पुष्परंजन
पहली मार्च, 2019 को फेसबुक पर दिल्ली के विधायक ओम प्रकाश शर्मा की एक पोस्ट लोगों ने देखी, जिसमें चुनाव प्रचार के वास्ते विंग कमांडर अभिनंदन की तस्वीर का इस्तेमाल किया था। स्लोगन था, ‘झुक गया पाकिस्तान, लौट आया देश का वीर जवान।’ तस्वीर के आजू-बाजू पीएम मोदी और भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह थे, और ठीक नीचे चस्पा थे विधायक ओम प्रकाश शर्मा। किसी की शिकायत पर चुनाव आयोग ने ओम प्रकाश शर्मा को कारण बताओ नोटिस जारी किया। तदुपरांत, तत्काल प्रभाव से उस पोस्ट को फेसबुक से हटाने की कार्रवाई हुई। आप कह सकते हैं कि यह देश की पहली डिजिटल चुनावी कार्रवाई थी। प्रत्याशियों को बताया गया कि आप सेना की छवि का इस्तेमाल चुनाव प्रचार में नहीं कर सकते, चाहे वह आपका ख़ुद का डिजिटल पेज़ ही क्यों न हो।
चार साल पहले, 2018 में ओपी रावत के मुख्य चुनाव आयुक्त रहते सबसे पहले ‘सी-विज़िल एप’ बतौर पायलट प्रोजेक्ट लागू किया गया था, उस समय छत्तीसगढ़, मिज़ोरम, मध्यप्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने थे। उसके कोई पांचवें महीने दिल्ली विधानसभा चुनाव हुआ था। यह दिलचस्प है कि डिजिटल प्लेटफार्म पर आचार-संहिता केंद्रीय चुनाव आयोग ने 2013 से ही लागू कर रखी थी। 2013 से 2018, इन पांच वर्षों के कालखंड में गूगल, ट्विटर, फेसबुक, टिकटॉक, इंस्टाग्राम, हैलो, वीचैट को कैसे नियंत्रित करना है, सब कुछ अंधेरे में था। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आईएएमएआई), जिसकी लीडरशिप में चार बड़े डिजिटल प्लेटफार्म संचालित हो रहे थे, उससे चुनाव आयोग ने को-आर्डिनेट किया था।
ठीक है, शिकायतें संज्ञान में लेने के वास्ते ‘सी-विज़िल एप’ 2018 में तैयार की गई, मगर प्रत्याशियों और वोटरों को आचार-संहिता की लक्ष्मण रेखा के अंदर बनाये रखना क्या संभव हो सका है? इसे ध्यान में रखिये कि डिजिटल प्रचार, एलईडी स्क्रीन से लैस वाहनों, ऑडियो-वीडियो मैसेजिंग करने, होर्डिंग-बैनर लगाने से लेकर इवेंट मैनेजमेंट का ठेका राजनीतिक पार्टियां नहीं लेतीं, उसे थर्ड पार्टी के हवाले किया जाता है। प्रश्न है, क्या ऐसी सेवा प्रदाता प्राइवेट कंपनियां चुनाव आयोग से रजिस्टर्ड होती हैं? निर्वाचन आयोग का ऐसा कोई पोर्टल होता, तो पता भी चलता कि कौन-कौन सी कंपनियां रजिस्टर्ड हैं, और किस पार्टी के लिए क्या कर रही हैं। रजिस्टर्ड होतीं, तो उन्हें चुनाव आचार-संहिता का भी पता होता। मीडिया बहस में इस बात के लिए लोग हाहाकार कर रहे हैं, ‘भाजपा वर्चुअल प्रचार के लिए पहले से तैयार रही है।’ भाजपा के पास पैसा है, तो उसने इस काम के वास्ते ख़जाने का एक छोटा-सा हिस्सा झोंक दिया है। बाक़ी पार्टियां वेब या डिज़िटल एजेंसियों को पैसे दें, तभी भाजपा की टक्कर का आभासी प्रचार संभव है।
सारे फसाने में जिस बात का ज़िक्र नहीं होता है, वह है आईटी सेल की सरपरस्ती में सोशल मीडिया के अज्ञात पत्थरबाज़। जनता जनार्दन में फेक आईडी वाले कौन से लोग मुखौटा लगाकर दुष्प्रचार में लगे हैं, उन्हें चुनाव के समय रोकना किसका काम है? अक्तूबर, 2021 को ईटी ग्लोबल टाउनहाॅल की संगोष्ठी में यह जानकारी दी गई कि भारत में 1 अरब 18 करोड़ मोबाइल फोन कनेक्शन हैं, और 70 करोड़ इंटरनेट यूज़र्स। मुश्किल यह है कि हर पार्टी के आईटी सेल हैं, उनके फेक आईडी वाले कितने हैं, यह अब तक अंधेरे में है। फिर आभासी चुनाव प्रचार में जो गंदगी फैलेगी, हुड़दंगबाज़ी होगी, उसे चुनाव आयोग कंट्रोल कैसे करेगा? निर्वाचन आयोग ने शिकायत के लिए ‘सी-विज़िल एप’ बना दी, और कहता है, ‘हमारी ज़िम्मेदारी ख़त्म।’
