और भी वजहें हैं जनतंत्र के अपमान की : The Dainik Tribune

और भी वजहें हैं जनतंत्र के अपमान की

और भी वजहें हैं जनतंत्र के अपमान की

विश्वनाथ सचदेव

कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी ने लंदन में जाकर आखिर ऐसा क्या कह दिया है कि सत्तारूढ़ दल बौखला गया है? देश के प्रधानमंत्री से लेकर संसद के दोनों सदनों में भाजपा के नेता एक स्वर में राहुल गांधी पर देश के जनतंत्र और देश की ‘130 करोड़ जागरूक जनता’ का अपमान करने का आरोप लगा रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि राहुल गांधी अपने किये-कहे के लिए ‘माफी’ मांगें। उन्हें यह माफी इतनी ज़रूरी लग रही है कि संसद में महत्वपूर्ण बजट सत्र की कार्यवाही तक की परवाह नहीं है।

लंदन में विभिन्न आयोजनों में राहुल गांधी ने जो कुछ कहा, वह दुनियाभर में पढ़ा-सुना गया है। सच तो यह है कि सूचना-क्रांति के आज के दौर में कहीं भी, कुछ भी कहा जाये वह देखते-देखते सार्वजनिक संपत्ति बन जाता है। वैसे राहुल गांधी के इस बयान में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उन्होंने भारत की संसद या भारत में जन-सभाओं में नहीं कहा हो। कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक की अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में वह लगातार इसी तरह की, कहना चाहिए यही बातें कहते रहे हैं। देश में जनतांत्रिक मूल्यों या परंपराओं के क्षरण की बात हो या स्वायत्त एजेंसियों के दुरुपयोग की, इनसे संबंधित आरोप राहुल गांधी समेत विपक्ष के लगभग सभी नेता अरसे से लगाते रहे हैं। होना तो यह चाहिए था कि सत्तारूढ़ दल विपक्ष से इन आरोपों के प्रमाण मांगता या फिर अपनी ओर से ऐसे तथ्य सामने रखता जो विपक्ष के आरोपों को ग़लत सिद्ध करते। या फिर लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति राहुल गांधी से यह पूछते कि कब-कब उन्हें संसद में बोलने नहीं दिया गया अथवा सदन में माइक बंद किया गया। जनतांत्रिक व्यवस्था में यह बहुत गंभीर आरोप है। अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार जनतंत्र में नागरिक के मौलिक अधिकारों में गिना जाता है। जनता के मौलिक अधिकारों का हनन किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं है। आपातकाल के दौरान तत्कालीन सत्तारूढ़ दल की नेता इंदिरा गांधी ने यही अपराध किया था, और तब देश की जनता ने उन्हें इस बात की सज़ा भी दी थी। आज राहुल गांधी सत्तारूढ़ दल पर ऐसा ही आरोप लगा रहे हैं। आज जिस तरह सरकारी एजेंसियों को विपक्ष को प्रताड़ित करने का हथियार बनाये जाने के आरोप लग रहे हैं, उसका मुकाबला ‘माफी मांगो’ शोर करने से नहीं हो सकता।

आज सत्तारूढ़ दल को यह बुरा लग रहा है कि कांग्रेस पार्टी का नेता विदेश की धरती पर जाकर देश के जनतंत्र का अपमान कर रहा है। अच्छी बात है यह कि सत्ता में बैठे लोगों को देश के गौरव की चिंता हो रही है। पर क्या देश का अपमान मात्र यह कहने से ही हो जाता है कि हमारे यहां जनतांत्रिक परंपराओं को तोड़ा जा रहा है? हां, ऐसा होने से देश का अपमान होता है, पर इसके लिए दोषी वे हैं जिनके कंधों पर हमने इन परंपराओं के पालन की ज़िम्मेदारी सौंपी है।

