहरा (जिन्हें क्रांतिकारी दुर्गा भाभी कहा करते थे) उनकी पत्नी बनकर साथ गईं, जबकि राजगुरु अर्दली बनकर। दुर्गा भाभी का तीन साल का बेटा उनका बेटा बना।

लेकिन ‘बहरों को सुनाने के लिए जोरदार धमाके की जरूरत’ महसूस करते हुए भगत सिंह ने आठ अप्रैल, 1929 को बटुकेश्वर दत्त के साथ सेंट्रल असेंबली में बम फेंके और भाग जाने के बजाय खुद को गिरफ्तार कराने का विकल्प चुन लिया तो पुलिस ने बिना देर किये उनको लाहौर की मियांवाली जेल में शिफ्ट कर दिया, ताकि वे सांडर्स हत्याकांड में मुकदमे का सामना कर सकें। 30 सितम्बर, 1929 को नागपुर से पुणे जाते समय राजगुरु भी पुलिस के हत्थे चढ़ गये।

जेल में अधिकारियों ने भगत सिंह की उन्हें व अन्य क्रांतिकारी कैदियों को ‘राजनीतिक बंदी’ मानने और पुस्तकें व समाचारपत्र उपलब्ध कराने की मांग ठुकरा दी तो उन्होंने जेल में बन्द अपने साथियों के साथ 15 जून से 5 अक्तूबर, 1929 तक 112 दिन लंबी भूख हड़ताल कर अपना गांधीवादी रूप भी दिखाया।

पुलिस ने जहां भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव समेत 14 लोगों को सांडर्स की हत्या का मुख्य अभियुक्त बनाया, वहीं भगत सिंह ने मुकदमे की प्रायः सारी सुनवाई में अदालत को क्रांतिकारी विचारों के प्रचार के मंच की तरह इस्तेमाल किया। उन्होंने निर्भय होकर मान लिया कि उन्होंने व उनके क्रांतिकारी साथियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है जो उनके बाद भी जारी रहेगा। राजगुरु व सुखदेव के साथ उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई तो तीनों ने मांग की थी कि उन्हें फांसी देने के बजाय सैनिक टोली के हाथों गोलियों से उड़वा दिया जाये, क्योंकि वे युद्धबन्दी हैं। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को असेम्बली बम कांड में उम्रकैद की सज़ा भी सुनाई गई थी। हालांकि उनके फेंके बमों से कोई जान नहीं गई थी, उन्होंने ऐसी जगह बम फेंके थे, जहां कोई नहीं था।

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