योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
आज समाज में खुद को ‘खुदा’ समझने की लालसा इतनी बढ़ती जा रही है कि जरा-जरा सी बात पर भी आदमी के भीतर कुंडली मार कर बैठा हुआ अहंकार का नाग फुंकार उठता है और तब आदमी चिल्ला-चिल्ला कर बोलता है ‘तू जानता नहीं, मैं कौन हूं?’
यही आदमी खुद भी नहीं जानता कि वह ‘कौन’ है? क्षणभंगुर काया और चंचला माया के ऊपर इतराने वाला ही घमंड में चूर हो कर चिल्लाता है ‘तू जानता नहीं, मैं कौन हूं?’ हर आदमी जानता है कि फक्कड़ मस्त कबीर आदमी की सच्चाई बता गये हैं :-
‘पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
देखत ही छिप जायेगा, ज्यों तारा परभात। ’
इस शाश्वत सच्चाई को जानते हुए भी जाने किस बात का घमंड हम करते हैं? पूरी ‘गीता’ का सारतत्व यही तो है कि ‘कर्ता’ ईश्वर है और हम उसके हाथों में खेलने वाली कठपुतलियां मात्र हैं। आत्म-प्रशंसा की यह बीमारी आजकल इतनी बढ़ गई है कि खुद अपने ‘कल’ को न जानने वाला भी दूसरों को धमकाता है कि ‘कल तुझे मज़ा चखाऊंगा।’
आदमी के इस आत्म-प्रशंसा वाले लाइलाज रोग के विषय में मुझे हाल ही में एक पौराणिक बोधकथा पढ़ने को मिली, जो मैं अपने विद्वान मित्रों से इसलिए साझी करना चाहता हूं कि वे भी इस रोग से दूर रह सकें :- ‘महाराज ययाति अपने छोटे पुत्र का राज्याभिषेक करके कठोर तपस्या के लिए वन चले गए। उन्होंने अपने कठोर तप के बल पर अनेक वरदान प्राप्त किए, जिनमें एक यह भी था कि वे पूरे ब्रह्मांड, ब्रह्मलोक, देवलोक और मृत्युलोक इत्यादि में ‘सशरीर’ आवागमन कर सकते थे।
तपी ययाति भ्रमण करते हुए जब भी स्वर्गलोक आते थे, उनके पुण्यों के कारण देवराज इंद्र को उन्हें अपने पास सिंहासन पर बैठाना पड़ता था, क्योंकि इंद्र तपी ययाति को अपने से नीचा पद नहीं दे सकते थे। इस बात से देवराज इंद्र बहुत अधिक दुखी थे। वे किसी भी प्रकार से तपस्वी ययाति को स्वर्ग में आने से रोकना और बहिष्कृत करना चाहते थे। स्वर्ग के अन्य देवताओं को भी ययाति का स्वर्ग में आना अच्छा नहीं लगता था।
एक दिन जब ययाति स्वर्ग आए और इंद्र के साथ उसके सिंहासन पर बैठे, तो इंद्र एवं अन्य देवताओं ने पहले ही तपी ययाति को स्वर्ग से बहिष्कृत करने की योजना बना रखी थी। जैसे ही ययाति सिंहासन पर बैठे, देवराज इंद्र ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करनी शुरू कर दी और उनकी इस प्रशंसा में स्वर्ग के अन्य देवगणों ने भी हां में हां मिलाना शुरू कर दिया।
देवराज इंद्र बोले, ‘महाराज! मुझे यह जानने की इच्छा है कि आपने ऐसा कौन-सा तप किया है, जिसके कारण आपको सशरीर कहीं भी आने-जाने की शक्ति मिली हुई है?’ ययाति अपनी प्रशंसा सुनकर बड़े खुश हुए। वे पूरी तरह इंद्र के जाल में फंस गए और अपने गुणों का बढ़-चढ़ कर बखान करने लगे। बोले, ‘मेरे जैसी तपस्या तो किसी ने कभी की ही नहीं है और मेरे जैसा कहीं भी, ‘सशरीर’ आने-जाने का गुण किसी को भी प्राप्त नहीं हुआ है।’
आत्म-प्रशंसा में बुरी तरह डूबे तपी ययाति बढ़-चढ़ कर अपनी आत्म-प्रशंसा करने लगे और इधर ययाति के सभी गुण उनकी ‘आत्म-प्रशंसा’ के कारण प्रभाव शून्य होते गए। परिणामतः वे स्वर्ग से बहिष्कृत हो गए।
इस बोधकथा का सार-तत्व यही तो है कि जब हम ‘अपने मुंह मियां मिट्ठू’ बनने लगते हैं, तो हमारे वे सभी गुण नष्ट हो जाते हैं, जिनके कारण हमें समाज में मान-सम्मान मिलता है। इसीलिए अंग्रेज़ी में तो प्रसिद्ध कहावत ही बन गई है कि ‘सेल्फ प्रेज़ इज नो प्रेज़’ अर्थात खुद की गई प्रशंसा आदमी की प्रशंसा नहीं हुआ करती। संत कबीर तो हमें जीवन का मर्म बताते हुए बड़ी ही आसान शब्दावली कह गये हैं :-
‘दोस पराए देखि करि, चला हसंत हसंत।
अपने या न आवई, जिनका आदि न अंत।’
हम अपने दोषों और बुराइयों को तो कभी देखते नहीं, बस दूसरों के दोष ढूंढ़ते रहते हैं। अपनी निन्दा सुनना हमें बहुत नागवार लगता है। सच तो यह है कि प्रशंसा तो वही होती है, जो किसी की अनुपस्थिति में की जाए। आत्म-प्रशंसा तो वास्तव में अभिमान का चरम रूप ही होती है, जिसे सन्तों ने तो ज़हर ही माना है। हमारे आचार्यों ने तो विद्या प्राप्त कर लेने वाले का सबसे बड़ा गुण ही ‘विनम्रता’ स्वीकार करते हुए कहा है :- ‘विद्या ददाति विनयं, विनयात याति पात्रताम’ अर्थात् विद्या मानव को विनय देती है और विनय से आदमी में पात्रता आती है। इस का सीधा-सा अर्थ यही तो निकलता है कि हमें ‘आत्म-प्रशंसा’ के ज़हर से बचते हुए विनयी होना चाहिए। लोकजीवन में एक कहावत बड़ी ही प्यारी और मौजू है ‘जिसने भी खाया, बेटा बनकर खाया, बाप बनकर कोई नहीं खा सका।’
आइए, इस आत्म-प्रशंसा के ज़हर से अपने को बचाएं ताकि समाज में शांति और सौहार्द बढ़े। आपकी और मेरी विनम्रता मुस्कान के फूल खिला सकती है।