रिपोर्ट ने जो सुझाव दिए हैं उनमें राज्य जलवायु लचीलापन कोष, हर जिले में जलवायु जोखिम मानचित्रण, हरित उद्योगों और कृषि-वानिकी को बढ़ावा तथा डिजिटल तकनीक द्वारा प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली हैं।
भारत की विकास यात्रा आज दो विरोधी धाराओं के बीच खड़ी है—एक ओर शिक्षा, स्वास्थ्य तथा सामाजिक कल्याण में प्रगति और दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली विनाशकारी असुरक्षा। केरल, तमिलनाडु, सिक्किम और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य, जो मानव विकास सूचकांक में देश का नेतृत्व करते हैं, अब इस द्वंद्व के केंद्र में हैं। ऐसे समय में, हिमाचल प्रदेश मानव विकास रिपोर्ट 2025, जिसे संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के साथ तैयार किया गया है, पूरे भारत के लिए एक दिशासूचक दस्तावेज़ के रूप में उभरकर सामने आई है। यह ऐसी पहली रिपोर्ट है, जिसमें मानव विकास को जलवायु जोखिमों के साथ जोड़ा गया है।
हिमाचल ने का मानव विकास सूचकांक 0.78 है, जो राष्ट्रीय औसत 0.63 से अधिक है, लेकिन अब जलवायु संकट इस प्रगति के लिए एक बड़ा खतरा बन गया है, जो न केवल हिमाचल प्रदेश, बल्कि पूरे देश के लिए चेतावनी है। हिमाचल का अनुभव अकेला नहीं है। केरल का सामाजिक मॉडल बाढ़ और तटीय क्षरण से जूझ रहा है। तमिलनाडु के औद्योगिक नगरों पर जलसंकट और प्रदूषण का दबाव है। ओडिशा और गुजरात राज्यों को चक्रवातों और हीटवेव से भारी आर्थिक नुकसान हो रहा है। उत्तराखंड और सिक्किम पर्यटन, जलविद्युत और पर्यावरण संतुलन के बीच झूल रहे हैं। यह सब मिलकर संकेत देते हैं कि भारत का अगला विकास अध्याय केवल आर्थिक नहीं बल्कि जलवायु-सक्षम मानव विकास का होना चाहिए।
रिपोर्ट में, हिमाचल की बुजुर्ग होती आबादी, युवाओं का पलायन, जल संकट और आपदाएं—को चिन्हित किया गया है। देश-भर में बुजुर्गों का प्रतिशत 2050 तक 20 प्रतिशत तक पहुंच सकता है, जिससे वृद्ध स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक सुरक्षा का दबाव बढ़ेगा। खेती की घटती आय और सीमित औद्योगिकीकरण युवाओं को गांवों से शहरों की ओर धकेल रहा है। यह पलायन, हिमाचल की तरह, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कमजोर बना रहा है। वहीं, पंजाब के सूखते भूमिगत जल, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा की सूखे से जूझती जमीन, गंगा बेसिन का प्रदूषण और हिमाचल की सूखती धाराएं—सभी एक ही कहानी कहते हैं। इसके लिए समाधान स्थानीय स्तर पर होने चाहिए।
शहरी दबाव के चलते जहां शिमला, सोलन और मंडी जैसे शहर कचरा, ट्रैफिक और आवासीय दबाव से त्रस्त हैं, वहीं बेंगलुरु, पुणे और गुवाहाटी जैसे महानगर भी इसी असंतुलन के शिकार हैं। इसके लिए एकीकृत शहरी नियोजन और पर्यावरण-संवेदनशील निर्माण नीति की जरूरत है।
पिछले पांच वर्षों में हिमाचल को आपदाओं से लगभग 46,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है, जो राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 4 प्रतिशत है। वर्ष 2023 में भारत-भर में 2,800 से अधिक लोगों की मृत्यु और 1.4 लाख करोड़ की क्षति जलवायु-जनित घटनाओं से हुई। हिमाचल का 75,000 करोड़ रुपये का ऋण बोझ यह दर्शाता है कि छोटे राज्यों की वित्तीय स्थिति कितनी नाजुक है। रिपोर्ट ने ग्रीन बॉन्ड, आपदा बीमा और कार्बन क्रेडिट जैसे उपाय सुझाए हैं। गुजरात ने पहले ही हरित ऊर्जा बॉन्ड जारी किए हैं और ओडिशा ने अपने बजट में जलवायु व्यय को शामिल किया है। हिमाचल का यह दृष्टिकोण बताता है कि हर राज्य यदि अपनी वित्तीय नीति को हरित और लचीला बनाए तो विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन संभव है।
हिमाचल की सबसे बड़ी ताकत उसका सामाजिक समावेशन है। 58 प्रतिशत पंचायत सीटें महिलाओं के पास हैं, जिससे नीतिगत निर्णयों में लैंगिक दृष्टिकोण जुड़ गया है। अनुसूचित जाति-जनजाति समुदायों के लिए लक्षित योजनाएं और सार्वभौमिक स्वास्थ्य एवं शिक्षा सेवाएं इसे एक मानव-केंद्रित शासन मॉडल बनाती हैं। यही समावेशन केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों की सफलता का भी आधार है। भारत के सुरक्षित भविष्य के लिए यह मॉडल राष्ट्रीय स्तर पर अपनाया जाना चाहिए।
रिपोर्ट ने जो सुझाव दिए हैं उनमें राज्य जलवायु लचीलापन कोष, हर जिले में जलवायु जोखिम मानचित्रण, हरित उद्योगों और कृषि-वानिकी को बढ़ावा तथा डिजिटल तकनीक द्वारा प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली हैं। हिमाचल का अनुभव बताता है कि पर्यावरण-अनुकूल पर्यटन, बागवानी और जैविक खेती न केवल रोजगार दे सकते हैं बल्कि पारिस्थितिकी की रक्षा भी करते हैं। इसे सिक्किम, मेघालय और नागालैंड जैसे राज्यों ने सफलतापूर्वक अपनाया है।
भारत जब सतत विकास लक्ष्यों और 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है, तब मानव विकास और जलवायु अनुकूलन का एकीकरण नीति का मुख्य आधार होना चाहिए। हिमाचल की नीतियां, जो सामाजिक कल्याण को पर्यावरणीय आचार-संहिता से जोड़ती हैं, अन्य राज्यों के लिए आदर्श बन सकती हैं। केंद्र सरकार की मिशन लाइफ पहल तभी सार्थक होगी जब हिमाचल जैसे राज्यों के उदाहरण उसे जमीनी ताकत दें।
हिमाचल प्रदेश मानव विकास रिपोर्ट 2025 बताती है कि शिक्षा, समानता और पर्यावरण-संवेदनशील शासन के सहारे सीमित संसाधनों में भी चमत्कारिक परिणाम हासिल किए जा सकते हैं।
लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।

