अश्विनी कुमार
जिस तरह बहुमत के बल पर जल्दबाजी से तीन कृषि अध्यादेशों को नये कानूनों में बदला गया है, उससे हमारी संसदीय लोकतांत्रिक पद्धति के भविष्य को लेकर असहज सवाल पैदा होते हैं। ऐसा करते वक्त विपक्ष की आवाज़ को अनसुना कर दिया गया है। संसद के दोनों सदनों में प्रस्तावों के विरुद्ध स्वर उठाने वालों का मुंह बंद कर इन्हें मंजूर करवा लिया गया है। यह मुद्दों पर सार्थक बहस न होने देने वाली ताकत का निर्लज्ज नमूना है। स्थापित संसदीय प्रक्रिया को ढिठाई से दरकिनार करने वाले इस नागवार प्रसंग की याद जनता के ज़हन लंबे समय तक बनी रहेगी। हमारे मुल्क में यह परंपरा रही है कि कोई सरकार सदन में कानून का मसौदा रखते वक्त इसकी उपयोगिता गिनाती है और चर्चा होती है, किंतु पिछले कुछ वक्त से बहस करवाने की जरूरी प्रक्रिया की अनदेखी करते हुए विधायी प्रक्रिया का ह्रास करना नित्यक्रम हो गया है।
उक्त रुझान ने नये कृषि कानूनों को लाजिमी लोकतांत्रिक और नैतिक वैधता से महरूम कर दिया है। साफ है, किसी भी सक्रिय लोकतंत्र में कोई ऐसा कानून, जिस पर किसी वर्ग की बिना दबाव वाली स्वीकार्यता का अभाव हो, बावजूद इसके सामाजिक धरातल के प्रति संवेदनहीन सरकार जोर-जबरदस्ती से लाद कर यह कहे कि जनता खुशी से कबूल रही है और पालना करेगी, तो यह दावा करना सही नहीं है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के नेतृत्व पर लोगों का बना विश्वास उनका अपने सिद्धांतों पर अडिगता दिखाने की वजह से था। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि स्वतंत्र भारत के जीवट और पूजा तुल्य कृषक समुदाय की कद्र करने हेतु मौजूदा सरकार को विदेशी शासन के दौरान सीखे गए सबक को याद दिलवाना पड़ रहा है।
हम भली-भांति यह जानते हैं कि किसी कानून की प्रभावशीलता उसके न्यायोचित होने और सार्थकता महसूस करने पर आधारित होती है। पहले से ही कोविड-19 महामारी से बनी अति विकट स्थितियों के बावजूद नये विवादित कृषि कानूनों को लेकर जिस तरह सड़कों पर जनाक्रोश देखने को मिल रहा है, यह दर्शाता है कि जिन प्रावधानों को किसान वर्ग का हितैषी और रखवाला बताकर लागू किया जा रहा है, वास्तव में उन पर स्वयं किसानों का संशय कुछ और ही है।
खबरों के मुताबिक पंजाब के मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि जिस तरह संसद में कानूनों को धक्केशाही से पारित करवाया गया है, उसे न्यायलय में चुनौती दी जाएगी। जब एक मुख्यमंत्री खुद को ऐसी स्थिति में पाता है कि संवेदनशील मुद्दों पर केंद्रीय सरकार से कोई माकूल जबाव नहीं मिलता तो यह भारतीय संघीय व्यवस्था के भविष्य के लिए अशुभ संकेत है।
देश के सबसे बड़े समुदाय यानी किसान वर्ग, जिसमें सीमांत सूबा पंजाब भी शामिल है और जिसने लंबे समय तक आतंकवाद और पाकिस्तान प्रायोजित विद्रोह को झेला है, वहां नए कृषि कानून पुनः अस्थिरता बनने का कारण पैदा कर सकते हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा पर इसका बुरा असर पड़ेगा। नये कृषि कानूनों का विरोध देशभर में हो रहा है और भिन्न राजनीतिक विचारधारा वाले दल इन्हें बनाने एवं लागू करने की मुखालफत कर रहे हैं, इसका प्रमाण कांग्रेस, डीएमके, तृणमूल कांग्रेस, एआईएडीएमके, बीजेडी, आरजेडी, टीआरसी, शिरोमणि अकाली दल और वाम दलों द्वारा दिखाया विरोध है। इन सबकी मांग है कि कानूनों को राज्यसभा के चुनींदा सदस्यों वाली समिति के पास विस्तृत पुनः समीक्षा के लिए भेजा जाए।