डिज़िटल प्रचार में सबसे बड़ी चुनौती प्रत्याशी की ख़र्च सीमा को खंगालना भी है। सुदूर मणिपुर से कुमाऊं-गढ़वाल मंडल तक सक्रिय साइबर योद्धाओं, वेब डिजाइनरों पर कौन-कितना ख़र्च कर रहा है, इसे पकड़ना अच्छे-अच्छों के बूते से बाहर है। उदाहरण के लिए, किसी चुनाव क्षेत्र में एक लाख लोगों को मैसेजिंग के वास्ते डाटा मुहैया कराना है, यह डाटा कार्ड बाज़ार में तीन से छह हज़ार रुपये के बीच उपलब्ध है। उसे एक लाख से गुणा कर लीजिए, डिज़िटल चुनावी ख़र्च का एक हिस्सा समझ में आ जाएगा। मगर, आभासी प्रचार पर ख़र्च के अनेकानेक आयाम हैं। टीवी, रेडियो, पॉडकास्ट पर कई सौ करोड़ के टाइम स्लॉट पार्टियां ख़रीदती हैं, क्या उसे दल विशेष के प्रत्याशियों के ख़र्चों में तकसीम नहीं किया जाना चाहिए?
नीयत में फ़र्क़ कैसे होता है, उसे हम यूरोप के संदर्भ में देखेंगे, तो बात समझ में आ जाएगी। इलेक्टोरल कैंपेन में इंटरनेट के इस्तेमाल को लेकर कौंसिल ऑफ यूरोप ने साल 2014 से 2017 के बीच एक स्टडी रिपोर्ट तैयार कराई, जिसमें यूरोपीय देशों के चुनींदा विश्वविद्यालयों, मीडिया व तकनीकी संस्थानों के साइबर विशेषज्ञों की अलग-अलग राय ली गई थी। 22-23 मार्च, 2016 को ब्रसेल्स में इसकी पहली बैठक हुई, जिसमें यूरोपीय मानवाधिकार निदेशालय के प्रतिनिधियों ने भी हिस्सा लिया था। दामियन तंबिनी इसके दूत बनाये गये थे, जिनकी देखरेख में इस रिपोर्ट के दो हिस्से किये गये। पहला, चुनाव में इंटरनेट या साइबर संसाधनों का निष्पक्ष इस्तेमाल, दूसरा लैंगिक समानता सुनिश्चित करना। इस समिति का दायरा काफी बड़ा था, जिसमें बोस्निया हर्जेगोबिना से लेकर नॉर्डिक देश तक के एक्सपर्ट शामिल किये गये थे।
यूरोप के चुनावों में डिज़िटल प्रचार को 2017 में लागू करने से पहले सारी तैयारियां चाक-चौबंद कर ली गई थीं। आभासी प्रचार और उस पर प्रतिक्रिया देने में केवल उन्हीं की शिरकत होती थी, जो रजिस्टर्ड थे। टीवी-रेडियो और बाक़ी वेब संचार माध्यमों में कितने एयर टाइम ख़रीदे जा रहे हैं, वह सभी पार्टियों के लिए एक समान और संतुलित रखा गया। सोशल मीडिया पर वैचारिक स्वतंत्रता, मानवाधिकार, माइनॉरिटी व स्त्री की मान-मर्यादा का कोई हनन न करे, इस पर संबंधित देशों के निर्वाचन आयोगों की नज़र रहती थी।
पांच वर्षों में हुआ यह कि यूरोपीय संघ के बहुत सारे सदस्य देशों ने चुनाव के समय टीवी-रेडियो पर राजनीतिक दलों के विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगा दिये। उसके पीछे मकसद यही था कि चुनाव की निष्पक्षता बरक़रार रहे। इसे और पारदर्शी बनाने के वास्ते यूरोपीय आयोग ने 25 नवंबर, 2021 को एक रिपोर्ट पेश की है। भारत के पांच राज्यों में होने वाले आभासी प्रचार पर यूरोप की भी नज़र है। उनके राजदूत यहां हुए डिज़िटल प्रचार के श्वेत और स्याह पक्ष की रिपोर्ट अपने-अपने विदेश मंत्रालयों को भेजेंगे। उसकी वजह 2024 में यूरोपीय संघ के देशों में होने वाला संसदीय चुनाव है, साथ में कई सारे यूरोपीय मुल्कों में स्थानीय चुनाव भी हैं, जिसके प्रचार में डिज़िटल संसाधनों का सहारा लिया जाना है। विचित्र है, यूरोप वाले हमारे मॉडल को देख रहे हैं, हमने उनकी ओर झांका ही नहीं!
लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के
नई दिल्ली संपादक हैं।