पुष्परंजन
गत 27 मार्च, 2021 को म्यांमार की राजधानी न्येपीदो में आर्म्स डे परेड थी। दुनिया के तमाम देश जब उसका बहिष्कार कर रहे थे, आठ देशों के प्रतिनिधि उस अवसर पर उस समारोह के साक्षी बने थे। भारत, चीन, पाकिस्तान, वियतनाम, बांग्लादेश, लाओस, थाईलैंड, रूस जैसे आठ मुल्कों का शामिल होना यह दर्शा रहा था कि ये देश प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से म्यांमार की मिलिट्री जंुटा के साथ खड़े हैं। लोकतांत्रिक अधिकारों का हरण कर सेना सत्ता जिस तरह हांकने लगती है, स्पेन में सबसे पहले उसे ‘हुंटा’ कहा गया था। ब्रिटिश उसका अक्षरशः ‘ज़ुंटा’ उच्चारण करते हैं।
म्यांमार के सैन्य शासकों से ‘ज़ुंटा’ शब्द चिपक कर रह गया है। 1 फरवरी, 2021 को मिलिट्री जुंटा के जनरल मिन आंग लिआंग ने जब लोकतांत्रिक रूप से चुनी सरकार को भंग किया था, उसके कुछ घंटों बाद उन्होंने अहद किया था कि साल भर में नयी पार्टी और सरकार का गठन अपनी देखरेख में कराएंगे। मगर, पिछले दो महीनों में जिस तरह 500 लोग मारे गये, हिंसा की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रहीं, उसे देखते हुए शक है कि अगले दस महीनों में म्यांमार की दशा सुधर जाएगी। भारत समेत आठ देशों ने जिस दिन म्यांमार की सैन्य परेड में भाग लिया था, उस दिन सौ लोग मारे गये थे। कोई भी पूछेगा कि क्या आप प्रतिरोध को कुचल देने वाले सैन्य तानाशाहों के समर्थक हैं?
लोकतंत्र की रक्षा में अग्रणी देश भारत ‘स्थितियों की समीक्षा’ कर रहा है, और संभलकर टिप्पणी कर रहा है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने 1 फरवरी, 2021 को आधिकारिक बयान जारी करते हुए कहा था, ‘ म्यांमार की घटनाओं पर हमें गहरी चिंता है। वहां की स्थिति को हम माॅनिटर कर रहे हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया और क़ानून के शासन को बनाये रखना चाहिए।’ 26 फरवरी, 2021 को भी यूएन में भारत के स्थाई प्रतिनिधि टीएस त्रिमूर्ति ने कहा कि म्यांमार की शांति व स्थिरता से हमारा भी सरोकार है। फिर ऐसा क्या हुआ कि भारत ने 27 मार्च, 2021 को न्येपीदो की आर्म्स डे परेड का साक्षी होने का फैसला ले लिया? इस प्रश्न का उचित उत्तर भारतीय विदेश मंत्रालय ही दे सकता है।
आंग सान सूची किसी ज़माने में नज़रबंद होती थीं तो पूरी दुनिया से मिलिट्री जुंटा की भर्त्सना आरंभ हो जाती थी। ऐसा पहली बार हो रहा है कि सूची और नेशनल लीग फाॅर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के साथियों की नज़रबंदी पर तीसरी दुनिया में व्यापक हलचल नहीं हो रही। घटनाक्रमों को देखने पर एक सवाल तो बनता है कि आंग सान सूची ने क्या अपनी साख़ खो दी है? उसकी बड़ी वजह रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ सूची के शासनकाल में हुआ भेदभाव, ज़ुल्मों-सितम है। जो बाइडेन प्रशासन ने जितनी तेज़ी से म्यांमार पर प्रतिबंध लगाया है, उसका सबसे बड़ा कारण सूची से सहानुभूति नहीं, चीनी दखल को म्यांमार में रोकना लगता है।
चीन, भारत की तरह खामोश नहीं, खुलकर म्यांमार मामले में कूटनीति कर रहा है। चीन ने इस बार बंदूक आसियान देशों के कंधे पर रख दी है। चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने फूचियान में आसियान के चार देशों के विदेश मंत्रियों के साथ बैठक की है और उनके हवाले से कहा है कि म्यांमार के मामले में अमेरिकी प्रतिबंध व विदेशी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। आसियान के सदस्यों में सिंगापुर, मलेशिया, इंडोनेशिया और फिलीपींस को इस विषय पर चीन ने सक्रिय किया है तो उसके कूटनीतिक निहितार्थ हैं।
इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, फिलीपींस, कंबोडिया, लाओस, म्यांमार, वियतनाम, ब्रुनेई जैसे दस देशों का संगठन ‘आसियान’, दस करोड़ 40 लाख आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। यह 2.57 ट्रिलियन डाॅलर की मुक्त व्यापार अर्थव्यवस्था है। आसियान के चार्टर में है कि दसों में किसी सदस्य देश पर मुसीबत आती है तो उसका मिलकर मुकाबला करेंगे और किसी बाहरी देश का दखल नहीं होने देंगे। मगर, म्यांमार जिस तरह से विश्व कूटनीति का अधिकेंद्र बन चुका है, उससे आसियान किंकर्तव्यविमूढ़ है। आसियान भी लगता है, म्यांमार वाले मामले में सब कुछ चीन के भरोसे छोड़ रखा है।
2401 किलोमीटर लंबी सीमा से जुड़ा थाईलैंड इस समय म्यांमार से भागे 12 हज़ार कारेन शरणार्थियों से बुरी तरह बावस्ता है। थाई एनजीओ फ्रेंड्स विदाउट बाॅर्डर फाउंडेशन के अनुसार, ‘उत्तर-पश्चिमी इलाके माईहोंग सोंग में तीन हज़ार बर्मी शरणार्थी सालवीन नदी पार कर आ चुके हैं। म्यांमार-भारत की 1643 किलोमीटर सीमा मणिपुर, मिजोरम से लगी है। म्यांमार से पलायन कर इधर कितने लोग आये, गृह मंत्रालय द्वारा आधिकारिक आंकड़ा मिलना अभी बाक़ी है। 20 मार्च को मिजोरम से राज्यसभा सांसद के. वनलालवेना ने जानकारी दी कि म्यांमार से भाग कर आये शरणार्थियों की संख्या हज़ार से अधिक है। उससे पहले, 18 मार्च, 2021 को मिज़ोरम के मुख्यमंत्री जोरामथांगा ने पीएम मोदी को पत्र लिखकर सतर्क किया कि सीमा पर जो कुछ हो रहा है, उससे हम आंखें मूंद नहीं सकते।
चीन, दरअसल म्यांमार को अपना उपनिवेश समझ बैठा है। वहां लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार में उसके लोग होने चाहिए, और शासन जब सेना पलट कर अपने हाथ में ले ले, तब भी चीन समर्थक मंत्री होने चाहिए। चीन का अवसरवाद समझना है तो म्यांमार उसका रोल माॅडल है। 2016 में आंग सान सूची की पार्टी नेशनल लीग फाॅर डेमोक्रेसी सत्ता में आई तो चीन ने एनएलडी से प्रगाढ़ संबंध गांठ लिये। अगस्त 2017 में रोहिंग्या शरणार्थियों पर जब सितम शुरू हुआ, चीन ने यूएन तक में आंखें मूंद ली। वजह उसकी वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) परियोजना का म्यांमार में विस्तार था। अप्रैल, 2019 में जब ओबीओआर की दूसरी बैठक हुई, उसमें म्यांमार की तत्कालीन स्टेट काउंसलर आंग सान सूची पधारीं और चीन म्यांमार आर्थिक काॅरीडोर के तीन सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किये।
इस समय चीन की चिंता आंग सान सूची की सत्ता में वापसी नहीं, बल्कि म्यांमार में स्थापित चीन फैक्टरियां, तेल-गैस पाइपलाइन, अधोसंरचना की सुरक्षा है। रूस, म्यांमार के सैनिक शासन के प्रति साॅफ्ट इसलिए है क्योंकि उसके हथियारों की सप्लाई ज़बरदस्त रूप से बढ़ी है। स्टाॅकहोम स्थित इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीच्यूट के डाटा बताते हैं कि वियतनाम के बाद म्यांमार दक्षिण-पूर्व एशिया का दूसरा देश है, जिसने सबसे अधिक 807 मिलियन डाॅलर के रूसी सैन्य साज़ो-सामान ख़रीदे। उससे पहले 2001 से 2016 के बीच म्यांमार ने चीन से 1.42 अरब डाॅलर के मिलिट्री हार्डवेयर ख़रीदे थे, और रूस से 1.45 अरब डाॅलर के सैन्य साज़ो-सामान आयात किये थे। म्यांमार में रूसी-चीनी गठजोड़ से क्या नयी दिल्ली वाकिफ नहीं है? या फिर 1988 से 2020 तक म्यांमार में कितना चीनी निवेश हुआ, उसका डाटा नहीं है दिल्ली के पास?
लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के नयी दिल्ली संपादक हैं।