योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
फक्कड़ मस्त कबीर ने जो कुछ देखा, स्वयं जिसका अनुभव किया, उसी को अपनी साखियों में संजोकर हमें दे दिया ताकि हम भी उस फकीर के अनुभवों से कुछ सीख सकें। यही वजह है कि उनकी रचनाएं आज भी खरी और प्रासंगिक हैं। कबीर की एक बहुत प्यारी साखी सभी ने पढ़ी या सुनी होगी, जो इस प्रकार है :-
कबीरा गरब न कीजिए, काल गहे कर केस।
ना जाने कित मारिहै, क्या घर, क्या परदेस॥
लेकिन जाने कितने ही संत और ज्ञानी यही कहते-कहते चले गए कि गर्व यानी मिथ्या अभिमान हमारा सबसे बड़ा शत्रु है, जो हर मनुष्य को भटकाता है और आदमी अपने क्षणभंगुर जीवन को भूल कर अभिमान के झूले में झूलने लगता है। वह सच को जानते हुए भी अनभिज्ञ बना रहता है।
जरा-सा धन आ जाए या फिर किसी को शारीरिक बल मिल जाए या कोई बड़ा पद मिल जाए तो तुरन्त आदमी को यह अभिमान का दैत्य जकड़ लेता है। वह सच्चाई को नजरअंदाज करके भ्रम में जीता रहता है। संत कवि तुलसीदास ने कहा है :-
क्षुद्र नदी भरि चली उतराई।
जस थोरेउ धन खल इतराई।
जब बहुत ज्यादा वर्षा हो जाती है तो छोटी-छोटी नदियां भी खूब उभार लेकर चलती हैं, वैसे ही दुष्ट प्रकृति का आदमी भी थोड़ा-सा धन पाते ही इतराने लगता है। यानी अपनी औकात को भूल कर अभिमान के झूले पर चढ़ कर खूब झूलता है और अंत में गिर जाता है। सही मायने में अभिमान अज्ञानता का ही प्रतीक है।
‘अभिमान’ मानव को कैसे विवेकहीन बना देता है, इसका बड़ा ही सुंदर और प्रेरक दृष्टांत हमारे शास्त्रों में मिलता है, जिसे पाठकों के संज्ञान में आना चाहिए ताकि अभिमान से बचा जा सके। दृष्टांत इस प्रकार है :-
शारीरिक अपूर्णता के चरमोत्कर्ष के प्रतीक महर्षि अष्टावक्र प्रसिद्ध विद्वान ऋषि कहोड़ के पुत्र और महर्षि उद्दालक के दौहित्र थे। ऋषि कहोड़ राजर्षि जनक की विद्वत सभा में आचार्य बंदी से शास्त्रार्थ में पराजित होने पर शास्त्रार्थ के नियमानुसार आचार्य बंदी के दास हो गए थे। अपने विद्वान पिता को दासत्व के अपमान से मुक्ति दिलाने के लिए मात्र 12 वर्ष के बालक अष्टावक्र ने जनक की विद्वत सभा में आचार्य बंदी से शास्त्रार्थ कर जब आचार्य बंदी को पराजित कर दिया, तब पराजित आचार्य बंदी अष्टावक्र के समक्ष दासभाव से खड़े हो गए और उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार करते हुए बालक अष्टावक्र से कहा—आप जो भी दंड देंगे, वह मुझे स्वीकार है।
इसके उपरांत अष्टावक्र ने विनम्र भाव से कहा—आचार्य, मैं आपको मुक्त करता हूं। आज यही आपका दण्ड है आचार्य, क्योंकि पराजय तो स्वयं में ईश्वर द्वारा दिया गया एक कठोर दण्ड होता है। जो पराजित हो जाए, उसे दंडित करना सही मायने में एक अमानवीय व्यवहार है। आपने तो निश्चित रूप से यह अपराध किया है, परंतु मैं यह अपराध नहीं करूंगा।
सिर झुकाए खड़े आचार्य बंदी से अष्टावक्र ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा—मैं बस यही कहूंगा कि जो ज्ञान व्यक्ति में घमंड भर दे, वह ज्ञान पूर्णतः निरर्थक है। आप अभिमान जैसे भौतिक दुर्गुणों से भरे हुए हैं। मैं आपको क्षमा करते हुए अपने दासत्व से मुक्त करता हूं, परंतु याद रखें आचार्य, स्वयं के दासत्व से मुक्त होने के लिए आपको कठिन प्रयत्न करना होगा। हे आचार्य, मनुष्य का स्वयं के दासत्व यानी अभिमान से मुक्त हो जाना ही सच्चा ज्ञान होता है। महर्षि अष्टावक्र ने आगे स्पष्ट करते हुए कहा कि मैं यहां आपको पराजित करने नहीं आया था, बल्कि अपने विद्वान पिता को आपके दासत्व से मुक्ति दिलाने आया था, क्योंकि पिता को दासत्व से मुक्ति दिलाना ही पुत्र का प्रथम कर्तव्य होता है। मैं यहां पराजय विजय से परे महज पुत्र का दायित्व निभाने के लिये आया था।
शारीरिक अपूर्णता के चरमोत्कर्ष के प्रतीक अष्टावक्र का यह दृष्टान्त हमारी आंखें खोलने के लिए काफी है। उनकी कही बातें आज भी सटीक हैं। निस्संदेह, ऐसी विद्वत्ता किस काम की, जो दूसरे विद्वान को ‘दास’ बनाकर स्वयं को बड़ा समझने का अभिमान देती हो? यह सोच विद्वता की धारणा के ही विरुद्ध है।
यहां अष्टावक्र द्वारा आचार्य बंदी को क्षमा करके जो व्यवहार किया गया, उसने आचार्य के हृदय में बैठे उनके शत्रु घमंड से उन्हें मुक्ति दिला दी और वे सचमुच ही आचार्य बन गए। हमारे शास्त्रों में तो कहा ही गया है :-
विद्या ददाति विनयं, विनायत याति पात्रताम।
अर्थात् विद्या मनुष्य को विनय देती है और विनय से पात्रता आती है। आज तो न जाने क्या हो गया है कि हर आदमी जैसे अभिमान के रथ पर सवार होकर उड़ा जा रहा है। हमारी विनम्रता कहीं खो गई है। जरा-सा कुछ हो जाए तो तुरन्त हमारे मन में कुंडली मारकर बैठा यह अभिमान का सांप फुंकारने लगता है और हम आपा खो बैठते हैं।
भूलें सब अभिमान को, हो विनम्र व्यवहार।
क्षमा हमारा धर्म हो, कर्म सभी से प्यार।