देश या जनतंत्र का अपमान जिन बहुत-सी बातों से होता है उनमें ग़रीबी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार के मुद्दे भी आते हैं। आज हमारा देश आर्थिक ताकत के रूप में उभर रहा है। आज हमारे देश की तरफ दुनिया उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है। अच्छी लगती हैं ये बातें। लगनी भी चाहिये। पर क्या यह भी हकीकत नहीं है कि देश की अस्सी करोड़ जनता को मुफ्त खाद्यान्न देना पड़ रहा है? है यह उपलब्धि, पर इसके साथ ही यह सवाल भी जुड़ा है कि देश की अस्सी करोड़ आबादी की स्थिति ऐसी क्यों हो गयी कि उसे दो समय के भोजन के लिए सरकारी अनुकंपा पर जीना पड़ रहा है? सरकार ज़रूरतमंद को खाद्यान्न दे रही है, अच्छी बात है, पर इस सवाल का जवाब भी तो कोई देगा? और फिर यदि आज कोई इस स्थिति को उजागर करता है तो इसे देश के अपमान की कोशिश क्यों माना जा रहा है?

हां, देश अपमानित होता है जब यह बात उजागर होती है कि सारी कथित कोशिशों के बावजूद बेरोज़गारी कम नहीं हो रही। महंगाई को कम करने में विफलता भी देश को बदनाम करती है। देश तब भी बदनाम होता है जब धर्म के नाम पर दंगे भड़काये जाते हैं, देश तब भी बदनाम होता है जब जाति के नाम पर वोट मांगे जाते हैं। जनता का विश्वास जनतंत्र की सबसे बड़ी ताकत होती है। यह विश्वास बना रहे इसके लिए ज़रूरी है जनता को भरमाने की कोशिशें बंद हों।

हाल ही में ‘इंडिया टुडे’ समूह द्वारा किए गये सर्वेक्षण के अनुसार देश की सबसे बड़ी समस्या बेरोज़गारी है। दूसरे नंबर पर महंगाई आती है। तीसरा स्थान गरीबी का है और फिर नंबर आता है भ्रष्टाचार का। यह सारी समस्याएं ऐसी हैं जिनका बने रहना राष्ट्रीय शर्म का विषय होना चाहिए। सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग भी इसी श्रेणी में आता है। और जनतंत्र के औचित्य तथा सफलता का तकाज़ा है कि गरीबी कम हो, महंगाई कम हो, बेरोज़गारी कम हो, सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग कम हो। यह तभी संभव है जब इस बात को बार-बार उजागर किया जाये। बार-बार इस बात को सामने लाने की जरूरत है कि जनतंत्र के मूल्यों-आदर्शों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए।

सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग का मुद्दा आज कुछ ज़्यादा मुखर होकर सामने आ रहा है। यह सामान्य स्थिति नहीं है। इन एजेंसियों की सक्रियता की प्रशंसा होनी चाहिए, पर जब यह पता चलता है कि 95 प्रतिशत छापे विपक्ष के नेताओं पर पड़ रहे हैं तो संदेह होना स्वाभाविक है। फिर जब पाला बदलने वाले नेताओं की हो रही छानबीन ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है तो यह संदेह और गहरायेगा ही। इस तरह की बातें हमारे जनतंत्र को, हमारे देश को बदनाम करती हैं।

बरसों पुरानी बात है देश के महान फिल्मकार सत्यजीत रे की एक फिल्म को अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। फिल्म किसी ऐसी कहानी पर आधारित थी जिसमें गरीबी का चित्रण था। तब देश में कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें इस बात से शिकायत थी कि सत्यजीत रे जैसे फिल्मकार भारत की गरीबी को बेचते हैं! वे भारत को बदनाम कर रहे हैं!

यह सोच तब भी ग़लत थी और आज भी ग़लत है। देश यदि तब अपमानित हुआ था तो इस गरीबी के कारण हुआ था, न कि गरीबी के चित्रण से। लगभग आधी सदी पहले जब आपातकाल लगाया गया था, तब हमारा जनतंत्र अपमानित हुआ था। आज भी जब जनतांत्रिक मूल्यों को नकारा जा रहा है और संसद में या सड़क पर जनता की आवाज़ को दबाने की कोशिश होती है, तब जनतंत्र बदनाम होता है। देश को बदनामी से बचाना है, तो स्थितियों को सुधारना होगा। गलीचे के नीचे छिपा देने से कचरा साफ नहीं होता, कचरा हटाना पड़ता है। इसके लिए पहले उसके होने को स्वीकार करना पड़ता है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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