अश्विनी कुमार
माना जाता है कि समाज में लोगों की साझी भलाई की खातिर लोकतांत्रिक व्यवस्था की नैतिक श्रेष्ठता कायम रखना सरकार की जिम्मेदारी होती है। लोकतांत्रिक वैधता चुनावी प्रक्रिया की वह पूर्व-धारणा है जो लोगों को स्वेच्छापूर्वक एवं मुक्त मतदान करने में सहायक हो। वर्तमान स्थिति में, प्रजातंत्र की इन मूलभूत आवश्यक शर्तों को कायम रखना एक जीवंत लोकतंत्र की परीक्षा है।
अकाट्य मेडिकल सबूत और विगत के अनुभवों ने शक के परे जाकर सिद्ध किया है कि चुनावी प्रक्रिया के दौरान भारी भीड़ जुटी और लाखों की संख्या में शारीरिक दूरी कायम रखे बिना, रैलियों में शामिल हुए लोग कोविड फैलाने का सबसे बड़ा कारक बने। बीते साल कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव के बाद कोविड की जो दूसरी लहर बनी थी, उससे हुए भारी जानी नुकसान का मंज़र आज भी ताजा है। वैज्ञानिक प्रमाण बताते हैं कि वायरस की संक्रमित करने की क्षमता अकेले उसकी प्रवृत्ति अथवा घातकता पर न होकर वायरस और इंसान के बीच दूरी कितनी है, इस पर निर्भर होती है। अध्ययनों से सिद्ध हुआ है कि 8 फीसदी संक्रमित लोग आगे 60-80 प्रतिशत लोगों को संदूषित करने की वजह बनते हैं। ओमीक्रोन रूपांतर की संक्रामक क्षमता बहुत अधिक होने की वजह से आगामी 4-8 हफ्तों में इसकी अधिकतम तीव्रता बनने की उम्मीद है, नतीजतन संक्रमितों की संख्या में भारी उफान आएगा। देश के अनेक जिलों से टेस्ट में पॉज़िटिव आए मामलों की संख्या 10 फीसदी होने की खबरें पहले ही आने लगी हैं। दूसरी लहर के अवसान के बाद, बीती तीन जनवरी को मामलों की दैनिक औसत अधिकतम संख्या 27,553 थी। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री चेता चुके हैं कि तीसरी लहर में कोविड मामले पिछली उच्चतम गिनती के मुकाबले 3-4 गुणा ज्यादा हो सकते हैं। यह साफ संकेत है कि देश में गंभीर मेडिकल आपदा आसन्न है और कड़े उपायों का विकल्प अपनाना होगा।
बेशक समयबद्ध चुनाव करवाने की अनिवार्यता राजनीतिक प्रजातंत्र का एक अभिन्न अवयव है, लेकिन आज इसके पालन से नागरिकों के स्वास्थ्य और जिंदगी की सुरक्षा की गारंटी देने वाले संवैधानिक प्रावधान से टकराव होता दिखाई देता है। व्यावहारिक यथार्थ बताता है कि चुनाव करवाने के दौरान वायरस का फैलाव न होने पाए इस हेतु कोविड आचार संहिता का पालन अक्षरशः होना असंभव है। अक्सर महत्वपूर्ण विकल्प आसान नहीं होते, लेकिन आवश्यक हैं। यह दलील दी जाती है कि चुनाव टालने से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को धक्का लगता है और यह सत्तारूढ़ दल को अपने निर्धारित कार्यकाल से अधिक सत्ता का सुख लेने का मौका प्रदान करता है, जिसे एक तरह से अलोकप्रिय सरकारों का अवैध राज कहा जाए।
हम यह भी जानते हैं कि 31 देशों में, वहां के चुनाव आयोग ने निर्धारित प्रावधानों से परे हटकर, विभिन्न स्तरों पर होने वाले चुनावों को आगे टाल दिया है। हालांकि यह केवल संवैधानिक संशोधन के जरिए किया जा सकता है, जिसके लिए राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक सहमति की जरूरत है और वह हमारे यहां नदारद है। इससे संवैधानिक लचीलेपन पर सवाल उठते हैं कि अभूतपूर्व परिस्थिति में ‘जीवंत संविधान’ का वादा, जो मुश्किल आपदा में ध्यान राष्ट्रीय चिंताओं पर केंद्रित रहे, क्या इस पर खरा उतरता है? विगत में संवैधानिक संशोधन करने वाले प्रावधान का इस्तेमाल कई बार तात्कालिक राष्ट्रीय चिंताओं का उपाय करने में चूका है। ‘गंभीर राष्ट्रीय मेडिकल आपातकाल’ पर आधारित संवैधानिक संशोधन के जरिए विधानसभाओं के कार्यकाल में अल्पकालिक विस्तार करने वाला प्रावधान जोड़ा जा सकता है। राजनीतिक नैतिकता की दरकार है कि हम पिछले अनुभवों से सबक लें और राजनीतिक लाभ एवं महत्वाकांक्षा की वेदी पर गलत चयनों का त्याग करें।
