ज़मीनी हकीकत भी बदले प्रतीकों की राजनीति : The Dainik Tribune

ज़मीनी हकीकत भी बदले प्रतीकों की राजनीति

ज़मीनी हकीकत भी बदले प्रतीकों की राजनीति

विश्वनाथ सचदेव

विश्वनाथ सचदेव

लगभग पंद्रह साल पुरानी बात है, जब स्वतंत्र भारत में पहली बार एक महिला को राष्ट्रपति बनने का अवसर मिला था। श्रीमती प्रतिभा पाटिल को कांग्रेस पार्टी ने इस पद के लिए अपना उम्मीदवार बनाया था। उनका जीतना भी लगभग तय ही था। इस बात को बार-बार रेखांकित किया जा रहा था कि पहली बार कोई महिला देश की राष्ट्रपति बनायी जा रही है, अतः उन्हें निर्विरोध चुनने दिया जाना चाहिए। तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी तब इस बात का पूरा यश लेना चाहती थी कि वह एक महिला को राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर बिठा रही है। यह यश तो कांग्रेस को मिला भी, पर तब यह बात भी उठी थी कि काश! प्रतिभा पाटिल इस पद के लिए कांग्रेस की पहली पसंद होतीं!

इस बार फिर वैसा ही मौका आया है। देश में सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी ने उड़ीसा में जन्मीं श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है और कहा जा रहा है कि यह पहली बार है जब कोई आदिवासी महिला इस पद को पा रही है, अतः उनके खिलाफ विपक्ष को कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा करना चाहिए। तब किसी महिला को मौका मिला था, और अब किसी आदिवासी महिला को यह अवसर मिलने वाला है। इस बात की महत्ता से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन श्रीमती पाटिल की तरह ही इस बार भी श्रीमती मुर्मू राजनीतिक दलों की पहली पसंद नहीं हैं। तब भी योग्यता के बजाय उम्मीदवार के महिला होने पर ज़ोर दिया जा रहा था और अब भी इसी तर्क को आगे बढ़ाया जा रहा है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रतीकों का अपना महत्व होता है। किसी महिला का देश का राष्ट्रपति बनना या किसी आदिवासी का इस पद को पाना अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण बात है, पर इस सच्चाई से भी तो इंकार नहीं किया जा सकता कि राजनीति की इस चाल में महिला के प्रति विशेष अनुकंपा के भाव का भी अपना स्थान है। पेंच यही हैं। मुद्दा स्त्री-पुरुष की बराबरी के सिद्धांत का है। मुद्दा इस बात को स्वीकार करने का है कि देश के इस सर्वोच्च पद पर बैठने की योग्यता, क्षमता देश की महिलाओं में है- उन्हें अनुकंपा नहीं, अधिकार चाहिए।

बहरहाल, यह तय है कि श्रीमती मुर्मू देश की राष्ट्रपति बन रही हैं। भाजपा एक आदिवासी महिला को इस पद पर दावेदार बनाने का यश भी ले ही सकती है। पर यही समय है जब यह भी तय होना चाहिए कि देश की महिलाओं को, पिछड़ों को, यह हक उनकी योग्यता के कारण मिलना चाहिए। राष्ट्रपति कोविंद का चयन भी जब हुआ था तो उनके पिछड़ा वर्ग का होने की बात को बार-बार दोहराया गया था। पिछड़े वर्ग का व्यक्ति देश का राष्ट्रपति बना यह निस्संदेह गर्व की बात है पर गर्व तो इस बात पर होना चाहिए कि पिछड़े वर्ग का कोई व्यक्ति इस पद तक पहुंचने की योग्यता अर्जित कर सका। सवाल इस योग्यता को रेखांकित करने का है। और इस रेखांकन का एक तरीका यह है कि कोई प्रतिभा पाटिल, या द्रौपदी मुर्मू या रामनाथ कोविंद पद के लिए पहली पसंद बनें।

