देश की लाखों की सेना के वेतन, पेंशन व सुविधाओं के भारी-भरकम सैन्य बजट पर नियंत्रण हेतु केंद्र की अग्निपथ योजना लागू करने की अधिसूचना के बाद भी विवाद नहीं थमा। सरकार ने तीनों सेनाओं के शीर्ष अधिकारियों के जरिए दो टूक कहा कि योजना से अब पीछे हटने का कोई सवाल नहीं। कहा जा रहा कि हिंसक आंदोलन थमने के बावजूद भविष्य में इस स्वतःस्फूर्त आंदोलन के राजनीतिकरण से सेना के मनोबल पर तो असर पड़ेगा ही, एक बड़ी सैन्य शक्ति वाले भारत की प्रतिष्ठा पर भी आंच आ सकती है।
बहरहाल, आश्वासनों के बाद भी योजना से उपजा देशव्यापी विवाद जल्द थमने के आसार कम हैं। मात्र एक सप्ताह के भीतर ही सरकार की ओर से अग्निपथ योजना के नौजवानों के लिए कई रियायतों की घोषणा से साफ है कि नई भर्ती नीति की घोषणा के पहले न तो योजना के विरोध का अंदेशा लगाया गया और न ही कमजोरियों पर सैन्य विशेषज्ञों व पूर्व सैन्य अधिकारियों के साथ चिंतन-मंथन हुआ। मोदी सरकार में राज्य मंत्री व पूर्व थल सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह ने सार्वजनिक तौर पर स्वीकारा कि योजना बनाने की प्रक्रिया में वे खुद शामिल नहीं थे, जो बताता है कि सेना प्रमुख जैसे शीर्ष पद पर रहे अपने मंत्री से ही सरकार और सेना के अधिकारियों ने विमर्श नहीं किया।
कारगिल युद्ध के दौरान सेना मुख्यालय में आपरेशन से जुड़े रहे लेफ्टिनेंट जनरल (रि.) मोहन भंडारी कहते हैं कि ‘अग्निपथ’ मौलिक तौर पर सरकार की ही योजना है। उसकी कमियों के बारे में जो कुछ भी सवाल उठे हैं, उनके जवाब तीनों सेनाओं के अधिकारियों के बजाय रक्षा मंत्री या रक्षा सचिव को देने चाहिए। सरकार द्वारा बिना ठोस व गंभीर मंथन के योजना बनाने और सेना को सरकार का बचाव करने के लिए मीडिया के सामने उतारने से गलत परंपरा डाली जा रही है। आलोचकों व नौजवानों के विरोध के स्वरों की तसल्ली से सुनवाई का काम सरकार को करना चाहिए ।
हालांकि सरकार का दावा है कि पूर्व व वर्तमान सैन्य विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ विगत दो साल से मंथन हुआ। विशेषज्ञों का कहना है कि संवेदनशील मुद्दों पर गहराई से मंथन हेतु विशेष कमेटियां और संसदीय विमर्श का रास्ता अपनाना चाहिए था।
निस्संदेह भारत के पड़ोस का सुरक्षा वातावरण लगातार आक्रामक हो रहा है। युद्ध की महंगी तकनीकों के साथ नए साजो-सामान व अत्याधुनिक लड़ाकू विमानों जैसी चीजें बहुत महंगी होना एक अलग चिंता है। निस्संदेह, 2024 के आम चुनाव में बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा बनेगा। आर्थिक तंगी और संसाधनों व निवेश में गिरावट की मार झेल रही सरकार गत आठ साल में रिटायर लोगों की खाली जगहों को भरना तो दूर, आंशिक तौर पर भी नई भर्तियां नहीं कर पा रही। बेरोजगारी दूर करने का दारोमदार सेना के कंधों पर आ गया है। अग्निवीरों के लिए जो भर्तियां निकलेंगी, उनमें में 4 साल तक सेना में काम करने के बाद जब वे घरों को लौटेंगे तो फिर से नया जीवन शुरू करने की सरकार की ओर से की जा रही घोषणाओं पर उनको कोई भरोसा नहीं। अब तक के आंकड़े बताते हैं कि मात्र 2 प्रतिशत पूर्व सैनिकों को ही इच्छित रोजगार मिल सका है। पलायन की मार झेल रहे सैन्य बहुल उत्तराखंड जैसे राज्यों की अपनी समस्याएं हैं।
