अभी कुछ महीने पहले की ही बात है जब हमने अवसाद के प्रति ‘हम होंगे कामयाब’ के तराने छेड़ दिए थे। सुबह सवेरे प्रातः स्मरण के रूप में व्हाट्सएप पर सकारात्मक जीवन के संदेश भरपल्ले आने लगे। मैमोरी क्लियर करते-करते बंदा खुद डिस्चार्ज हो जाता था। कुछ दिनों तक अवसाद के प्रति चली चर्चा को देख यों लगा भले जीडीपी में मुंह की क्यों न खाई हो लेकिन हैप्पीनेस इंडेक्स में हम छलांग मार फिनलैंड से भी ऊपर आ जायेंगे। ‘दिल के अरमां आंसुओं में बह गए’ जब अवसाद के विरुद्ध छेड़ी तान में विषकन्या वाले सुर सुनाई पड़ने लगे। विषकन्या पर भी बात कुछ ज्यादा दिन रुकी नहीं। अब रुकती भी भला कैसे? एकता कपूर ने अपने धारावाहिकों में किसी विषय को छोड़ा जो नहीं था।
विषकन्या एक्सप्रेसवे पर नशेड़ी, गंजेड़ी टोल नाकों को पार करते हुए एनसीबी चौराहे से आगे बीएमसी की जेसीबी तक खबरों की सड़क तैयार थी। कोलंबस जैसे अमेरिका की खोज के लिए भटके होंगे वैसे ही सनसनी खबरों के पीछे कैमरे भाग रहे थे। बापू के सत्य के साथ मेरे प्रयोग की तर्ज पर खबरिया चैनल टीआरपी के साथ मेरे प्रयोग में जुटे थे। एक चैनल बोला—सबसे पहले हम बता रहे हैं, दूसरा चैनल बोला—पहले वाले से भी पहले हम बता रहे हैं, एक तीसरा चैनल भी था, जिसका दावा था कि वह पांच मिनट बाद क्या होगा, यह खबर भी पहले बता रहा है। पहला और दूसरा विश्व युद्ध किन्हीं भी कारणों से हुआ हो, किन्तु अगला विश्व युद्ध टीआरपी के लिए होना तय माना जाना चाहिए।
टीआरपी की चादर ओढ़े खबरें एक्सक्लूसिव के पथ पर बढ़ती जा रही थीं। एक दिन अचानक अवसाद, विषकन्या खंड काव्य के बाद नशा महाकाव्य का आरम्भ हो गया। एंकर की अभिनय कला से प्रेरित होकर टीवी के सामने बैठा बच्चा ‘मुझे चॉकलेट दो, मुझे लॉलीपॉप दो’ की जिद करने लगा। बच्चों की स्थिति तो यह हो चली है कि राज्य और उनकी राजधानी के नाम भले न पता हों, किंतु ड्रग्स और उनके विविध प्रकारों पर वे लंबा निबंध लिख सकते हैं।
खबर नशे की है या खबर सुनाने वाले खबरों के नशे में हैं, यह तय कर पाना बड़ा मुश्किल हो गया है। वैसे भी अभी खबरों को और जलील होना था, सो ‘नॉटी’ से लेकर ‘उखाड़ दिया’ तक अप्रोच रोड तैयार थी। इसके बाद स्वच्छ भारत अभियान के बावजूद साफ होने से शेष रही ‘नाली’ और फिर छेद वाली थाली टीआरपी के पैमानों पर कामयाब रही। कंगना के खनखन में पायल की झनझन भी शामिल हो गई। खनखन और झनझन की ‘ध्वनि’ के आगे किसानों के ‘मत’ की खबरें शून्य साबित हुईं। लॉकडाउन में मारे गए मजदूरों का डाटा, गरीब की रसोई में आटा, नौजवान के हाथ से जाता काम, टमाटर-आलू के बढ़ते दाम जैसी खबरों के भाग्य में संघर्ष ही है।