श्रीमती पाटिल के राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव-अभियान के दौरान मैंने पहली पसंद वाली बात लिखी थी। वह लेख संयोग से उनकी निगाह में आ गया और तब उन्होंने टेलीफोन पर कहा था ‘आप एंड रिज़ल्ट क्यों नहीं देखते, इससे क्या फर्क पड़ता है कि कोई पहली पसंद है या नहीं। उनका कहने का अभिप्राय यह था कि किसी महिला का राष्ट्रपति बनना ही महत्वपूर्ण है। ग़लत नहीं थीं वे। ‘एंड रिज़ल्ट’ किसी महिला का भारत का राष्ट्रपति बनना था। और यह निश्चित रूप से स्वागत-योग्य था। पर यहां सवाल ‘एंड रिज़ल्ट’ का नहीं है, सवाल महिलाओं, आदिवासियों, पिछड़ों के सर्वोच्च पदों पर पहुंचाने लायक बनने का है, यह मानने का है कि वे इन पदों के निर्वाह में सक्षम हैं। ये पद देकर उन पर कोई अनुग्रह नहीं किया जा रहा। स्वयं उन्हें, और देश को, यह स्वीकारना होगा कि हमारी महिलाएं, हमारे आदिवासी, हमारा पिछड़ा वर्ग योग्य और सक्षम है।

जहां तक प्रश्न राष्ट्रपति-पद के निर्विरोध चुनाव का है, वह स्थिति सचमुच स्वागत-योग्य है। इस पद की महत्ता और गरिमा को देखते हुए यदि सारा देश एकमत हो सकता है तो यह उचित ही कहा जायेगा। पर इस विषय पर एकमत का अभाव किसी कमी का परिचायक नहीं है। सच तो यह है कि चुनाव जनतंत्र की एक ताकत है। सही तरीके से चुनाव हों, सही व्यक्ति निर्वाचित होकर पद पर पहुंचे, यह जनतंत्र की सफलता का ही प्रमाण है। फिर, चुनाव सिर्फ पद पाने के लिए ही नहीं होते, चुनाव सिद्धांतों को रेखांकित करने के लिए भी होते हैं, विचारधारकों की महत्ता प्रतिपादित करने के लिए भी होते हैं। राष्ट्रपति-पद के लिए होने वाले चुनाव में जीत लगभग तय ही होती है। यहां वोट चुने हुए सांसदों-विधायकों को डालना होता है। उनकी संख्या तय है। फिर भी यदि एक से, अधिक व्यक्ति मैदान में हैं तो इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि मतदाता कुछ विशेष प्रतिपादित करना चाहता है। यह ‘कुछ’ वे सिद्धांत, मूल्य या विचार हैं जो राजनीति को आधार देते हैं।

दुर्भाग्य से, आज हमारी राजनीति में सिद्धांतों, मूल्यों और विचारों के लिए जगह लगातार कम होती जा रही है। अब राजनीति सत्ता के लिए होती है और सत्ता को हमने सेवा करने की नहीं, भोगने की वस्तु बना दिया है। यह स्थिति बदलनी ज़रूरी है। पर कैसे बदलेगी यह स्थिति? इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं है। पर ज़रूरी है वह उत्तर खोजना। वह उत्तर प्रतीकों के माध्यम से नहीं मिलेगा। उसे ठोस वैचारिक धरातल पर खोजना होगा। कोई द्रौपदी मुर्मू इसलिए पद के योग्य नहीं मान ली जानी चाहिए कि वह आदिवासी है, बल्कि उसकी कसौटी उसकी योग्यता होनी चाहिए। किसी आदिवासी महिला का राष्ट्रपति-भवन में पहुंचना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि यह तथ्य कि एक आदिवासी महिला ने वहां तक पहुंचने की योग्यता अर्जित की है।

राष्ट्रपति-पद के लिए हुए पिछले चुनाव में भी श्रीमती द्रौपदी मुर्मू का नाम प्रत्याशी के रूप में सामने आया था। पर तब किसी आदिवासी को यह पद देने के बजाय पिछड़ी जाति वाले को देना राजनीतिक दृष्टि से ज़्यादा फायदे वाला माना गया। राजनीति के समीकरण अपनी जगह हैं, पर नफे-नुकसान के आकलन वाली यह राजनीति जनतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं है। इस प्रवृत्ति ने हमारी समूची राजनीति को बीमार बना रखा है। इससे उबरना ज़रूरी है कि हम प्रतीकों की राजनीति से भी उबरें। किसी द्रौपदी मुर्मू का आदिवासी होना उसकी योग्यता का प्रतीक नहीं होना चाहिए, उसके चयन का आधार यह होना चाहिए कि वह आदिवासी होने के बावजूद सक्षम है। जब ऐसा होगा तभी कोई महिला-आदिवासी किसी राजनीतिक दल की पहली पसंद बनेगी। एंड रिज़ल्ट यानी अंतिम परिणाम की स्थिति से ऊपर उठना होगा। जब ऐसा होगा तो निर्विरोध-चुनाव वाली बात भी नहीं होगी- हर द्रौपदी को अपनी लड़ाई लड़कर ही जीतनी होगी। तभी जनतंत्र जीतेगा।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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