ज्ञाानेन्द्र रावत
आज देश के भाल हिमालय का समूचा क्षेत्र संकट में है। इसका प्रमुख कारण इस समूचे क्षेत्र में विकास के नाम पर अंधाधुंध बन रहे अनगिनत बांध, पर्यटन के नाम पर हिमालय को चीर कर बनायी जा रही ऑल वैदर रोड और उससे जुड़ी सड़कें हैं। दुख इस बात का है कि हमारे नीति-नियंताओं ने कभी भी इसके दुष्परिणामों के बारे में सोचा तक नहीं। वे आंख बंद कर इस क्षेत्र में पनबिजली परियोजनाओं को और पर्यटन को ही विकास का प्रतीक मानकर उनको स्वीकृति-दर-स्वीकृति प्रदान करते रहे हैं, बिना यह जाने-समझे कि इससे पारिस्थितिकी तंत्र को कितना नुकसान उठाना पड़ेगा।
विडम्बना यह है कि यह सब उस स्थिति में हो रहा है जब दुनिया के वैज्ञानिकों ने इस बात को साबित कर दिया है कि बांध पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा हैं और दुनिया के दूसरे देश अपने यहां से धीरे-धीरे बांधों को समेटते जा रहे हैं। इसके लिए किसी एक सरकार को दोष देना मुनासिब नहीं होगा। वह चाहे संप्रग सरकार हो या फिर राजग। जहां तक संप्रग सरकार का सवाल है तो उसने पर्यावरणविदों और गंगा की अस्मिता की रक्षा के लिए किये जा रहे आंदोलनकारियों के दबाव में उत्तराखण्ड में बांधों के निर्माण पर रोक लगा दी थी लेकिन 2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद राजग सरकार ने न केवल बांधों के निर्माण को मंजूरी दी बल्कि इस क्षेत्र में पर्यटन के विकास की खातिर पहाड़ों को काट-काटकर सड़कों के निर्माण को मंजूरी दे दी।
यदि यह सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो इस पूरे हिमालयी क्षेत्र का पर्यावरण कैसे बचेगा। विडम्बना यह है कि हमारी सरकार और देश के नीति-नियंता, योजनाकार यह कदापि नहीं सोचते कि हिमालय देश का भाल है, गौरव है, स्वाभिमान है, प्राण है। जीवन के सारे आधार यथा- जल, वायु, मृदा सभी हिमालय की देन हैं। देश की तकरीबन 65 फीसदी आबादी का जीवन आधार हिमालय ही है क्योंकि उसी के प्रताप से वह फलीभूत होती है। यदि उसी हिमालय की पारिस्थितिकी प्रभावित होती है तो देश प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा।
वैज्ञानिक, पर्यावरणविद् और समाज विज्ञानी सभी मानते हैं कि हिमालय की सुरक्षा के लिए सरकार को इस क्षेत्र में जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए पर्वतीय क्षेत्र के विकास के मौजूदा मॉडल को बदलना होगा। उसे बांधों के विस्तार की नीति भी बदलनी होगी। साथ ही पर्यटन के नाम पर सड़कों के लिए पहाड़़ों के विनाश को भी रोकना होगा। बांधों से नदियां तो सूखती ही हैं, इसके पारिस्थितिकीय खतरों से निपटना भी आसान नहीं होता। यदि एक बार नदियां सूखने लगती हैं तो फिर वे हमेशा के लिए खत्म हो जायेंगी। पहाड़ नहीं होंगे तो हमारा वर्षा चक्र प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा, परिणामतः मानव अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा।
शायद इसी खतरे को भांपते हुए दिवंगत राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने चार साल पहले 20 मई को राष्ट्रपति भवन में आयोजित माउंट एवरेस्ट पर पहले भारतीय पर्वतारोही दल की ऐतिहासिक जीत के स्वर्ण जयंती समारोह के अवसर पर कहा था कि हिमालय को प्रदूषण से बचाना आज की सबसे बड़ी चुनौती है। इसलिए इस क्षेत्र में पारिस्थितिकी संरक्षण के लिए काम करने की महती आवश्यकता है। विडम्बना यह कि इस बात को सरकार और उसके कारकुन मानने को कतई तैयार नहीं हैं। उनके लिए नदी मात्र जल की बहती धारा है। चाहे हिमालय के उत्तर-पूर्व हों या पश्चिमी राज्य, सभी ने पर्यावरण के सवाल को दरकिनार करने में ही अपनी भलाई समझी। उत्तराखण्ड के रूप में अलग राज्य बनने के बाद इसमें और बढ़ोतरी हुई। इसमें सबसे महत्वपूर्ण काम यह हुआ कि पर्यावरण का सवाल पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया।
यह पूरा क्षेत्र भूकंप के लिहाज से अति संवेदनशील है। तात्पर्य यह कि सिस्मिक जोन पांच में होने के कारण इस क्षेत्र में भूकंप का हमेशा खतरा बना ही रहता है। विशेषज्ञ मानते हैं कि हिमालयी क्षेत्र से निकलने वाली नदियों और वनों को यदि समय रहते नहीं बचाया गया तो इसका दुष्प्रभाव पूरे देश पर पड़े बिना नहीं रहेगा। असलियत यह है कि विकास के ढेरों दावों के बावजूद अभी भी हिमालय क्षेत्र में रहने वाली तकरीबन 80 फीसदी आबादी सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित है। जिसकी वजह से वह पलायन को विवश हैं। हिमालय क्षेत्र के तकरीबन सैकड़ों गांव आज भी अंधेरे में रहने को विवश हैं। 60-65 फीसदी देश के लोगों की प्यास बुझाने वाला हिमालय अपने ही लोगों की प्यास बुझाने में असमर्थ है। आवश्यकता इस बात की है कि सत्ता प्रतिष्ठान इस हिमालयी क्षेत्र की पारिस्थितिकी की वजहों के हल तलाशें और ऐसे विकास को तरजीह दें ताकि पर्यावरण की बुनियाद मजबूत हो और उसे व्यापक बनाने की दिशा में अनवरत प्रयास किए जाते रहें।