गुजरात सरकार ने विद्यालयों में छठी से 12वीं कक्षा तक पाठ्यक्रम में आध्यात्मिक पढ़ाई शामिल करने निर्णय लिया है और खबरों के अनुसार कर्नाटक सरकार भी इसका अनुसरण करने की इच्छा रखती है। हमारे जैसा देश, जिसका चरित्र विभिन्न धार्मिक रिवायतों का पालन करने वाला रहा है, अब वहां बढ़ते बहुसंख्यक प्रभुत्व के बीच धर्म-निरपेक्षता बनाए रखने पर सवाल उठे हैं। शिक्षा में इस किस्म के प्रयोगों की अनुक्रिया और प्रतिक्रिया होना अवश्यंभावी है।
शुरुआत के लिए, कल्पना करें कि आज तक वैज्ञानिक सोच रखने वाले और इनके हिमायती शिक्षा और धर्म के इस घालमेल को किस नजर से देखेंगे। जैसा कि कहा जाता है, विज्ञान एक प्रयोगसिद्ध, अवलोकन, सिद्धांत की मीमांसा, तर्कपूर्ण प्रगति और अज्ञान के बंधन से मुक्ति की इबारत है, इसलिए संसार को समझने की बच्चे की दृष्टि को धर्मग्रंथों के पठन-पाठन से प्रभावित करने का स्वाभाविक असर पीछे की ओर लौटने जैसा होगा। उनके अनुसार, इसकी बजाय ध्येय बनाने में वैज्ञानिक मनोवृत्ति, गणितीय तार्किकता, संस्कृति को देखने की क्षमता, समाज और इतिहास के प्रति जिज्ञासा पर ध्यान दिया जाता और विज्ञान इसका प्रतिपादन करता है। यह मिथक और इतिहास या फिर कल्पना और तथ्यों के बीच का फर्क जानने जैसा है।
अक्सर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी वर्ग इस किस्म की वैज्ञानिक सोच की ताईद करते हैं और इस अवस्था की पैरवी करते हैं। विद्यालयों के पाठ्यक्रम में आध्यात्मिक ग्रंथ शामिल करने पर वे हमें याद दिलाते हैं कि ऐसा करना उग्र राष्ट्रवाद को उभारना होगा और इससे बहुसंख्यकों की हनक और प्रचंड हो जाएगी। इसके अलावा, जैसा कि वामपंथी-अंबेडकरवादियों का एक समूह कह सकता है कि इसकी वजह से हाशिए पर आने वाले एवं अल्पसंख्यकों में आगे मानसिक एवं सांस्कृतिक असुरक्षा की भावना बनेगी।
दूसरा पक्ष इस प्रकार की धर्मनिरपेक्ष वैज्ञानिक सोच के विपरीत सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थकों का है, जिनका मानना है कि भगवद्गीता नैतिकता और आध्यात्मिकता का सबक देती है और हमारे बच्चों को इस समृद्ध परंपरा से वाफिक करवाया जाना चाहिए। आगे, तर्क देंगे कि पश्चिम-अंधानुकरण और वैश्वीकरण का मिश्रण हमारी सांस्कृतिक स्मृति को ध्वस्त करने की प्रक्रिया है, इसलिए ‘मैक्डॉनल्डवाद’ की ओर अग्रसर दुनिया में अपना पुरानी वैभवशाली विरासत और सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक मूल की ओर जाने के लिए इनका प्रतिरोध करना जरूरी है। आगे से यह सवाल भी आएगा : ‘क्या धर्मनिरपेक्षता का मतलब केवल हिंदू रिवायतों का मखौल उड़ाना है? यदि मदरसे इस्लामिक शिक्षा देने में गर्व महसूस करते हैं तो हिंदू क्यों पीछे रहें?’
