अनिल गुप्ता ‘तरावड़ी’
यूं तो सत्ता के दंभ में विपक्षी आवाजों को दबाने का सिलसिला पूरी दुनिया में रहा है, लेकिन फिलहाल भारत में यह प्रवृत्ति घातक स्तर तक बढ़ी है। देश के कई राज्यों में प्रतिकार करने वाली आवाजों का दबाने का क्रम तेज हुआ है, जिसके लिये लोकतंत्र की रक्षा के लिये बने कानूनों का दुरुपयोग हुआ है। हमेशा से ऐसा नहीं था, कई प्रेरक व सुखद प्रसंग राजनेताओं के उदार व्यवहार के सामने आते हैं। वर्ष 1996 में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के तेरह दिन बाद सरकार बनाने से पीछे हटने की घोषणा की थी। तब उन्होंने कहा था कि सत्ता का खेल तो चलेगा, सरकारें आएंगी जाएंगी, पार्टियां बनेंगी बिगड़ेंगी, यह देश रहना चाहिए… इस देश का लोकतंत्र अमर रहना चाहिए।
हाल के दिनों में राजनीतिक दुराग्रह में सचेतक व मुखर आवाजों के दमन के शर्मसार करने वाले प्रसंग सामने आये हैं। हालांकि, कोई भी राजनीतिक दल ऐसे आरोपों से परे नहीं है, लेकिन कुछ दलों ने मर्यादा व सहिष्णुता की सभी सीमाएं लांघ दी हैं। विपक्षी दलों व सचेतक आवाजों के दमन का बड़ा उदाहरण 1975 में सामने आया था जब तमाम लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन करके देश में आपातकाल लागू किया गया था। तमाम विपक्षी नेता जेल में डाल दिये गये थे। इस हमाम में सभी राजनीतिक दल एक जैसे हाल में नजर आते हैं।
हाल ही में गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवाणी को विवादित टिप्पणी के मामले में जमानत देते समय बारपेटा, असम के सत्र न्यायाधीश ने कहा कि इतनी मुश्किलों से अर्जित लोकतंत्र को पुलिस राज में बदलने की बात सोची भी नहीं जा सकती। पंजाब में आप सरकार द्वारा सत्ता ग्रहण करने के बाद पुलिस के जरिये कुमार विश्वास, अलका लांबा, तजिन्द्र बग्गा के खिलाफ कार्रवाई कदापि न्यायोचित नहीं है।
हाल ही में महाराष्ट्र सरकार द्वारा राजनीतिक दुराग्रह से सांसद नवनीत राणा एवं उनके विधायक पति पर राजद्रोह के साथ-साथ अन्य धाराएं भी लगा दी गयीं जो लोकतांत्रिक परम्पराओं के खिलाफ है। दरअसल, सत्ता ने नेताओं को असहिष्णु बना दिया है। वहीं वर्ष 2001 में जयललिता के इशारे पर पुलिस द्रुमुक के कद्दावर नेता करुणानिधि को रात के 2 बजे उठाकर ले गई और अमानवीय व्यवहार किया गया।
आजादी के बाद के कुछ दशकों में पक्ष व विपक्ष के संबंध सहिष्णुता व सद्व्यवहार के रहे। तब विपक्ष की स्वस्थ आलोचना का सम्मान किया जाता था। राष्ट्र के हित सर्वोपरि थे। वर्ष 1957 में जब अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा पहुंचे तो उस समय जनसंघ के कुल तीन सदस्य थे। तब पं. जवाहर लाल नेहरू पहले प्रधानमंत्री थे। अटल बिहारी वाजपेयी अपनी वाकपटुता व विदेश नीति के ज्ञान के चलते सरकार की कटु आलोचना करते थे। जवाहर लाल नेहरू इस 32 वर्ष के युवा सांसद से इतने प्रभवित थे कि उन्होंने लोकसभा में यह कह दिया था कि एक दिन यह युवा सांसद देश का प्रधानमंत्री बनेगा। सबसे छोटी पार्टी जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही थी, उसका सत्ता में आना व उसका नेता प्रधानमंत्री होना किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था। एक बार वाजपेयी ने नेहरू को कहा था कि आपका व्यक्तित्व दोहरा है। कभी आप चर्चिल बन जाते हो तो कभी चैम्बरलिन। किसी कार्यक्रम में जवाहर लाल ने वाजपेयी से कहा कि आज आपने मेरी सशक्त आलोचना की है। आज के समय ऐसी आलोचना दुश्मनी को आमंत्रण देने जैसी है।
