
सुबीर रॉय
नये वित्त वर्ष में भारत अपनी अर्थव्यवस्था में वह तरक्की बनाना चाहता है जो वक्ती खुशनुमा अहसास न देकर स्थायित्व वाली हो। यह इसलिए कि भारत को विश्व में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बनाने की राह में कई ऐसे मुकाम आएंगे, जिनकी प्रकृति विकास दर को नीचे खींचने की होगी, लिहाजा इनका उपाय करना जरूरी है। सरकार के अपने शब्दों में : ‘नीचे खिसकने का जोखिम... ऊपर उठने का मौका।’
सरकार ने अर्थव्यवस्था की विकास दर 6.5 प्रतिशत रखने की आकांक्षा दोहराई है, भले ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने अपने आकलन में मौजूदा वित्त वर्ष में इसको 20 बिंदु घटाकर 5.9 फीसदी दर्शाया है। भारत को लेकर विश्व बैंक का आकलन इससे कुछ बेहतर यानी 6.3 फीसदी है। आशा को संयमित रखने के पीछे कारण कई हैं। सबसे पहला यह कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की दर फिलहाल अधोन्मुख है। वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में, औसत आर्थिक विकास दर 3 प्रतिशत रहने का आकलन है, जो कि पिछले साल के 2.8 फीसदी से कुछ ही अधिक है।
वैश्विक आर्थिक विकास दर निस्तेज रहने के पीछे मुख्य कारण है तेल की कीमतें। तेल उत्पादक संघ ने उत्पादन घटा दिया है, जिसकी वजह से कीमतें अप्रैल माह में मार्च के न्यूनतम से अधिक रहीं। जब तक यूक्रेन-रूस युद्ध चलता रहेगा, विश्वभर में वस्तुओं के दामों में उतार-चढ़ाव बना रहेगा क्योंकि तेल उत्पादक संघ के ‘आपूर्ति खेल’ से तेल की कीमतें एक बिंदु से नीचे नहीं जा पा रहीं। वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव के पीछे दूसरी बड़ी वजह है अमेरिका में सिलिकॉन वैली बैंक के दिवालिया होने के बाद से ऋण-प्रणाली पर पड़ा प्रभाव और जिससे बनी उथल-पुथल ने दुनियाभर को चपेट में ले रखा है। यह स्थिति विदेशी निवेश के आसान प्रवाह में अड़चन पैदा कर रही है। जोखिम उठाने और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में निवेश करने की बजाय अमेरिकी सरकार की निवेशकों को सरकारी प्रत्यभूतियों में धन लगाने पर अधिक प्रोत्साहन राशि देने वाली नीति से मदद नहीं मिलने वाली।
लेकिन सुदूर देशों में उठती इन लहरों की मार का असर ज्यादा रहने की बजाय, हमारे अपने देश की अर्थव्यवस्था को जो सबसे बड़ी अनिश्चितता और जोखिम दरपेश है, वह है आगामी मानसून की दशा। देश के कुछ अंचलों में प्रचंड गर्मी की वजह से पहले ही सब्जियों के दामों में बहुत तेजी आई है। खाद्य वस्तुओं की कीमतें भी ऊंची हैं और यदि बारिश कम हुई तो स्थिति क्या होगी, कोई पता नहीं। पिछले कुछ सालों के आंकड़ों से देखा जाए तो परिस्थितियां अल-नीनो की चोट का इशारा कर रही हैं, जिसकी वजह से देश में मानसून चक्र असामान्य हो सकता है।
एक तो वैश्विक अर्थव्यवस्था की मौजूदा चाल से कोई सहायता न मिलने और दूसरा कृषि उत्पादन क्षीण रहने की आशंका से आर्थिक वृद्धि दर में और कमी आने के कयास से, तमाम नजरें और उम्मीदें अब उत्पादन और सेवा क्षेत्र की कारगुजारी पर टिकी हुई हैं। अब तक तो, बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक निवेश ने बाजार मांग के अनुरूप परिणाम दिया है, लेकिन यह सफर आगे भी यूं ही जारी रहेगा, उम्मीद कम है। निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा देने के सरकार के प्रयासों से उम्मीद बंधती है कि उलीकी गई आर्थिक वृद्धि के लिए जो अवयव जरूरी हैं, वे बन पाएंगे।
आर्थिकी में निजी क्षेत्र का निवेश फिलवक्त बहुत महत्व रखता है क्योंकि उपभोक्ताओं की मौजूदा व्यय-समर्था से अर्थव्यवस्था में वांछित परिणाम नहीं मिल पाए। चाहे यह आवास हो या वाहन या फिर मोबाइल फोन की खरीदारी, उपभोक्ता बाजार की चोटी इन श्रेणियों में काफी मांग देखी जा रही है, जबकि बाकी वस्तुओं की मांग में भारी कमी बनी हुई है। नतीजतन, कोविड महामारी के बाद वाले काल में, विवेकाधीन व्यय श्रेणी में तो मांग देखी जा रही है किंतु आवश्यक वस्तुओं की खपत में कमी निरंतर जारी है। इसका पता रोजमर्रा की वस्तुएं बनाने वाली कंपनियों की कमजोर बिक्री से साफ लग जाता है। उपभोक्ता किसी वस्तु की खरीदारी तभी कर रहा है जब उसको लिए बिना कोई चारा नहीं।
