
विश्वनाथ सचदेव
बच्चा जब कोई ग़लती करता है तो मां-बाप अक्सर बच्चे से माफी मंगवाते हुए दिखते हैं। पता नहीं बच्चा माफी मांगने का मतलब समझता है या नहीं, पर अक्सर वह ‘सॉरी’ बोलकर ‘विवाद’ खत्म कर देता है। न मां-बाप बच्चे को माफी मांगने का अर्थ समझाते हैं और न ही बच्चा ऐसी कोई आवश्यकता समझता है कि वह माफी मांगने की इस क्रिया का मतलब समझे। मां-बाप मान लेते हैं कि ‘सॉरी’ कहकर बच्चा सुधर गया और अक्सर बच्चा मान लेता है कि चलो बला टली!
लेकिन हमारी संसद में ‘माफी’ वाली बला आसानी से टलती दिखाई नहीं दे रही। महत्वपूर्ण बजट-सत्र की दूसरी पारी, क्रिकेट की भाषा में कहें तो, धुलती नज़र आ रही है। पर हकीकत यह है कि हमारी राजनीति की चादर धुलने के बजाय और मैली होती जा रही है। रोज़ हमारे सांसद संसद के सदनों में जाते हैं, दोनों पक्ष रोज़ शोर-शराबा मचाते हैं और फिर पीठासीन अधिकारी सदन की कार्रवाही स्थगित कर देते हैं। सत्तारूढ़ पक्ष इस ज़िद पर अड़ा हुआ है कि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी लंदन में की गयी अपनी ‘ग़लती’ के लिए संसद में क्षमा मांगें और विपक्ष का कहना है कि जब ग़लती हुई ही नहीं तो ‘सॉरी’ किस बात की। स्पष्ट है, यदि दोनों पक्ष अपनी बात पर अड़े रहते हैं तो बात बनने का कोई आधार नहीं बनता और यदि दोनों में से कोई एक पक्ष झुकता है तो इसे राजनीतिक जीत-हार की तरह भुनाने की कोशिश होगी। और सच बात यह है कि राजनीति के इस दांव-पेच में नुकसान जनतंत्र का हो रहा है।
जनतांत्रिक व्यवस्था में विवाद सुलझाने का तरीका संवाद होता है, पर यदि संवाद की सारी प्रक्रिया नारेबाज़ी का शिकार बन कर रह जाये तो विवाद सुलझेगा कैसे? मान लीजिए सत्तारूढ़ पक्ष अपनी मांग से पीछे नहीं हटता और इस बात पर अड़ा रहता है कि राहुल गांधी माफी मांगें, और विपक्ष जवाब में अडानी कांड में जेपीसी नियुक्त करने की धुन अलापता रहता है तो क्या होगा? होगा यह कि सदन में बिना किसी विचार-विमर्श के, सत्तारूढ़ पक्ष शोर-शराबे के बीच अपने विधेयक पारित करा लेगा, भारी बहुमत के चलते संसद में बजट भी बिना किसी बहस के पारित हो जायेगा और संसद की कार्यवाही अगले सत्र के लिए स्थगित कर दी जायेगी! सवाल यह उठता है कि राजनीति के इस घटिया खेल में जीत किसकी हुई, और हारा कौन? जीत किसी की भी हो, इस तरह की घटिया राजनीति में हारता जनतंत्र ही है।
‘माफी मांगो’ और ‘जेपीसी नियुक्त करो’ के इस शोर में अनसुनी विवेक की आवाज़ की हो रही है।
जिस ‘अपराध’ के लिए कांग्रेस के नेता राहुल गांधी से माफी मांगने की मांग हो रही है, वह यदि अपराध है तो यह अपराध तो वे पहले भी करते रहे हैं। संसद में, और संसद के बाहर, यह बात राहुल गांधी समेत अन्य कई लोग भी बार-बार कहते रहे हैं कि देश में जनतांत्रिक व्यवस्था चरमरा रही है। सत्तारूढ़ पक्ष पर बार-बार यह आरोप लगता रहा है कि वह भारी-भरकम बहुमत का ग़लत लाभ उठा रहा है। सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय जैसी स्वायत्त एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप भी अक्सर लगते रहे हैं। नया यदि कुछ हुआ है तो सिर्फ यह कि इस बार विपक्ष के नेता ने यही सब बातें लंदन में जाकर कह दी हैं। लेकिन सवाल उठता है कि देश के बाहर जाकर यह सब कहना अधिक गंभीर अपराध कैसे हो गया? संचार-क्रांति के इस युग में, जब कोई बात पलभर में विश्व-व्यापी हो जाती है, यह कैसे मान लिया गया कि लंदन वालों को यह पता नहीं होगा कि भारत में विपक्ष सत्तारूढ़ दल पर किस तरह के आरोप लगा रहा है? और सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि बजाय इसके कि आरोप की जांच हो, उस पर कोई कार्रवाई हो, आरोप लगना ही ऐसा अपराध कैसे हो गया कि जिसके लिए क्षमा मांगी जाये? या जिसके कारण संसद की कार्यवाही ठप्प हो जाए?