अगर यह मान भी लिया जाए कि नये लागू किए कानूनों में अच्छी बातें हैं तो सरकार को किसने रोका था कि विपक्ष शासित राज्य सरकारों समेत तमाम संबंधित पक्षों की पहले तसल्ली करवाती।
नये कानूनों के विरोध के मूल में एक तो इनका निर्मम होना और फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था हटने की आशंका से किसानों में इसके प्रति धारणा घातक होने वाली बन गई है। पंजाब और हरियाणा जैसे सूबों में इसकी सार्थकता खासतौर पर है जहां मंडी व्यवस्था और न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था की पालना बाकी सूबों के मुकाबले बेहतर और अपना प्रयोजन निभा रही है, लेकिन अब माना जा रहा है इसको खतरा पैदा हो जाएगा। किसान संगठन इन कानूनों को कृषि के ‘कॉर्पोरेटीकरण’ की ओर पहला कदम बता रहे हैं और भविष्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य का खात्मा हुआ मान रहे हैं। कुल मिलाकर किसानों को डर है कि मूल्य निर्धारण बाजार के मुक्त खेल के रहमो-करम पर छोड़ दिया गया है।
अगर यह मान भी लिया जाए कि जनता में नये कानूनों के लेकर बनी धारणा मात्र गलतफहमी है तो यह सरकार पर निर्भर था कि वह उनकी स्वीकार्यता बनाने को सही और संपूर्ण जानकारी मुहैया करवाती लेकिन यह नहीं किया गया। इसकी बजाय, हमने देखा कि केवल खुद को सही समझने वाली सरकार अपने निर्णयों को सही सिद्ध करने पर अड़ी हुई है और इसने संसद के अंदर और बाहर उक्त विवादित कानूनों की एतराज योग्य बातों पर गहराई से विचार-विमर्श एवं मंथन करने की ओर जरा-सा भी प्रयास नहीं किया। किसी ने सही कहा हैः ‘व्याख्या की उत्तमता ही कानून’ है और फ्रांसीसी विचारक मोंटेस्क्यू हमें याद दिलवाते हैं ‘इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि व्याख्या करने वाला अपनी बात सही ढंग से कर पा रहा है या नहीं; इतना काफी है कि वह अपने तर्क दे रहा है। टकराव (वाद-विवाद) से सच निकलकर आता है, इससे बोलने की आजादी जन्म लेती है, जो आगे चर्चा के प्रभाव से उपजा नागरिक हित सुरक्षा का भाव है…।’
अपने ही देश के किसानों के हितों से खिलवाड़ करने वाली सरकार शासन करने का नैतिक हक खो बैठती है। मौजूदा समय में ‘विकृत और पंगु करने’ की नीति पर चलने वाली सरकार के अपने हित में होगा कि थॉमस पैने का यह कथन याद रखे ‘ सत्ता का हिंसक (धक्केशाही) दुरुपयोग करने का मतलब है सवालों में उठाए गए कारण सही हैं।’ उम्मीद करें कि नये कृषि-कानूनों के दबे-छिपे मनोरथ को भांपकर बनी राजनीतिक-सामाजिक लहर से राष्ट्र के पुनरुत्थान करने वाली राजनीति के प्रति देशव्यापी जागरूकता बढ़ेगी। परंतु इसके लिए विपक्ष को मौजूदा ‘धुंध की दीवार’ से परे देखने की जरूरत है ताकि महत्वपूर्ण मुद्दों पर बृहद राष्ट्रीय सहमति बनाने के लिए उभयनिष्ठ बिंदुओं की पहचान हो सके, इसमें कृषि-आर्थिकी को बदलने से संबंधित मामले भी शामिल हैं। भावी पीढ़ियों की साझी विरासत के संरक्षक के तौर पर हम नागरिक समाज को तोड़ने वाली राजनीति चलने देना गवारा नहीं सकते। साथ ही हमें लगातार घटती जा रही सहानुभूति और संवेदना को नहीं भूलना है, जो वास्तव में मानवता को परिभाषित करती है। एक ऐसे देश के लिए जो दुनिया में मनुष्यता की नियति को शक्ल देने में सही योगदान देने की चाहत रखता है, उसका अपना भविष्य एक ऐसी राजनीति को बढ़ावा देने में सुरक्षित होगा, जिसमें सबका साथ, न्याय और सभी का सम्मान सुनिश्चित हो। ताजा हालातों को राष्ट्रीय जागरण के पल बनने दें।
लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं।
ये उनके निजी विचार हैं।