तथापि, इस सारी स्थिति को ‘वाम बनाम दक्षिण पंथ’ या ‘धर्मनिरपेक्ष बनाम सांप्रदायिकता’ के सामान्य और पूर्वानुमानित दो-पक्षीय राजनीतिक जुमलों पर आधारित नजरिए से परे हटकर देखने की जरूरत है। इस संदर्भ में, दो तरह की टिप्पणियां बन सकती हैं। पहली, भगवद्गीता जैसे पाठ्यक्रम का सरलीकरण क्या प्रतिगामी होगा या प्रगतिशील? तथ्य तो यह है कि कुरुक्षेत्र की रणभूमि में दुविधा में पड़े अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच संवाद ने आधुनिक भारत के नाना प्रकार के विचारकों की परिकल्पना को उद्वेलित किया है– बाल गंगाधर तिलक से लेकर मोहनदास करमचंद गांधी, स्वामी विवेकानंद से लेकर श्री ऑरोबिंदो तक या डीपी चट्टोपाध्याय से लेकर बीआर अंबेडकर तक की मीमांसाएं हैं– यानी एक ऐसा काव्य, जिसकी विभिन्न महीन व्याख्याएं, शब्दार्थ और संभावनाओं भरी विवेचना हुई हो। जहां इनमें कुछ विचारकों को वर्ण-सिद्धांत की प्रासंगिकता सही लगी हो, वहीं अन्य कुछेक को इसमें बताए गए परित्याग का सिद्धांत भाया–यानी सांसारिक गतिविधियों में गहरे तक रमा मनुष्य जीवन के हरेक पहलू को हानि-लाभ के गणित से तौलने वाली प्रवृत्ति तज दे। इसलिए युवा प्रशिक्षु जब गूढ़ विषयों को पढ़ने-समझने-मनन लायक बौद्धिक प्रौढ़ता पा लें, तब इसके पठन-पाठन को उत्साहित करने में कोई हानि नहीं, ठीक वैसे ही जब एक उम्र में पहुंचकर वे अन्य क्लिष्ट कृतियां जैसे कि शेक्सपियर, कार्ल मार्क्स या जीन पॉल सारट्रे इत्यादि की पढ़ाई करते हैं। वैसे भी, छठी या यहां तक कि दसवीं के छात्र को श्लोक तोते की तरह रटने के लिए कहना सार्थक न होगा, और वह दर्शन या अस्तित्व जैसे जटिल विषयों की गुंझलें समझने या इनके उत्तर की खोज किए बिना केवल अध्याय रटता रह जाएगा। शिक्षा का ध्येय ‘रटना भर’ नहीं है– चाहे यह कोई धार्मिक पुस्तक या यहां तक कि वाम कट्टरवादी विचार क्यों न हों। इसका उद्देश्य ज्ञान की खोज में यायावर या जिज्ञासु बनाना है।
दूसरी टिप्पणी में, हमें सचमुच ऐसे संवेदनशील और कर्मशील शिक्षा शास्त्रियों की जरूरत है जो विद्यार्थियों के मानस में नैतिकता पूर्ण आचार-विचार का बीज बोएं और आध्यात्मिकता परिपूर्ण कक्षा लगाएं। हमें एक अच्छे शिक्षक और संगठित धर्मों के पुरातनपंथी पुरोधा के बीच फर्क की शिनाख्त करना सीखना होगा। यह ठीक वैसा है जैसा कि एक बढ़िया अध्यापक किसी राजनीतिक दल का पारंगत प्रवक्ता नहीं हो सकता– चाहे फिर यह पार्टी वाम हो या दक्षिणपंथी। इसकी बजाय गुरुजनों का काम युवा प्रशिक्षु को हाथ पकड़कर चलाना, नए सवाल पूछने के लिए उत्साहित करना, दुनिया को सहृदयता और जागरूकता से देखना सिखाना है।
उदाहरणार्थ महात्मा गांधी ने भगवद्गीता पढ़कर ‘अनासक्ति योग’ सीखा था। क्या एक शिक्षक अपने छात्रों को आसपास की दुनिया का अवलोकन, आत्मविवेचना और यह पूछने को बढ़ावा देता है कि अनासक्ति योग का पालन इतना कठिन क्यों है। या फिर क्या एक अध्यापक किसी विद्यार्थी को अपने दृष्टिहीन सहपाठी की मदद, बिना तारीफ की चाहना किए या इस सामाजिक भलाई के बदले इनाम की अपेक्षा रखे, किताबें पढ़कर करने को उत्साहित करता है? अनासक्ति योग को परिलक्षित करने का यह ज्यादा अर्थपूर्ण रास्ता है। या फिर, अगर एक शिक्षक छात्रों से बरतने में सचमुच शांत, संयमित और मननशील बना रहे तो शायद उन्हें भगवद्गीता के इस अन्य सबक को मूर्त रूप में समझा पाएगा : ‘राजसी वैभवशीलता और तामसी जड़ता के बरक्स अंतस में अंदरूनी सात्विक शांति का उत्सव बनाए रखना उत्तम है।’ क्या वह ऐसा कर पाएंगे? यदि उपदेश के रूप में बताए आदर्शों और वास्तविक व्यवहार के बीच अंतर रहे, तो स्कूली पढ़ाई छलावा है।
क्या इन शैक्षणिक चुनौतियों के लिए, खासकर जब आध्यात्मिक पाठ्यक्रम पढ़ाया जाए, हमारे विद्यालय सचमुच यथेष्ट बौद्धिक और नैतिकता से सज्जित हैं? या फिर इस पाठ का पीरियड गणित, भूगोल, भौतिकी और इंग्लिश ग्रामर की तरह युवा मस्तिष्कों पर बोझ डालने वाली सूची में इजाफा भर और रटंत-संस्कृति को बढ़ावा देने वाला एक और विषय बन जाएगा।
लेखक समाजशास्त्री हैं।