अधिसंख्य जनता की इस क्षीण खरीदारी-क्षमता के अलावा निजी क्षेत्र की मुश्किलों को जिसने बढ़ाया है, वह है वित्तीय संस्थानों द्वारा कर्ज पर लागू मौजूदा ऊंची ब्याज दर। उन्हें भी यह इसलिए करना पड़ा क्योंकि मुद्रास्फीति को 4 फीसदी से नीचे रखने का ध्येय को पाने को रिजर्व बैंक नियामक दर को ऊपर उठा देता है। पूंजीगत व्यय को बढ़ावा देने के लिए, खासकर जब अधिकांश उपभोक्ता वस्तुओं की मांग काफी कम हो, ऐसे में कंपनियों-व्यापारियों को ऊंची दर पर उधार देने वाले उपाय से शायद ही कोई फायदा हो।
इस स्थिति में, आर्थिक विकास दर 6.5 फीसदी रखने के ध्येय को धक्का लगने का जोखिम न्यूनतम रहे, देश के नीति-निर्धारिकों के पास कौन से विकल्प बचते हैं सिवाय कुछ सुधार करने के? सर्वप्रथम, कोविड महामारी के बाद अर्थव्यवस्था में जिस तरह अंग्रेजी अक्षर के-आकार वाला सुधार पैटर्न बनने लगता था, वह जाता रहा, जिसकी वजह से चोटी के कुछ अमीरों की आय में गैर-अनुपातीय वृद्धि हुई, उसका उपाय करना होगा। जनसंख्या के निचले वर्ग की समुचित क्रय-शक्ति बनाना जरूरी है ताकि ग्रामीण इलाके में आवश्यक वस्तुओं की खरीदारी होने से, इन्हें बनाने वाली कंपनियों का धंधा भी फले-फूले। गरीबों की आय में अतिरिक्त मदद उपायों से बढ़ोतरी करने की आवश्यकता आगे भी बनी रहेगी, इसके लिए ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का क्रियान्वयन और सुचारु ढंग से करने की जरूरत है। इसके अलावा, लघु और मध्यम उद्यमियों का काम-धंधा बढ़ सके, इसके लिए उनकी समुचित कार्यकारी-पूंजी क्षमता बनाना जरूरी है।
महामारी उपरांत, अर्थव्यवस्था को दुबारा पटरी पर लाने को, सरकार के कहने पर वित्तीय संस्थानों ने जो योजनाएं लागू की थीं, उन्हें आगे भी जारी रखने और उन तक अधिक पहुंच बनाने की आवश्यकता है। भले ही वह काम-धंधे जिनके पास किसी एजेंसी की रेटिंग न भी हो, उन्हें भी बिना अतिरिक्त मुश्किलों के और ज्यादा कार्यकारी-पूंजी जुटाने लायक बनाने को उपाय करने चाहिए। लघु और मध्यम उद्यमियों के हाथ में और अधिक कार्यकारी पूंजी होने से वे अपना काम बढ़ा सकेंगे और अतिरिक्त अस्थाई हाथों को काम दें पाएंगे, जिससे दोनों की आवश्यक वस्तुओं की क्रय-क्षमता में बढ़ोतरी होगी। आगे यह सम्मिलित मांग की प्रवृत्ति कॉर्पोरेट्स क्षेत्र की कमाई तक जाती है, जिससे उनकी व्यय क्षमता बढ़ेगी और इसके परिणाम में अर्थव्यवस्था को वह उभार मिल पाएगा, जो आज तक बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश से मिलता आया है।
काम-धंधा करने के आसान बनाने वाले सूचकांक में सुधार करने की भी फौरी जरूरत है ताकि विशाल-स्तरीय उच्च-तकनीक उत्पादक चीन की बजाय भारत में अपनी इकाइयां स्थापित कर सकें। अधिक से अधिक क्षेत्रों में उत्पादन-संबंधित प्रोत्साहन योजना को मंजूरी देना मान लिया गया है और इसमें भागीदारों के विषय-विशेष को लेकर बनी मुश्किलों का हल करने के लिए निरंतर नज़र बनाए रखना जरूरी है। इस योजना का मतलब है आसान नियम और भागीदारों को आयात दरों की अतिरिक्त श्रेणियां मिलने से उचित दर पर उत्पाद बनाने में आसानी होगी। किसी भी योजना का कभी-न-कभी अंत होना होता है, भारतीय उत्पादकों को घरेलू और वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा का सामना करने और फलने-फूलने के लिए समर्थ बनना ही होगा।
लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं।
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