क्षमा मांगना छोटी बात नहीं है, बहुत मुश्किल होता है क्षमा मांगना, और उतना ही मुश्किल होता है दिल से क्षमा करना भी। ‘सॉरी’ कह देना कुछ माने नहीं रखता, यह अनुभव करना माने रखता है कि मुझसे कोई ग़लती, कोई अपराध हो गया है। इसी तरह किसी की माफी को स्वीकारना भी आसान काम नहीं है। माफ करने का मतलब होता है, बीती को बिसार देना, और बीती को बिसारने का मतलब है किसी की ग़लतियों को भूलकर नये सिरे से रिश्तों की शुरुआत करना। क्या हमारा सत्तारूढ़ दल ऐसी किसी शुरुआत के लिए तैयार है? हमारी राजनीति में माफी मांगने, और माफ करने के नाटक पहले भी होते रहे हैं। कोई अर्थ नहीं है ऐसे किसी नाटक का यदि उद्देश्य मात्र राजनीतिक लाभ उठाना ही हो। राजनीति के इस दांव-पेच में घायल हमारा जनतंत्र हो रहा है। देश इस बात से बदनाम नहीं होता कि किसी नेता ने विदेश में जाकर भारत में जनतंत्र की भावना के साथ खिलवाड़ की बात कह दी है, देश बदनाम इस बात से हो रहा है कि देश में जनतंत्र की भावना के साथ खिलवाड़ हो रहा है। सात दिन तक संसद के दोनों सदनों में सिर्फ शोर-शराबा हो और कार्यवाही के नाम पर सदन के स्थगन की घोषणा मात्र हो, इससे बदनाम होता है जनतंत्र। देश बदनाम इस बात से भी हो रहा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सारी कार्रवाई विपक्ष के नेताओं पर ही क्यों हो रही है और जनतंत्र इसलिए बदनाम हो रहा है कि कोई आरोपी नेता दल-बदल कर सत्तारूढ़ पक्ष में आ जाता है तो उसके खिलाफ लगाये गये आरोप चुपचाप ठंडे बस्ते में क्यों चले जाते हैं?
रहा सवाल माफी मांगने का तो ‘सॉरी’ कह देना ही पर्याप्त नहीं होता, अपनी ग़लती को स्वीकारना होता है और संकल्प करना होता है कि मैं यह ग़लती फिर नहीं करूंगा। छोटे बच्चे से जब ‘सॉरी’ कहलवाया जाता है तो वह अक्सर यंत्रवत् बोल देता है शब्द, अनुभव नहीं करता वह कोई शब्द बोल देने के अर्थ को। हमारे राजनेताओं को अपने अपराधों को समझना होगा। साथ ही, क्षमा हमारी राजनीति के सारे अपराधियों को मांगनी होगी, और देश की जनता से मांगी जानी चाहिए यह क्षमा। जनतंत्र की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने वाले हमारे राजनेता इस देश की जनता के प्रति अपराधी हैं। सिर्फ राजनीतिक नफे-नुकसान की दृष्टि से की जाने वाली राजनीति अपने आप में एक अपराध है। आज हमारी संसद में जो कुछ हो रहा है, वह एक घटिया राजनीति का उदाहरण ही पेश कर रहा है। संसद की कार्यवाही विवेकपूर्ण ढंग से चले, यह दायित्व हर सांसद का है। भारी बहुमत वाले सत्तारूढ़ पक्ष का दायित्व तो और बढ़ जाता है। संसद में गंभीर विचार-विमर्श के बजाय मात्र नारेबाजी करना किसी भी पक्ष को शोभा नहीं देता। अपराध है यह। इससे आहत होती है जनतंत्र और देश की गरिमा। माफी इस बात के लिए मांगी जानी चाहिए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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