कोविड की वर्तमान स्थिति के मद्देनजर हालिया प्रतिबंध, मसलन, कुछ राज्यों में रात्रि-सप्ताहांत कर्फ्यू और अन्य स्थानीय प्रतिबंधों वाले उपाय फिलहाल विधानसभा चुनाव करवाने के एकदम उलट हैं। एक तरफ लॉकडाउन लगाने में बरती गई अत्यंत अतार्किकता और दूसरी ओर चुनावी गतिविधियों की इज़ाजत देना, लोगों की समझदारी का मजाक उड़ाना और हमारे नेताओं के उद्देश्यों पर सवालिया निशान है। देश को यह पूछने का हक है कि विशिष्ट परिस्थिति और लाखों लोगों पर आसन्न गंभीर खतरे के आलोक में सर्वोच्च न्यायालय से इस मामले में संज्ञान की अपेक्षा करना क्या बहुत ज्यादा आस है। विगत में न्यायालय चुनावों को अस्थाई तौर पर आगे सरकाने के समर्थन में राष्ट्रीय मिजाज भांपने के बावजूद इस मामले में टाल-मटोल वाला रवैया रखता रहा है। गंभीर मेडिकल आपदा के आलोक में वह चयन, जिसका असर लोगों के स्वास्थ्य और जिंदगी पर हो, वहां इस बात पर अड़ना सच में ठीक नहीं कि लोगों के जीवन-भलाई की कीमत पर चुनावों को कुछ हफ्तों या महीनों तक आगे सरकाने से हमारी लोकतंत्र व्यवस्था को गंभीर खतरा होगा।
इसके बरक्स, एक त्रुटिपूर्ण चुनावी प्रक्रिया हमारे भरोसेमंद लोकतंत्र के सोपान पर सवाल उठाती है। बेशक मतदाता को अपना मताधिकार इस्तेमाल करने का हक है, किंतु वास्तव में यह बीमारी के डर और प्रतिबंध रहित मुक्त माहौल में हो, तभी सार्थक है। मौजूदा हालात में, यह सोच से परे है कि सरकार या चुनाव आयोग एक मुक्त एवं साफ-सुथरे चुनाव करवाने को जरूरी महत्वपूर्ण पूर्व-शर्तों की गारंटी दे सकते हैं, मसलन, विचार-विमर्श, समान भागीदारी, चुनाव प्रबंधन की गुणवत्ता, चुनाव लड़ने वालों को समान अवसर का पूर्ण एवं प्रभावी मौका देना और मेडिकल संहिता समेत अन्य नियम लागू करवाना। चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, लेकिन स्वास्थ्य संहिता अनिवार्य रूप से लागू करवाने का कोई तंत्र मौजूद नहीं है।
हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों के समक्ष चुनौतियों में एक है, माध्यम और परिणाम के बीच सही संतुलन ढूंढ़ना। जनता को यह जानने का हक है कि नागरिकों के मूलभूत अधिकार -स्वतंत्रता, जीवन और साफ-सुथरे चुनाव- अक्षुण्ण रहें, इसको चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय कैसे सुनिश्चित करेंगे। लोगों की इस शक्ति का संरक्षक होने के नाते राष्ट्रीय सरकार का देश को यह बताना जरूरी है कि कैसे मौजूदा प्रावधान मूल संवैधानिक मूल्य, जीने के अधिकार सुनिश्चित करने में अड़चन बन रहे हैं।
मौजूदा निर्णायक समय में, जिसको अलग किस्म के जन-जीवन संबंधी और राजनीतिक पद्धति की दरकार है, चुनावों का सारणी निर्धारण करना, लोकतांत्रिक मूल्यों का मूल अर्थात् नागरिक भलाई को खतरे में डालने जैसा है। हेराल्ड जे़ लास्की अपनी मौलिक पुस्तक ‘ए ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स’ में हमें याद दिलाते है ‘समय के परिप्रेक्ष्य में, राज्य व्यवस्था का हर सिद्धांत सदैव समझ में आने लायक नहीं होता।’ इसलिए मूल्यों की अनिच्छुक दास्ता स्वीकार करने वाले इस युग में, देशवासी बृहद संवैधानिक ध्येयों की पूर्ति हेतु स्व-हितों की बलि देना गवारा नहीं कर सकते, खासतौर पर जीने के अधिकार की। यह नाजुक आपातकाल राष्ट्र की खातिर कुछ छोड़-पाकर मुश्किलों से पार पाने में राजनीतिक नेतृत्व और तार्किक लोकतांत्रिक सीमाओं की क्षमता का इम्तिहान है।
लेखक पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री हैं।