अनूप भटनागर
न्यायपालिका लगातार इस बात पर जोर दे रही है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति को राजद्रोह या आतंकवाद नहीं माना जा सकता है। न्यायपालिका लगातार इस बात की पक्षधर रही है कि असहमति की आवाज का सम्मान होना चाहिए। असहमति की आवाज दबाना उचित नहीं है क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह सेफ्टी वाल्व की तरह है। अब इस असहमति को भी परिभाषित करने और इसकी लक्ष्मण रेखा खींचने की आवश्यकता महसूस हो रही है।
नि:संदेह, असहमति संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी को प्रतिबिंबित करती है। प्रत्येक नागरिक को बोलने की स्वतंत्रता प्रदान करने वाले अनुच्छेद 19 (1)(ए) और इस संबंध में अनेक न्यायिक व्यवस्थाओं में स्पष्ट किया गया है कि अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार निर्बाध नहीं है और आवश्यकता पड़ने पर नियंत्रित किया जा सकता है।
कई बार इनका काफी विकृत रूप भी देखने को मिलता है। सरकार के किसी भी निर्णय पर असहमति व्यक्त करने के लिए शांतिपूर्ण तथा अहिंसक तरीके से धरना-प्रदर्शन और बंद का आयोजन किया जा सकता है लेकिन असहमति व्यक्त करने के इस सिलसिले में अगर हिंसा और तोड़फोड़ होने लगे तो क्या होगा?
सवाल उठता है कि क्या किसी मुद्दे पर असहमति व्यक्त करने के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों में संचार टावर तोड़े जा सकते हैं या असहमति के स्वर को धारदार बनाने के लिए लालकिले की प्राचीर पर ध्वज फहराया जा सकता है या किसी राज्य का संपर्क पूरे देश से तोड़ने या हिंसा का मार्ग अपनाने के लिये आन्दोलनकारियों को प्रोत्साहित किया जा सकता है? या सिंचाई की नहर क्षतिग्रस्त करने अथवा आंदोलनरत वर्ग द्वारा किसी भी सत्तारूढ़ दल के नेता को गांवों में आने पर देख लेने की धमकी दी जा सकती है? निश्चित ही ये गतिविधियां किसी भी तरह से ‘असहमति’ के दायरे में नहीं मानी जायेंगी। अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के इस्तेमाल के नाम पर कोई भी व्यक्ति या वर्ग या समूह किसी व्यक्ति या समुदाय के बारे में कटुता नहीं फैला सकता है। अभिव्यक्ति की आजादी का नतीजा सोशल मीडिया पर नजर आ रहा है जहां राजनीतिक दलों, नेताओं के साथ ही न्यायपालिका और इसके सदस्यों के बारे में भी आपत्तिजनक टिप्पणियां हो रही हैं। यही वजह है कि न्यायपालिका भी महसूस करती है कि सोशल मीडिया पर इस तरह की अनर्गल और बेबुनियाद टिप्पणियां करने की गतिविधि पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है।
नि:संदेह विवादास्पद कृषि कानून, नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर जैसे कई मुद्दों पर किसान और समाज का एक वर्ग उत्तेजित है। साथ ही यह तथ्य भी सही है कि इन्हीं आन्दोलनों के दौरान कई स्थानों पर हिंसा भी हुई है। उत्तर पूर्वी दिल्ली में पिछले साल फरवरी में हुई हिंसक घटनाएं किसी से छिपी नहीं हैं। कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग के साथ आंदोलन कर रहे किसानों के एक वर्ग ने हिंसा भी की।
सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिये आरक्षण सहित ऐसे अनेक विषय हैं, जिन्हें लेकर विभिन्न संगठनों और समूहों ने आन्दोलन शुरू किया, लेकिन आगे चलकर इसका रूप बदल गया और इसमें हिंसा भी शामिल हो गयी।
सरकार के रवैये से नाराज होकर आंदोलन तेज करने के दौरान हिंसा के लिए उकसाने या फिर तोड़फोड़ जैसी घटनाएं भी हुईं। इन घटनाओं की जांच के दौरान पुलिस ने भारतीय दंड संहिता के विभिन्न प्रावधानों के तहत मामले दर्ज किये। कई प्रकरण में पुलिस ने स्वयं या निजी शिकायत के आधार पर राजद्रोह के आरोप में भी मामला दर्ज किया।
हाल के वर्षों में शीर्ष अदालत के अनेक न्यायाधीशों ने कई अवसरों पर असहमति को जीवंत लोकतंत्र का प्रतीक बताते हुए इसके सम्मान पर जोर दिया है। न्यायपालिका ने इस तथ्य को भी इंगित किया है कि समाज में विभिन्न मुद्दों पर विपरीत विचारधारा के लिये असहिष्णुता बढ़ रही है, जो चिंता की बात है। लेकिन इसके साथ ही लोकतंत्र में असहमति और असहमति व्यक्त करने के लिये हिंसा, तोड़फोड़ करने या फिर विघटनकारी गतिविधियों का सहारा लेने जैसे कृत्यों के बीच अंतर करने और असहमति के स्वरूप को परिभाषित करने की भी आवश्यकता है। असहमति के दायरे के निर्धारण के अभाव में आज समाज के हर वर्ग और समूह के लोग विभिन्न मुद्दों पर अपनी असहमति व्यक्त करते हुए सोशल मीडिया पर असंयमित और अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करते हैं।
इस समय उच्चतम न्यायालय में राजद्रोह के अपराध से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए को असंवैधानिक घोषित करने के अनुरोध के साथ अनेक याचिकाएं लंबित हैं। इन याचिकाओं में भी असहमति की आवाज उठाने वालों के प्रति धारा 124 ए के दुरुपयोग का आरोप लगाया गया है। इस मामले में न्यायालय ने केन्द्र से जवाब मांगा है।
न्यायालय भी ‘औपनिवेशिक काल’ के राजद्रोह संबंधी दंडात्मक कानून के ‘दुरुपयोग’ से चिंतित है और उसने कहा भी है कि एक गुट दूसरे समूह के लोगों को फंसाने के लिए इस प्रकार के (दंडात्मक) प्रावधानों का सहारा ले सकता है। यही नहीं, यदि कोई विशेष पार्टी या लोग (विरोध में उठने वाली) आवाज नहीं सुनना चाहते हैं, तो वे इस कानून का इस्तेमाल दूसरों को फंसाने के लिए कर सकते हैं।
उम्मीद की जानी चाहिए कि राजद्रोह कानून भारतीय दंड संहिता में उपलब्ध होने के परिप्रेक्ष्य में दायर तमाम याचिकाओं पर उच्चतम न्यायालय अपनी व्यवस्था में ‘असहमति’ के दायरे और स्वरूप को भी परिभाषित करेगा।