शमीम शर्मा
स्कूल का जितना नाता पढ़ाई-लिखाई से है, उतना ही नकल से भी है। मेरा ख्याल है कि पर्ची का जन्म भी परीक्षाओं के जन्म के साथ ही हो गया होगा। परीक्षक की ड्यूटी देते हुये कई बार ऐसी-ऐसी पर्चियां हाथ लगी हैं कि देखते ही दंग रह जाओ। कई पर्चियों में तो छोटे-छोटे मोती से पिरो रखे होते हैं। ये पर्चियां नकलचियों की अपार मेहनत का प्रमाण भी होती हैं। पर आजकल के नकलची एक नंबर के आलसी हैं। किताबों के पन्ने के पन्ने फाड़ लाते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो फोटोस्टेट पर भरोसा करते हैं। पर एक बात है कि इम्तिहान में खुद को कुछ न आने का इतना दुख नहीं होता जितना साथ वाली सीट पर बैठे को बार-बार शीट लेते देखने का होता है।
नकलचियों के भी अपने ही हिसाब-किताब हैं। नकल का जुगाड़ करने के सैकड़ों फार्मूले इजाद हो चुके हैं। एक कहेगा कि तू हेडिंग बता दे, आग्गै मैं आप्पे सुलट ल्यूंगा। कूल्हे के नीचे पर्ची दबाये बैठा बालक परीक्षा भवन में घुसती फ्लाइंग को देखकर खुद को सांत्वना सी देते हुए कहता है- सबसे पहले आपको घबराना नहीं चाहिये। कुछ तो किस्मत के मारे ऐसे भी हैं जिनका पर्ची खोलते ही केस बन जाता है। मानो वे परीक्षा भवन का भूमि पूजन ही करने आये हों। कुछ भी कहो नकल करवाने में लड़के ज्यादा दिलदार होते हैं। लड़कियां तो शीट की तरफ किसी को झांकने भी नहीं देतीं।
कई टीचर भी क्लास में नकल करवाने में जुट जाते हैं। पर वे यह जरूर कहते हैं कि बाहर जाकर मत कहना कि मैंने नकल करवाई है। इस पर एक छात्र खड़ा होकर बोला- जी हम तो कहेंगे कि एक नंबर का घटिया टीचर था और इतना खड़ूस कि अपनी सीट से हिलना तो दूर गर्दन भी नहीं मोड़ने दे रहा था। ऐसे भी टीचर होते हैं जो कहेंगे कि चैकिंग वाले आ गये ,पर्चियां चबा लो। और पर्चियां चबवाने के बाद कहेंगे कि अब आराम से पेपर करो, कोई चैकिंग नहीं आ रही। कुछ भी हो नकलचियों का हाजमा खूब जानदार होता है जो पर्चियां भी उनके लीवर का कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं।
एक फिसड्डी बच्चे का उलाहना है कि अगर एक टीचर सारे विषय नहीं पढ़ा सकता तो बच्चों से क्यों उम्मीद की जाती है कि वे सारे विषय पढ़ें।
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एक बर की बात है अक नत्थू की मां बोल्ली—पूरा साल तैं किताब कै हाथ नीं लावै अर इम्तहान आले दिन किताबां पै मुद्दा हो ज्यै। नत्थू बोल्या—मां तूफान मैं तै किश्ती काढण का मजा ए अलग है। रामप्यारी छोह मैं बोल्ली—डट ज्या, तन्नैं मैं बनाऊंगी टाइटेनिक का डरैवर।