दलबदल की बीमारी एक बार फिर लोकतंत्र के लिए चुनौती बन रही है। यह दलबदल का बदला स्वरूप संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत दलबदल विरोधी कानून के प्रावधानों को बाइपास करता हुआ संसदीय प्रणाली के लोकतंत्र पर सीधा करारा हमला है। वर्ष 1967 से 1972 के बीच दलबदल के संक्रमण ने लगभग सभी राज्यों की सरकारों को अपनी चपेट में लिया था। फिर इस बीमारी से निजात पाने के लिए 1985 में राजीव गांधी सरकार ने संसद में 52वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा दलबदल विरोधी कानून को संविधान में 10वीं अनुसूची के रूप में जोड़ा।
हालांकि, 10वीं अनुसूची में लागू दलबदल विरोधी कानून के प्रावधान बिल्कुल स्पष्ट हैं परंतु राजनेता आम नागरिकों को इन प्रावधानों के बारे में भ्रमित करते रहते हैं क्योंकि आम लोगों के सामने कानून के प्रावधान संपूर्ण रूप में न आकर टुकड़ों में आते हैं। सांसदों या विधायकों की तीन श्रेणियां होती हैं। एक राजनीतिक दल के सदस्य के रूप में उस दल के चुनाव चिन्ह पर चुने हुए सदस्य के रूप में, दूसरे स्वतंत्र रूप से चुने गए निर्दलीय सदस्य व तीसरे नामित सदस्य।
10वीं सूची में वर्णित दलबदल विरोधी कानून के तहत किसी भी सदन के राजनीतिक दल के संबंधित सदस्य को अयोग्य घोषित होने की तीन शर्तें हैं, पहली कोई दलीय विधायक या सांसद राजनीतिक दल के चुनाव चिन्ह पर निर्वाचित होने के बाद स्वेच्छा से दल का त्याग कर दे। दूसरी, विधायक या सांसद अपने दल के व्हिप के निर्देशों का उल्लंघन कर सदन में मतदान में उपस्थित न हो और तीसरी व्हिप के निर्देशानुसार सदन में मतदान न करे।
निर्दलीय विधायक या सांसद अपने कार्यकाल में किसी भी राजनीतिक दल की सदस्यता नहीं ले सकता, अगर वह किसी भी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर ले तो उसे आयोग्य घोषित किया जा सकता है।
वर्ष 1985 के दलबदल विरोधी कानून के तहत 10वीं सूची के पैरा-3 में मूल राजनीतिक दल में विभाजन का प्रावधान था, जिसमें सदन के एक-तिहाई सदस्य एक समूह बनाकर दल में विभाजन करने पर दलबदल कर अयोग्य घोषित होने से बच जाते थे। पिछली सदी के नब्बे के दशक में जमकर दलबदल की घटनाओं ने संसदीय प्रणाली की जड़ें हिला दी थीं, जिसका समाधान 2003 के 91वें संविधान संशोधन ने इस दल विभाजन के 10वीं अनुसूची के पैरा-3 के प्रावधान को समाप्त कर दिया। 2003 के संशोधन उपरांत 10वीं अनुसूची के पैरा-4 में वर्णित केवल मूल राजनीतिक दल के दूसरे राजनीतिक दल में विलय पर सदन के दलीय सदस्यों को अयोग्यता से बचाव का प्रावधान है, बशर्ते इस विलय के लिए मूल राजनीतिक दल के दो-तिहाई सदस्य सहमत व साथ हों।
किसी राजनीतिक दल से संबंधित विधायक या सांसद अगर उस दल द्वारा निष्काषित कर दिया जाता है तो भी वह उस दल के व्हिप अनुसार सदन में मतदान के समय उपस्थित रहने व मतदान करने का पाबन्द रहेगा और अगर वह किसी और दल की सदस्यता ग्रहण करता है तो भी अयोग्य घोषित किया जा सकता है। वर्ष 2003 के 91वें सशोधन में केन्द्र व राज्यों में निचले सदन की सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक मंत्रियों की संख्या पर भी रोक लगा दी परंतु छोटे राज्यों में न्यूनतम मंत्रियों की संख्या सात रखी है। उपरोक्त संशोधानुसार 10वीं सूची के पैरा-2 के तहत अयोग्य घोषित विधायक या सांसद अयोग्य घोषित अवधि के दौरान मंत्री पद पर नियुक्त नहीं हो सकता परंतु उस पर उस अवधि में पुनः चुनाव लड़ने पर रोक नहीं है अतः वह उस अवधि के दौरान दोबारा चुनाव जीतकर मंत्री बन सकता है। पिछले साल कर्नाटक विधानसभा स्पीकर ने विधायकों को अयोग्य घोषित करने के साथ उन पर उस अवधि में दोबारा चुनाव लड़ने पर रोक भी लगाई थी, जिसे उच्चतम न्यायालय ने असंवैधानिक करार दिया। वर्ष 2003 के उपरोक्त संविधान संशोधन ने 10वीं अनुसूची के पैरा-2 के तहत अयोग्य ठहराए गए सदस्य को केन्द्र या राज्य में कोई भी लाभकारी राजनीतिक पद लेने पर भी रोक लगा रखी है। लोकसभा व राज्यसभा के सभापति, उपसभापति व राज्य के विधान परिषद के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष को 10वीं अनुसूची के तहत उनके इन पद पर चुने जाने उपरांत उस दल की सदस्यता, जिसके चुनाव चिन्ह पर वे चुनकर आए थे, स्वेच्छा से छोड़ने पर अयोग्य घोषित नहीं किए जा सकते बशर्ते इसी अवधि में दोबारा दल की सदस्यता ग्रहण न की हो।
10वीं अनुसूची के उपरोक्त प्रावधानों के तहत सदस्यों के दलबदल पर सदस्यों को अयोग्य घोषित करने की सारी शक्ति व अधिकार लोकसभा व विधानसभाओं के स्पीकरों को अपने सदनों के सदस्यों के बारे दलबदल से संबंधित फैसले की पूर्ण शक्ति व अधिकार दिए गए हैं तथा अदालतों के अधिकार क्षेत्र पर रोक लगाई गई है। परंतु पिछले तीन दशकों के सदनों के स्पीकर व पीठासीन अधिकारियों ने दलबदल से संबंधित मामलों के निपटारों में अपने दायित्वों का निष्पक्षता से पालन न करके पार्टी प्रतिबद्धताओं को प्राथमिकता दी। अयोग्यता का फैसला करने के समय उनके कार्य व आचरण हमेशा पक्षपाती और सत्ताधारी पार्टी की तरफ रहे हैं। सत्ताधारी पार्टी की सहूलियत अनुसार किसी दलबदल के केस को तीन-चार साल तक लटकाए रखते हैं तो किसी का फैसला दिनों में ही कर देते हैं। इन्ही कारणों से अब दलबदल विरोधी कानून के तहत पारित प्रत्येक आदेश न सिर्फ न्यायालयों में न्यायिक जांच के अधीन है, बल्कि अब स्पीकर द्वारा आरोपित विधायक को जारी नोटिस पर भी न्यायालय स्टे देने लग गए हैं। माननीय उच्चतम न्यायालय ने तो इस कानून के तहत मामलों के निपटारे के लिए एक स्थायी न्यायाधिकरण स्थापित करने की सलाह दी है।