अभिषेक कुमार सिंह
चंद्रमा पर पहली बार इंसान के कदम पड़ने के पांच दशक बाद भारत-चीन के अलावा खुद नासा ने एक बार फिर चांद पर अपना मिशन भेजने की योजना का शुभारंभ कर दिया है। इस अंतरिक्ष एजेंसी ने चांद की ओर भेजे जाने वाले अब तक के अपने सबसे ताकतवर रॉकेट- स्पेस लॉन्च सिस्टम का हाल ही में सफल प्रक्षेपण कर दिया जो नासा के सबसे प्रतिष्ठित मिशन- आर्टेमिस का हिस्सा है जिसका लक्ष्य इंसान को दोबारा चंद्रमा की सतह पर उतारना है। योजना है 2024 में इस मिशन के तहत चंद्रमा पर पहली महिला और एक पुरुष अंतरिक्ष यात्री को उतारा जाएगा।
उल्लेखनीय है कि 1972 के बाद एक बार फिर नासा चंद्रमा पर इंसान को भेजने की तैयारी में है, नासा का तर्क है कि इन कोशिशों का उद्देश्य चांद पर वैज्ञानिक खोज करना, आर्थिक लाभ के रास्ते तलाशना और अंतरिक्ष अन्वेषण के संबंध में नई पीढ़ी के खोजकर्ताओं को प्रेरणा देना है। स्पेस एजेंसियों की बदौलत आज दुनिया के पास अंतरिक्ष में यान को ले जाने और वापस लाने वाले ताकतवर रॉकेट तो विकसित हो गए हैं परंतु धरती की चारदीवारी पार कर किसी अन्य ग्रह-उपग्रह तक अपना यान सटीकता से पहुंचा देना और फिर उसकी सकुशल वापसी के इंतजाम करना कतई आसान नहीं है। लेकिन इस दिशा में भारत और चीन के कई अभियानों ने वैज्ञानिक बिरादरी में नया जोश भर दिया है। अमेरिका के अलावा ये दोनों देश अंतरिक्ष में अपने सबसे करीबी पड़ोसी और धरती से महज तीन लाख चौरासी हजार किलोमीटर दूर स्थित चांद को नई नजर से देखने लगे हैं। यह सही है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद खुद को महाशक्ति साबित करने की होड़ में अमेरिका और रूस (तत्कालीन सोवियत संघ) के बीच शीतयुद्ध काल में अंतरिक्ष अनुसंधान की जो होड़ कायम हुई थी, वह 1969 से 1972 के बीच नासा के नौ अपोलो मिशनों के साथ काफी हद तक शांत हो गई थी। इस अवधि में नासा ने छह बार इंसान को चंद्रमा पर उतारा। इसके बाद दुनिया में मान लिया गया कि चंद्रमा की इतनी ज्यादा खोजबीन हो गई है कि अब वहां इंसानों को दोबारा जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
दरअसल, इस बेरुखी के कुछ कारण और भी थे। जैसे अमेरिका ने इन अभियानों के बूते दुनिया की इकलौती महाशक्ति होने का तमगा हासिल कर लिया था और अब उसे रूस से ज्यादा ताकतवर दिखाने को अंतरिक्ष मिशन चलाने की जरूरत महसूस नहीं हो रही थी। वहीं अब बेहद खर्चीला अभियान जारी रखने का तुक भी समझ नहीं आ रहा था। वैज्ञानिकों को चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी या फिर लंबी अंतरिक्ष यात्राओं का पड़ाव बनाने की जरूरत भी नहीं दिख रही थी।
चंद्रमा को लेकर पैदा हो रही नई होड़ का एक श्रेय भारत को दिया जा सकता है। भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो ने 22 अक्तूबर 2008 को जब अपना चंद्रयान-1 रवाना किया था, तो सिवाय इसके उस मिशन से कोई उम्मीद नहीं थी कि यह मिशन अंतरिक्ष में भारत के बढ़ते कदमों का सबूत देगा। लेकिन अपने अन्वेषण के आधार पर सितंबर 2009 में जब चंद्रयान-1 ने चंद्रमा पर पानी होने के सबूत दिए तो दुनिया में हलचल मच गई। चंद्रयान-1 से चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचाए गए उपकरण मून इंपैक्ट प्रोब ने चांद की सतह पर पानी को चट्टानों और धूलकणों में भाप के रूप में पाया था। इसी तरह एक उपकरण सितंबर, 2019 में चंद्रयान-2 के रोवर ‘प्रज्ञान’ के साथ भी चांद पर भेजा गया जिसका मकसद दक्षिणी ध्रुव पर उतर वहां पानी और खनिज खोजना था, हालांकि चंद्रयान-2 मिशन नाकाम हो गया। लेकिन इससे भारत के हौसले पस्त नहीं हुए। भारत ने घोषणा कर रखी है कि वह भी अपने मिशन गगनयान से मानवों को चंद्रमा पर भेजेगा। कोविड महामारी के दौर में गगनयान मिशन में कुछ देरी हो सकती है। यही नहीं, कई अन्य देश भी अब इस होड़ में शामिल हो चुके हैं। जैसे वर्ष, 2019 में इस्राइल ने भी अपना एक छोटा रोबोटिक लैंडर चंद्रमा की ओर भेजा था, जो कामयाब नहीं हो सका। इस मामले में अपेक्षित सफलता पड़ोसी चीन को मिली है, जिसके अंतरिक्ष यान ई-4 ने जनवरी 2019 में एक छोटे रोबोटिक रोवर के साथ चांद पर सफलतापूर्वक उतर इतिहास रच दिया था।
कई चरणों वाले अर्टेमिस अभियान के दूसरे और तीसरे चरण में अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा की सतह पर उतरेंगे। अपोलो-11 से यह अभियान यूं अलग होगा कि इस बार अंतरिक्षयात्री चंद्रमा की भूमध्य रेखा के बजाय इसके दक्षिणी-ध्रुव पर उतरेंगे, जो अभी इंसान के कदमों की छाप से अनछुआ है। इसके अलावा सुदूर अंतरिक्ष की यात्राओं के पड़ाव और इंसानी बस्तियां बसाने के लिहाज से भी अब चंद्रमा को सर्वाधिक संभावना वाले अंतरिक्षीय पिंड के रूप में देखा जाने लगा है।