वहीं वर्ष 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगाने वाले जवाहरलाल नेहरू ने 1962 के भारत-चीन युद्ध में आरएसएस द्वारा सैनिकों को राहत सामग्री, हथियार व अन्य सामान आदि पहुंचाने की बात का मान रखते हुए 26 जनवरी, 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में 3 हजार स्वयंसेवकों को पूर्ण गणवेश में शामिल होने का मौका दिया। वर्ष 1965 में जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया तो प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। इस सभा में संघ को राष्ट्रीय संगठन मानते हुए इसके प्रमुख माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर को हेलिकाॅप्टर भेजकर आरएसएस मुख्यालय नागपुर से बुलाया गया।
1971 की लड़ाई में जब राजनीतिक दल इंदिरा गांधी का विरोध कर रहे थे तो जनसंघ ने कहा था कि प्रत्येक भारतीय का दायित्व बनता है कि संकट की घड़ी में सभी प्रधानमंत्री का साथ दें। 1971 की लड़ाई जीतने के बाद लोकसभा में वाजपेयी ने इंदिरा को दुर्गा कहा था। वर्ष 1977 में वाजपेयी विदेश मंत्री बने तो वह जब पहली बार अपने साऊथ ब्लाॅक आॅफिस गए तो उन्होंने देखा कि गलियारे में लगी जवाहर लाल नेहरू की फोटो गायब थी। वाजपेयी ने तुरंत अधिकारियों को बुलाया और निर्देश दिया कि जवाहर लाल नेहरू की फोटो वहीं पर लगाई जाए।
वाजपेयी ने 1991 में एक पत्रकार वार्ता में कहा कि आज जो मेरी जिंदगी है, उसका श्रेय राजीव गांधी को जाता है। उन्होंने बताया कि जब राजीव गांधी को पता चला कि मुझे किडनी की समस्या है व इसका इलाज भारत में नहीं है तो उन्होंने मुझे बुलाकर कहा- ‘न्यूयार्क एक प्रतिनिधिमंडल जा रहा है, आप उसका हिस्सा बनिये व आपका इलाज अमेरिका में अच्छा हो सकता है। सरकार आपके इलाज की पूरी व्यवस्था करेगी।’ वाजपेयी स्वस्थ होकर अमेरिका से वापस आए।
दिसंबर, 1995 में परमाणु विस्फोट की तैयारी कर ली गई थी लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री अमेरिकी दबाव में पीछे हट गए थे। 16 मई, 1996 को वाजपेयी ने जब शपथ ली थी तो पीवी नरसिम्हा राव, एपीजे अब्दुल कमाल एवं पी चिदम्बरम को लेकर वाजपेयी को मिले थे। पीवी नरसिम्हा राव ने कहा था कि सामग्री तैयार है आप आगे बढ़ सकते हैं। प्रधानमंत्री के रूप में दूसरी बार शपथ लेकर वाजपेयी सरकार ने 11 मई, 1998 को पोखरण में विस्फोट किया और भारत एक परमाणु शक्ति बन गया। वर्ष 1996 में जब पाकिस्तान ने यूएन में कश्मीर के मुद्दे को उठाया तो भारत का पक्ष रखने के लिए एक सशक्त नेता चाहिए था। तो पीवी नरसिम्हा राव ने राष्ट्रीय हित में वाजपेयी को भेजा। वाजपेयी ने यूएन में भारत को संकट की घड़ी से निकाला। पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व कर रहीं बेनजीर भुट्टो ने कहा था कि भारत का लोकतंत्र एक अनूठा लोकतंत्र है, जहां पर एक विपक्ष का नेता सभी मतभेदों को भुलाकर सरकार का पक्ष रखने के लिए दिलो-जान से खड़ा है।