पूरन सरमा
जिस समय वे मेरे यहां आये, चिन्ता की लकीरें ललाट पर स्पष्ट रूप से दिख रही थीं। वे मेरे परमप्रिय थे। सो बोला, ‘क्यों, क्या बात है? मेरे लायक कोई कार्य हो तो बताओ। इतने चिन्तित होने की बात क्या है?’ वे और अधिक गमगीन हो गये। लगभग रूआंसे होकर बोले, ‘शर्मा जी मुझे बचा लो। मेरी लाज तुम्हारे हाथ में है। मेरी इज्जत दांव पर लग गई है। तुम तो घर के आदमी हो, दूसरे से कह भी नहीं सकता।’ मैंने कहा, ‘गिरधर जी मामला क्या है? आपकी इज्जत के लिए मैं अपनी इज्जत दांव पर लगा दूंगा, आखिर बात क्या है?’
गिरधर जी अपना मुंह मेरे कान के पास लाये और बोले, ‘शर्मा जी अपनी संस्था का वार्षिक कार्यक्रम, वर्ष बीतने को आया, लेकिन हो नहीं पा रहा है। साफ बात है संस्था आर्थिक विषमता में जी रही है। इस वर्ष सम्मान समारोह नहीं हुआ तो सारी बात खाक में मिल जायेगी, दूसरा गुट बदनामी करने पर तुला है।’
मैंने कहा, ‘तो कहिये, मुझे करना क्या है?’ गिरधर जी बोले, ‘तुम ऐसा करो, इस वर्ष का सम्मान ले लो। मेरी और संस्था की नाक बच जाएगी।’
मैं उनकी बात पर हंस पड़ा और बोला, ‘इसमें गिरधर जी चिन्ता की क्या बात है? इस वर्ष का साहित्य शिरोमणि सम्मान मैं ले लूंगा। आप तो चिन्ता को त्यागो और सम्मान की तैयारी करो।’
गिरधर जी लगभग पसर से गये और मौन साध गये। मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैंने फिर कहा, ‘क्यों अब क्या बात है? मैं सम्मान ले लूंगा, मना थोड़े ही कर रहा हूं।’
‘शर्मा जी, तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं करते। मैंने अभी कहा कि संस्था पूरी तरह दिवालिया है। मंच तो दे सकती है लेकिन माला और दुशाला का इंतजाम कैसे होगा, सम्मान लेने वाले तो बहुत से हैं। तुम्हारी खुशामद करने का मेरा मतलब यही है कि तुम मंच के अलावा सारा इंतजाम नेपथ्य से करो। वरना संस्था की मान्यता खतरे में पड़ सकती है, सम्मान का सारा व्यय तुम्हें ही सम्भालना होगा।’ गिरधर जी की बात सुनकर मुझे सांप सूंघ गया, समझ में ही नहीं आया कि क्या जवाब दूं। हालांकि सम्मान की लार मेरे मुंह में आ चुकी थी। वैसे भी साहित्य का कोई पुरस्कार सम्मान मुझे अभी तक नहीं मिल पाया था।
मैंने कहा, ‘मैं आपकी बात समझ गया गिरधर जी, लेकिन पैसे से तो मैं भी बहुत तंग हूं, गये महीने पी.एफ. से लोन लेकर घर की व्यवस्था की थी। अब यह सम्मान आ गया। मुझे यह सम्मान, अपमान जैसा लग रहा है।’
गिरधर जी अत्यन्त निराश भाव से बोले, ‘तो फिर रहने दो शर्मा जी। मैं किसी और से बात करता हूं। मैं तो इसलिए तुम्हारे पास आया था कि घर के आदमी हो। तुम्हारा सम्मान भी कभी नहीं हुआ। फूल-मालाओं से लदवा देता, सार्वजनिक रूप से पीछे क्या हुआ, किसने देखा है। मान-सम्मान के लिए तो लोग पता नहीं क्या-क्या जोड़-तोड़ करते हैं। देखो, सभी जगह ऐसा होता है, खर्चा क्या है, कार्ड छपवाने हैं, पचास मालायें लानी हैं, शॉल लाना है और दो सौ आदमियों के जलपान की व्यवस्था करनी है। कुल पांच हजार में ‘साहित्य शिरोमणि’ हो जाओगे।’