सहीराम
अभी तक आपने पुलिस को इन्हीं बातों पर आपस में लड़ते देखा होगा कि यह डकैती हमारे इलाके में नहीं पड़ी जनाब, देख लो हमारा इलाका तो इस नुक्कड़ तक है, जबकि डकैती नुक्कड़ के परली तरफ पड़ी है या फिर यह हत्या हमारे इलाके में नहीं हुई है जनाब, देख लो, लाश के पैर बेशक पोल के इस तरफ हैं, लेकिन सिर परली तरफ है या फिर यह दुराचार हमारे इलाके में नहीं हुआ जनाब। इसी तरह आप अभी तक यह भी मानते रहे होंगे कि पुलिस मौका-ए-वारदात पर देर से ही पहुंचती है। इससे अपराधियों को पूरा मौका मिल जाता है रफूचक्कर होने का। लेकिन अब वक्त बदल गया है। पर भाई, वक्त के साथ तो पुलिस बदलती नहीं। पुलिस में बदलाव चाहने वाले बदलावों के सुझाव दे -देकर थक लिए, लेकिन पुलिस नहीं बदली वैसे ही जैसे कि शोले के जेलर का यह प्रसिद्ध कथन है कि इतनी बदलियों के बाद भी हम नहीं बदले। कुछ लोगों का कहना है कि यह आपकी गलतफहमी है कि पुलिस वक्त के साथ बदली है। नहीं जी, यह तो सरकार बदलने के साथ ही बदली है।
और बदली भी है तो जनाब ऐसी बदली है कि अब पुलिस भड़काऊ भाषण देने वालों को गिरफ्तार नहीं करती, शांति की अपील करने वालों को गिरफ्तार करती है। वैसे ही लेटलतीफी का तो अब सवाल ही नहीं, पुलिस घटनास्थल पर भी अब फौरन पहुंचने लगी है। रही मुजरिम को पकड़ने की बात, तो जनाब पहली बात तो यह कि एक पुलिस जिसे मुजरिम मान रही हो, जरूरी नहीं कि दूसरी पुलिस उसे मुजरिम ही माने, वह उसे एक इज्जतदार नागरिक मान सकती है। दूसरे वह अपने राज्य की क्षेत्रीय भावना से इतनी ओतप्रोत रहने लगी है, जितने धार्मिक जुलूस निकालने वाले लोग राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत रहने लगे हैं। वैसे तो पुलिस अपनी-अपनी सरकारों के प्रति पहले भी वफादार होती थी, लेकिन पहले वाली वफादारी में राष्ट्रीय भावना गायब थी, अब वह है। पहले जब पुलिस नहीं बदली थी और वैसी ही थी जैसी सदा से रहती आयी है तो वह दूसरी पुलिस के मुजरिम को पकड़वाने में मदद कर देती थी। लेकिन अब वह यह कहकर उसे छुड़वा लेती है कि हमारे इलाके से तुमने इसे गिरफ्तार करने की हिम्मत कैसे की! पुलिस भी अब वैसे ही आपस में लड़ रही है जैसे दो धर्मों के लोग लड़ते हैं, दो जातियों के लोग लड़ते हैं, दो राज्यों के लोग लड़ते हैं और दो पार्टियों के कार्यकर्ता आपस में लड़ते हैं। पर इसमें आश्चर्य की क्या बात!