नए तरह की सामरिक चुनौतियां और बदलते दौर में अत्याधुनिक टेक्नाेलॉजी ने युद्ध की विधाओं और तरीकों को भी बदल दिया है। भविष्य के युद्धों को जमीन से जमीन तक परंपरागत तरीकों से लड़ने के बजाय नई तकनीकों से लड़ा जाएगा। जाहिर है कि पैदल सेना की तादाद में कटौती करना वक्त की मांग है। सरकार कटघरे में इसलिए है क्योंकि योजना के बारे में विशेषज्ञों के साथ कभी कोई विचार-विमर्श नहीं कराया गया। कोविड के बहाने 2020 के पहले से सेना में सिपाहियों की भर्ती प्रक्रिया को रोक दिया गया। चुनावी सभाओ में बेरोजगार नौजवानों के लिए भर्ती रैलियां आयोजित कराने के नाम पर खूब तालियां पिटीं।
छह साल पहले की नोटबंदी के बाद उत्तर भारत खास तौर पर बिहार व पूर्वी यूपी में छात्रों व नौजवानों में बेरोजगारों की लाइनों को और भी लंबा कर दिया। चूंकि सरकार बाकी निजी क्षेत्रों में रोजगार के अवसर पैदा करने में नाकाम रही है इसलिए सरकारी नौकरियों की ओर ही ज्यादातर युवा व उनके माता-पिता नजरें गड़ाए हुए हैं। सेना की नौकरी में सबसे बड़ा आकर्षण है रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली पेंशन का। बाकी सरकारी नौकरियों में एनडीए की अटल सरकार द्वारा 2004 के बाद हुई भर्तियों में पेंशन का प्रावधान ही खत्म कर दिया गया। निजी क्षेत्र में नौकरी की गारंटी या सामाजिक सुरक्षा का पूरा ताना-बाना हायर एंड फायर में पहले ही तब्दील हो चुका।
पिछले दो-ढाई दशक से आईटी सेक्टर के बड़े हब नोएडा, गुड़गांव, बंगलूरु, पुणे, हैदराबाद आदि कई जगहों पर उभरे हैं। जाहिर है ये जगहें पढ़े-लिखे नौजवानों के लिए बेहतरीन भविष्य व करिअर बनाने के केंद्र के तौर पर स्थापित हुए हैं। इसी तरह बड़े और महंगे बिजनेस स्कूलों में प्रवेश पाने के लिए मोटी रकम देकर कोचिंग के लिए दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में जाना दूर की कौड़ी है। ऐसी सूरत में ग्रामीण भारत के दसवीं और इंटर पास बच्चों के पास सुरक्षित रोजगार के लिए सेना और दूसरे अर्धसैन्य बलों में भर्ती के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता। ग्रामीण भारत में बेरोजगारी बढ़ने का एक और बड़ा कारण यह भी है कि छोटे किसानों के पास परिवार के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त खेती नहीं रह गई। ऐसे में किसान कम आयु में ही बच्चों को सेना में भेजने को ही सर्वोच्च प्राथमिकता बनाते हैं।
निस्संदेह, अग्निवीरों के लिए सामाजिक अशांति के बीच जबरन कैंप लगाने के सार्थक परिणाम नहीं निकलेंगे। आखिर जो नौजवान भर्ती होंगे वे हमारे देश की सीमाओं की सुरक्षा के ढांचे में काम करेंगे। सेना में वर्षों से काम करने वाले सैनिकों के साथ उन्हें प्रशिक्षण भी लेना है। पूरी संवेदना के साथ कदम आगे बढ़ाने की जरूरत है।