आलोक यात्री
दुनिया में महिला व पुरुषों के बीच असमानता वाली लैंगिक रिपोर्ट का ताजा संस्करण यह बताता है कि तमाम कोशिशों के बाद भी स्त्रियों को बराबरी का दर्जा हासिल करने के लिए एक और सदी तक इंतजार करना पड़ सकता है। वर्ल्ड इकोनामिक फोरम की इस साल की वैश्विक लैंगिक भेदभाव रिपोर्ट में 156 देशों में भारत 144वें स्थान पर खिसक गया है। बीते साल भारत 112वें स्थान पर था। दूसरी ओर आइसलैंड लगातार 12वीं बार दुनिया में सबसे ज्यादा लैंगिक समानता वाले देश के रूप में शीर्ष पर है। इस मामले में फिंनलैंड दूसरे, नॉर्वे तीसरे, न्यूजीलैंड चौथे और स्वीडन पांचवें स्थान पर है।
यह रिपोर्ट उस समय और भी महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हो जाती है जब भारत को दुनिया भर में तीन तलाक से मुक्त, महिला आरक्षण और लैंगिक सहभागिता के बरअक्स देखा जा रहा हो। रिपोर्ट का सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि एशिया में सिर्फ पाकिस्तान और अफगानिस्तान ऐसे देश हैं जो लैंगिक समानता के मामले में भारत से पीछे हैं। भारत से आगे देशों में बांग्लादेश की स्थिति हमसे कहीं बेहतर है। वह 65वें स्थान पर है। लिहाजा यह सवाल उठना लाजमी है कि 21वीं सदी का भारत जा कहां रहा है?
आज के दौर में सरकारें वही दिखाती हैं जो वह दिखाना जरूरी समझती हैं। जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वहां की गई घोषणाओं पर एक नजर डालने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि लगभग हर क्षेत्र में फिसल रहे देश को संभालने का कोई दावा या वादा नहीं किया जा रहा है। इस संदर्भ में गौर करने वाली बात यह है कि देश में लंबे समय से बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, उज्ज्वला योजना समेत महिलाओं के सशक्तीकरण और उन्हें बढ़ावा देने की कई योजनाओं पर अमल हो रहा है। बावजूद इसके 2021 में भारत 28 पायदान नीचे आ गया है।
गौरतलब है कि वैश्विक लैंगिक अंतराल के आकलन की जरूरत पहली बार 2006 में महसूस की गई थी। जिसमें आर्थिक भागीदारी और अवसर, शिक्षा का अवसर, स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता तथा राजनीतिक सशक्तीकरण के आधार पर महिलाओं की उपलब्धियों का आकलन किया जाता है। रिपोर्ट खुलासा करती है कि इस क्षेत्र में खासकर दक्षिण एशियाई देशों में भारत का प्रदर्शन सबसे खराब रहा है।
महिला तथा पुरुषों को समान अधिकार, दायित्व तथा रोजगार के अवसरों के मद्देनजर दिसंबर, 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की उच्चस्तरीय बैठक में एजेंडा-2030 के तहत 17 सतत विकास लक्ष्यों को रखा गया था। जिसे भारत सहित 193 देशों ने स्वीकार किया था। इसकी जरूरत शायद इसलिए बढ़ी क्योंकि लगभग पूरी दुनिया में महिलाओं को परंपरागत रूप से कमजोर या पुरुषों के मुकाबले कमतर समझा जाता है। सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनैतिक प्रगति के बावजूद मौजूदा भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक मानसिकता गहराई तक पैठ जमाए है।
राजनीतिक क्षेत्र का आकलन साफ बताता है कि अधिकांश देशों में राजनीतिक सशक्तीकरण सूचकांक में 13.5 फ़ीसदी की गिरावट आई है। वर्ष 2019 में दुनिया भर के मंत्रिमंडलों में महिला मंत्रियों की हिस्सेदारी 23.1 फीसदी थी जो वर्ष 2021 में घटकर महज 9.1 फ़ीसदी रह गई है। वैश्विक स्तर पर संसद की कुल 35500 सीटों में से महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज 26.1 फीसदी है। कुल 3400 से अधिक मंत्रियों में से केवल 22.6 फ़ीसदी महिला प्रतिनिधि हैं। सूची में 81 देश ऐसे हैं जहां 15 जनवरी 2021 तक किसी महिला प्रमुख की नियुक्ति नहीं हुई थी। बांग्लादेश एकमात्र ऐसा देश है जहां बीते 50 वर्षों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या और स्थिति बेहतर रही है और राज्य व देश के प्रमुख पदों पर भी वे आसीन हैं।
आर्थिक भागीदारी के मामले में सर्वाधिक लैंगिक अंतराल वाले देशों में ईरान, भारत, पाकिस्तान, सीरिया, यमन, इराक और अफगानिस्तान शामिल हैं। रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस वर्ष आर्थिक भागीदारी में अंतर 3 फ़ीसदी बढ़ गया है। पेशेवर और तकनीकी भूमिकाओं में भी महिलाओं की भागीदारी 29.2 फ़ीसदी तक घट गई है। देश में महिलाओं की अनुमानित आय पुरुषों के मुकाबले मात्र 20 फीसदी है। जिस वजह से देश इस पायदान पर वैश्विक स्तर के मुकाबले 10 पायदान नीचे है। उच्च और प्रबंधकीय पदों पर भी महिलाओं की हिस्सेदारी 14.6 फीसदी है। यही नहीं, देश में महज 8.9 फ़ीसदी फर्मों में ही महिला प्रबंधक शीर्ष पर हैं।
स्वास्थ्य और उत्तर जीविता सूचकांक के क्षेत्र में भी भारत का प्रदर्शन खराब रहा और यह 155वें स्थान पर रहा। इस क्षेत्र में चीन की स्थिति भी कमोबेश यही है। आंकड़े बताते हैं कि प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण जैसी प्रथाओं के चलते प्रति वर्ष गायब होने वाली बालिकाओं के 1.2 से 1.5 मिलियन मामलों में 90 से 95 फ़ीसदी मामले केवल भारत और चीन के हैं। ताजा आंकड़े और जमीनी हकीकत इशारा कर रहे हैं कि महिला-पुरुषों के बीच असमानता की यह दूरी समाप्त करने में एक सदी से अधिक का लंबा समय लगेगा।